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संध्या शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘ध्यै चिन्तायाम्’ धातु से निष्पन्न होने से इसका अर्थ है- सम्यक् रूप से चिन्तन, मनन, ध्यान, विचार करना आदि।

संध्या को परिभाषित करते हुए ऋषि दयानन्द पञ्चमहायज्ञ-विधि में लिखतेहैं-

‘सन्ध्यायन्ति सन्ध्यायते वा परब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या’

अर्थात् जिसमें परब्रह्म परमात्मा का अच्छी प्रकार से ध्यान किया जाता है, उसे संध्या कहते हैं। इसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की जाती है। उधर भगवान् मनु संध्योपासना के विषय में मनुस्मृति में लिखते हैं-

पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति । पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ॥ [मनु. 2.102]

अर्थात् दोनों समय संध्या करने से पूर्ववेला में आये दोषों पर चिन्तन-मनन और पश्चात्ताप करके उन्हें आगे न करने के लिए संकल्प किया जाता है।

संध्या का फल

सत्य सनातन वैदिक धर्म में परमपिता परमात्मा की पूजा वा संध्या का अभिप्राय स्तुति, प्रार्थना और उपासना से ही है। ऋषि दयानन्द सरस्वती के अनुसार-

‘स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’

संध्या कैसे करें ?

प्रातः व सायं काल सन्धिवेला में नित्यकर्मों से निवृत्त होकर पवित्र एवं एकान्त स्थान पर सिद्धासन, सुखासन वा पद्मासन लगाकर संध्या के लिए बैठ जायें। इसके पश्चात् सभी राग, द्वेष, चिन्ता, शोक आदि से मुक्त होकर शान्त व एकाग्रचित्त होकर परमात्मा के ध्यान में अपने मन और आत्मा को स्थिर करते हुए संध्योपासना करें।

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