ओउम् “गुरूकुल शिक्षा प्रणाली बनाम् स्कूलों में दी जाने वाली वर्तमान शिक्षा”

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मानव सन्तान को शिक्षित करने के लिए एक पाठशाला या विद्यालय की आवश्यकता होती है। बच्चा घर पर रह कर मातृ भाषा तो सीख जाता है परन्तु उस भाषा, उसकी लिपि व आगे विस्तृत ज्ञान के लिए उसे किसी पाठशाला, गुरूकुल या विद्यालय मे जाकर अध्ययन करना होता है। केवल भाषा से ही काम नहीं चलता अपितु अनेक विषय हैं जिनका ज्ञान गुरूकुल, पाठशाला या विद्यालय में कराया जाता है। उदाहरण के लिए मातृ भाषा के साथ हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी व कुछ अन्य भाषायें भी आवश्यकतानुसार सीखनी होती है। भाषा के साथ गणित, सामान्य ज्ञान, कुछ अध्यात्म, इतिहास, भूगोल, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, व्यायाम, रक्षा, चिकित्सा, कला आदि अनेक विषय हैं जिनका ज्ञान आज के समय में अति आवश्यक है। जीवन में मनुष्य को अपना व अपने भावी परिवार का जीवनयापन भी करना होता है अतः रोजगार दिलाने वाले व्यवसायिक विषयों का ज्ञान भी आवश्यक है। आजकल माता-पिता अपने सन्तानो को विज्ञान, वाणिज्य, कम्प्यूटर साइंस, इंजीनियरिंग व चिकित्सा आदि की शिक्षा दिलाते हैं जिससे वह किसी रोजगार से जुड़ कर सफलतापूर्वक भावी जीवन व्यतीत कर सकें।

शिक्षा पद्धति की चर्चा आने पर आजकल मुख्य रूप से पब्लिक स्कूल पद्धति प्रचलित है जहां बच्चे को प्रायः अंग्रेजी भाषा के माध्यम से अध्ययन कराया जाता है और इसी भाषा के माध्यम से उसे गणित, साइंस व कला की शिक्षा दी जाती है। इण्टर या ग्रेजुएशन कर लेने पर वह इंजीनियरिंग, मेडीकल साइंस आदि अपने इच्छित विषय को लेकर व्यवसायिक कोर्स या स्नातक व स्नातकोत्तर उपाधियां प्राप्त कर सकता है जिसके बाद उसे रोजगार मिल जाता है और वह सुख-सुविधा पूर्वक जीवन व्यतीत करता है। दूसरी शिक्षा पद्धति हमारी प्राचीन गुरूकुलीय पद्धति है। गुरूकुल का उद्देश्य बालक का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक सर्वांगीण विकास करना होता है। यहां हम शिक्षा के बारे मे स्वामी दयानन्द की मान्यता का उल्लेख करना उचित समझते हैं। वह लिखते हैं कि शिक्षा उसको कहते हैं जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता व धर्म में प्रवृत्ति, जितेन्द्रियतादि की वृद्धि होवे और अविद्यादि दोष छूटें। अज्ञान व बन्धनों से छूटना जिससे सिद्ध हो वह भी विद्या होती है। शिक्षा व भाषा अर्थात् शिक्षा का माध्यम का भी परस्पर गहरा सम्बन्ध है। बच्चा अंग्रेजी पढ़े इससे किसी का विरोध नहीं है परन्तु पहले वह मातृ भाषा सीखे, तत्पश्चात, भारत पृष्ठभूमि का बच्चा, हिन्दी व संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करे, इनके माध्यम से वेद, उपनिषद्, दर्शन, मनुस्मृति, बाल्मिीकी रामायण व महाभारत आदि का विस्तृत या काम चलाऊ ज्ञान प्राप्त करे, उसके बाद व साथ में वह अंग्रेजी, गणित व साइंस आदि विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करे तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। हिन्दी व संस्कृत के ज्ञान से वह भारत के आम व्यक्ति से जुड़ जाता है जबकि पहली कक्षा से अंग्रेजी का अध्ययन उसे कई प्रकार से हिन्दी पृष्ठभूमि के बच्चों से दूर करता है। हिन्दी में भी ज्ञान, विज्ञान सहित इतिहास, भूगोल व अध्यात्म विषयक विशद साहित्य है जो केवल अंग्रेजी को जानकर व उसमें अध्ययन कर उनसे लाभान्वित नहीं हुआ जा सकता। ऐसा व्यक्ति सर्वांगीण व्यक्तित्व वाला न होकर एकांगी होता है। अन्य विषयों की शिक्षा के साथ अध्यात्म विज्ञान विषय का विशद ज्ञान तो अनिवार्य कोटि में आना चाहिये इससे व्यक्ति चरित्रवान व कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनता है।

अध्यात्म का अनिवार्य ज्ञान क्यों?, तो इसका उत्तर है कि प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम यह जानना है कि यह संसार कब, कैसे व किसके द्वारा बनाया गया है। संसार को बनाने वाली सत्ता कौन है व अब कहां है? वह दिखाई क्यों नहीं देती? क्या उसे देखा जा सकता है? यदि हां तो कैसे और नही तो क्यों? उसका देखना आवश्यक है या नहीं? यदि आवश्यक है तो क्यों व उससे हमें व सब देखने वालों को क्या लाभ होगा? हम कौन हैं? हममें जो चेतन तत्व अर्थात् जो हम स्वयं है, वह कैसे उत्पन्न होता है? क्या वह अनादि, अनुत्पन्न, नित्य व अविनाशी है या उत्पन्न हुआ व मरणधर्मा है? यदि जीवात्मा उत्पन्न धर्मा व मरणधर्मा है तो हमें किसने व किस प्रयोजन से बनाया है? सृष्टि को किस पदार्थ, वस्तु या तंू उंजमतपंस या कारण तत्व से बनाया गया है? क्या यह सृष्टि पहली बार बनी है या इससे पूर्व भी बनी है? यदि इससे पूर्व भी बनी है तो उसमें क्या युक्ति व प्रमाण है और यदि पहली बार ही बनी है तो इसमें भी क्या युक्ति व प्रमाण है? मनुष्यों की आकृति-शकल-सूरत, लम्बाई, चैड़ाई, आकार-प्रकार व सुन्दरता-असुन्दरता तथा ज्ञान व अज्ञान का भेद क्यों है? क्या हम जो कर्म करते हैं उनका फल हमें भोगना होगा या वह क्षमा हो जायेगें? यदि वह क्षमा होते हैं तो कौन क्षमा करता है व क्यों करता है, उसके नियम क्या हैं एवं कब, कैसे व किसने बनाये हैं? यदि नहीं होते तो क्यों नहीं होते? ऐसे अनेकानेक प्रश्न है जिसके लिए हमें हिन्दी व संस्कृत का अध्ययन तथा साथ में वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन भी करना है। अंग्रेजी व दुनियां की अन्य किसी भी भाषा का अध्ययन कर लें, इन व ऐसे प्रश्नों के पूर्ण व सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलते। अतः हिन्दी व संस्कृत का अध्ययन परम आवश्यक हैं। यह न केवल भारतीय व हिन्दी भाषियों के लिए अपितु दुनियां के सभी लोगों के लिए समान रूप से आवश्यक एवं उपादेय है।

शिक्षा व अध्ययन द्वारा हमें यह भी जानना है कि हमारे जन्म व जीवन का उद्देश्य क्या है अन्यथा शिक्षा अधूरी सिद्ध होगी व जीवन को सन्मार्ग के स्थान पर कुमार्ग पर ले जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का जो उद्देश्य है, उसका उत्तर वेद व वैदिक साहित्य में ही मिलता है। हमारे जीवन का उद्देश्य सदा-सदा के लिए जन्म-मरण के दुःखों से मुक्ति व निवृत्ति है जो वैदिक शिक्षाओं का पालन यथा, सन्ध्या, यज्ञ, माता-पिता-आचार्य-गुरूजनों-वृद्धों की सेवा तथा पशु-पक्षियों आदि अन्य जीव-जन्तुओं के प्रति मैत्रीभाव रखकर प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ योगाभ्यास व योगसाधना से ईश्वर का साक्षात्कार कर परम सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है जो भौतिक पदार्थो से कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता है। इसे केवल वेदों के आचार्य व अध्येता ही समझा सकते हैं। संक्षेप में यह जान लेना उचित होगा कि ईश्वर सर्वव्यापक और आनन्दस्वरूप है एवं योग द्वारा उसका सान्निध्य मिल जाने से जीवात्मा के दुर्गण व दुःखादि दूर होकर ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव आदि के अनुरूप होकर जीवात्मा व मनुष्य के दुःखों की निवृति व आनन्द की उपलब्धि होती है। सन्ध्या व ध्यान से ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है और यह जन्म-मरण के दुःखों को दूर कर मुक्ति व मोक्ष प्रदान कराता है। अतः संस्कृत व हिन्दी के साथ अध्यात्म, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन अति आवश्यक है। इसके साथ ही वह सम्पूर्ण शिक्षा जो अंग्रेजी पद्धति द्वारा दी जाती है, वह भी विद्यार्थियों को मिलनी चाहिये। इसके लिए ही गुरूकुलीय शिक्षा है जहां पुरातन व नवीन सभी विषयों का सम्यक अध्ययन कराया जाता है।

गुरूकुलों में बच्चों को दुग्ध-फल व भक्ष्य कोटि का शुद्ध शाकाहारी भोजन कराया जाता है। मांसाहार, मद्य, अण्डा, धूम्रपान आदि व्यसनों का गुरूकुल शिक्षा एवं वैदिक जीवन में सर्वथा निषेध है। ब्रह्मचारी व्यायाम करते हैं एवं इसके साथ योगाभ्यास भी करते है। सभी प्रकार की खेल-क्रीडाओं व जूडो-कराटे, सूटिंग आदि का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कलाबाजी या जिमानस्टिक की शिक्षा की भी व्यवस्था की जाती है। इससे बालक का शरीर पुष्ट व बलवान होता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन, बुद्धि व आत्मा हो सकते हैं। अतः गुरूकुल का बालक या ब्रह्मचारी बौद्धिक दृष्टि से अधिक सक्षम होता है और सभी विषयों को सरलता से ग्रहण कर सकता है। यदि गुरूकुल में रहकर बच्चे कक्षा 12 या इण्टर तक की भी शिक्षा प्राप्त कर लें तो उनकी बुनियाद सुदृण हो जाती है और इसके बाद वह आधुनिक शिक्षा के केन्द्रों में अध्ययन कर व्यवसायिक विषयों की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। देहरादून की पश्चिमी दिशा में पौंधा नामक ग्राम में एक गुरूकुल है जहां बालक व युवक प्राचीन गुरूकुलीय शिक्षा पद्धति से अध्ययन कर रहें हैं। यहां ब्रह्मचारी रवीन्द्र तथा ब्रह्मचारी अजीत आदि अनेक युवकों ने अध्ययन किया है और सम्प्रति वह सफल जीवन व्यवतीत कर रहे हैं। श्री रवीन्द्र एक महाविद्यालय में प्रवक्ता हैं। उनका व्यक्तित्व प्राचीन व आधुनिक जीवन पद्धति का सम्मिश्रण है जो अन्यतम है। श्री अजीत भी एक प्रतिभाशाली युवक हैं। वह स्नात्कोत्तर शिक्षा एवं शोध उपाधि प्राप्त करने के बाद दिल्ली के एक महाविद्यालय में अध्ययन करा रहे हैं। बहुत ही ओजस्वी वक्ता हैं एवं भव्य व्यक्तित्व के धनी भी हैं। इसके साथ वह स्वाभिमानी हैं एवं आत्म विश्वास के धनी है। ऐसे ही अन्य ब्रह्मचारी, विद्यार्थी व युवक गुरूकुल में हैं। आज की आधुनिक व प्राचीन शिक्षा की सभी विशेषताओं को लेकर गुरूकुल को नया स्वरूप प्रदान कर गुरूकुल से इच्छित लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं, ऐसा हमारा अनुमान व विश्वास है।

हम देखते हैं कि एक ही विद्यालय के सभी विद्यार्थियों की योग्यता समान नहीं होती। कई बहुत मेधावी व पढ़ाये जाने वाले विषयों को पूरी तरह ग्रहण कर लेते हैं तो बहुत से नहीं कर पाते। अध्ययन में अनेक बातें काम करती हैं। अध्यापकों के गुणी व योग्य होने के साथ स्कूल प्रशासन, बच्चे का स्वयं का पुरूषार्थ, बच्चे के पूर्व जन्म व इस जन्म के संस्कार व इस जन्म की पारिवारिक पृष्ठभूमि व परिवेश आदि अनेक कारण होते हैं। ऐसा ही गुरूकुल में भी होता है। आज देश भर में गुरूकुलों की संख्या तो बहुत है परन्तु सरकारी सहायता प्राप्त न होना, साधनों का अभाव, अच्छे भवन, यन्त्र, उपकरण की अपर्याप्त व्यवस्था, शिक्षा व पाठ्य सामग्री की कमी और आचार्यो के उचित वेतन व उनके सम्मान आदि की समुचित व्यवस्था में त्रुटियों के होने के साथ-साथ अनेक गुरूकुलों के संचालकों में शिक्षा के प्रति दूरदर्शिता व आधुनिक अच्छी बातों को अपनाने का अभाव जैसी प्रवृत्तियां भी होती हैं जिससे गुरूकुल के विद्यार्थियों के विकास व उन्नति में कुछ बाधायें आती हैं। यदि आज सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों को गुरूकुल का रूप देते हुए उन्हें आवासीय शिक्षणालय बनाकर वहां प्रातः सायं सन्ध्या, अग्निहोत्र के साथ वैदिक आर्ष व्याकरण व इतर वैदिक आर्ष ग्रन्थों यथा सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, मनुस्मृति, उपनिषद्, दर्शन व वेद आदि का अध्ययन अन्य सामान्य गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि के साथ कराया जाये तो परिणाम अच्छे हो सकते हैं। हमने अनुभव किया है कि बडे़-बड़े पदों पर प्रतिष्ठित, बहुशिक्षित व पठित व्यक्तियों के जीवन भी अध्यात्म व चारित्रिक दृष्टि से अत्यन्त दुर्बल, अपूर्ण व शून्य प्रायः हैं। उनमें प्राचीन वेद कालीन भारतीय संस्कृति का न तो यथोचित ज्ञान है और न उसका गौरव। अंग्रेजी के कुछ ग्रन्थों को पढ़कर उसके अन्धभक्त होकर वह स्वयं को विद्वान, अधिकारी व ज्ञानी होने का दम्भ करते हैं। ऐसे लोगों में देश के दुर्बल, अशिक्षित, निर्धन, भोले भाले लोगों के प्रति सहानुभूति व संवेदनाओं का भी अभाव पाया जाता है।

महर्षि दयानन्द ने ‘मनुष्य’ की परिभाषा की है। वह लिखते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्ममात्माओं की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों – उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’ मनुष्य की यह परिभाषा संसार के साहित्य मे अपूर्व है एवं पूरी तरह से स्वामी दयानन्द के जीवन में चरितार्थ हुई देखी जा सकती है। आज इस परिभाषा को अपने जीवनों मे चरितार्थ करने वाले लोगों का अभाव है। ऐसा मनुष्य केवल वैदिक गुरूकुल में ही बन सकता है, स्कूली शिक्षा में इसलिये नहीं कि वहां तो विद्यार्थी का उद्देश्य धनोपार्जन व सुख-सम्पत्ति से युक्त आरामदायक जीवन व्यतीत करना है। राम, कृष्ण, पंतजलि, गौतम, कणाद, कपिल, वेदव्यास, शंकर, चाणक्य आदि गुरूकुल शिक्षा पद्धति की ही देन थे और हम यह कह सकते हैं कि उनमें यह परिभाषा ठीक-ठीक व प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती थी। हमारे देश के क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह लाहिड़ी, खुदीराम बोस, योगी अरविन्द एवं ऐतिहासिक पुरूष वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह आदि इस परिभाषा को अपने जीवन में चरितार्थ करते थे। इन महान विभूतियों ने देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए जो कष्ट सहे, वह स्वतन्त्र भारत के बड़े से बड़े किसी नेता व व्यक्ति ने नहीं सहे। वस्तुतः इन्होंने भी ‘मनुष्य’ की परिभाषा को सर्वांश में अपने जीवनों में चरितार्थ किया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने महर्षि दयानन्द से प्रेरणा पाकर कांगड़ी, हरिद्वार में सन् 1902 में जो गुरूकुल खोला था उसका इतिहास भी स्वर्णिम हैं। वहां भी देशभक्त विद्वान, अध्यापक, उपदेशक, वेद भाष्यकार, इतिहासकार, चिकित्सक व वैद्य, पत्रकार व स्वतन्त्रता सेनानी उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदों के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा दी गई परिभाषा को अपने जीवन में चरितार्थ किया था। हमें विश्वास है कि भविष्य में गुरूकुल शिक्षा पद्धति श्रेष्ठ सिद्ध होगी और सारी संसार में शिक्षा के सभी उद्देश्यों को पूरा करने के कारण इसे अपनाया जायेगा।

  • मनमोहन कुमार आर्य

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