विदेशी भूमि पर भी लड़ी गई भारत की आजादी की लड़ाई*
(संतोष कुमार शुक्ल – विनायक फीचर्स)
हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता और अधिकारों की लड़ाई का इतिहास काफी विस्तृत, अनूठा और पूराना है। इसके स्वरूपों में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। 1757 में ईस्ट इंडिया कम्पनी का व्यापार जमने के बाद के कुछ वर्षों में तोकोई हलचल नहीं हो सकी, परन्तु फिर कम्पनी और अधिकारियों के खिलाफ रोष उत्पन्न होना प्रारंभ हो गया। असल में अंग्रेजों के खिलाफ अधिकारों की लड़ाई सर्वप्रथम भारत में और ब्रिटेन में भी, अंग्रेजों ने ही छेड़ी थी। इस आन्दोलन की शुरुआत इंग्लैण्ड में भी हुई, जहां सरकार को कम्पनी के कामकाज और कम्पनी के अधिकारियों की ज्यादतियों के खिलाफ प्रतिवेदन देना प्रारंभ किया गया था। भारत के गर्वनर जनरल वारेन हैस्टिंग्ज पर दोषारोपण के समय एडमण्ड ब्रूक ने हाउस ऑफ लाड्र्स में जब भाषण दिया था तब उन्होंने न्याय की पुकार करते हुए भारतीयों के प्रति किए जा रहे अन्यायों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। राजा राममोहन राय ऐसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने उननीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में पहली बार शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। यह लड़ाई उन्होंने अपने साथियों श्री द्वारकानाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ 1823 के प्रेस कानूनों के खिलाफ लड़ी थी। हुआ यों कि 1823 में जब लार्ड हैस्टिंग्ज के स्थान पर जान एडम गर्वनर जनरल होकर भारत आया तब उसने एक अध्यादेश जारी कर प्रेस के लिए लायसेंस प्रणाली लागू कर दी। तब तक भारतीय भाषा के पत्र निकलने लगे थे। राजा राम मोहन राय ने इस अध्यादेश का जमकर विरोध किया और अध्यादेश के विरोध स्वरूप उन्होंने अपने फारसी के साप्ताहिक पत्र मिरात-उल-अखबार का प्रकाशन बन्द कर दिया। इस विरोध को राजा राममोहन राय के साथियों और अनुयायियों ने जो यंग बंगाल के नाम से जाने जाते थे, आगे बढ़ाया। कुछ उदारवादी अंग्रेजों ने भी उनका समर्थन किया। गवर्नर जनरल को पहले एक अभ्यावेदन प्रस्तुत कर अध्यादेश को निरस्त करने की मांग की गई। 1826 में जब भारत में पहली बार जूरी व्यवस्था कोर्टों में लागू की गई, तब ईसाइयों और गैर ईसाइयों में द्वेष उत्पन्न करने के उद्देश्य से ईसाइयों को तो सभी मामलों में जूरी का सदस्य बनने की व्यवस्था की गई, परन्तु ईसाइयों के प्रकरणों के मामलों में हिन्दू या मुसलमान जूरी का सदस्य नहीं बन सकता था। राजा राम मोहन राय ने इस व्यवस्था का जमकर विरोध किया। आम जनता भी इस व्यवस्था से नाराज थी अत: सभी ने इसके विरुद्ध आवाज उठाना प्रारंभ कर दिया। सरकार को भारत में और इंग्लैण्ड में अभ्यावेदन भेजकर इस व्यवस्था में सुधार करने या इसे वापिस लेने की जोरदार मांग की गई। इंग्लैण्ड में भारत की ओर से जॉन क्राफर्ड ने यह मामला संसद में उठाया। भारत और इंग्लैण्ड दोनों जगह हो रहे लगातार आन्दोलनों के कारण आखिर 1832 में इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था का अंत हुआ।
सन् 1833 में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार पत्र का इंग्लैण्ड में नवीनीकरण होने वाला था, उसके पहले राजा राममोहन राय का इंग्लैण्ड जाना अनेक अर्थों में फलदायी सिद्ध हुआ। वहां जाकर उन्होंने भारत और यहां की जनता के बारे में फैलाये जा रहे भ्रमों को दूर किया और चर्चाओं, भाषणों और गोष्ठियों में लोगों को यह बताया कि भारतवासी दुनिया की किसी भी कौम, धर्म, संस्कृति, बौद्धिकता और प्रगतिशीलता में कम नहीं है। उन्होंने इंग्लैण्डवासियों को भारत के प्रशासन की खामियों से भी अवगत कराया। दुर्भाग्य से वहीं राजा राममोहन राय का देहावसान हो गया। देश की सेवा के लिए उन्होंने अपनी बलि दे दी। उनके निधन के बाद कलकत्ता में 5 अप्रैल, 1934 को आयोजित सभा में यंग बंगाल के श्री रसिक कृष्ण मलिक ने बताया कि राजा राममोहन राय के प्रयत्नों के कारण ही ईस्ट इंडिया कम्पनी के चार्टर का नवीनीकरण होते समय उसमें कुछ ऐसी व्यवस्थाएं शामिल हो सकीं जो भारतीय जनता के हित की थीं। वैसे तो वे चार्टर के ही खिलाफ थे, परन्तु जो भी सीमित व्यवस्थाएं हो सकीं, उसके लिए देश सदैव राजा राम मोहन राय का ऋणी रहेगा।
तीसरे दशक में यह महसूस किया गया कि इंग्लैण्ड में एक ऐसी संस्था का होना जरूरी है जो वहां भारतवासियों की आवाज बुलंद करे। श्री रामगोपाल घोष ने राजा राममोहन राय के अंग्रेज मित्र विलियम एडम से इस संबंध में चर्चा की। श्री घोष चाहते थे कि भारत की घटनाओं की जानकारी इंग्लैण्ड भेजी जाए, जहां उनका प्रचार-प्रसार हो। एडम इंग्लैण्ड में ही भारत से जाकर बसने वाले थे। एडम इसके लिए तैयार हो गए। अत: इंग्लैण्ड में अपने मित्रों के साथ मिलकर एडम ने जुलाई 1839 में लंदन में ब्रिटिश इंडिया सोसायटी की स्थापना कर दी और इसके बैनर तले भारत का प्रचार-प्रसार होने लगा।
इस सोसायटी का लंदन में गठन होने का भारत में स्वागत किया गया, क्योंकि जो काम भारत में रहकर संभव नहीं हुआ करता था, वह प्रचार-प्रसार का कार्य मुस्तैदी से अब इंग्लैण्ड में संभव हो गया था। 1839 में ही कलकत्ता में लैंड होल्डर्स सोसायटी बनी थी। इसने यह दायित्व सम्हाला कि लंदन की सोसायटी को वह न केवल जानकारियां भेजा करेगी, वरन आर्थिक मदद भी पहुंचाएगी। लंदन की सोसायटी में भारत-हितैषी अंग्रेज सदस्य भी थे, जिसमें अनेक राजनीतिज्ञ जैसे जार्ज थामसन प्रमुख थे। लंदन की सोसायटी का 5 जुलाई 1849 में जब प्रथम स्थापना वार्षिकोत्सव मनाया गया तब उसमें अनेक प्रस्ताव पारित कर भारत की जनता का मनोबल और पक्ष पुख्ता किया गया। प्रथम प्रस्ताव में ही कहा गया कि- ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार और जनता सभ्य समाज के प्रति भारत में वहां के स्थानीय विकास और खुशहाली के लिए अच्छे प्रशासन के लिए जिम्मेदार है। इस अवसर पर और भी अनेक प्रस्ताव पारित कर भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज से यहां उत्पन्न हो रही बगावत की भावना के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया। सन् 1841 में ब्रिटिश इंडिया सोसायटी ने अपना एक मासिक मुखपत्र ब्रिटिश इंडियन एडवोकेट नाम से प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। इसके संपादक विलियम एडम थे। उन्होंने अपने प्रथम संपादकीय में लिखा कि इस मासिक पत्र का उद्देश्य इंग्लैण्ड और भारत की जनता के बीच बातचीत का माध्यम बनना है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह पत्र ईमानदारी से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेगा। सन् 1842 में श्री द्वारकानाथ टैगोर जब इंग्लैण्ड में थे, तब इस सोसायटी के कार्यों को काफी बल मिला। श्री टैगोर ने इंग्लैण्ड में सोसायटी के सदस्यों को भारत में कम्पनी के प्रशासन की खामियों से भी अवगत कराया। लौटते समय श्री टैगोर जार्ज थामसन को भी अपने साथ भारत ले आए ताकि उन्हें यहां की वास्तविक स्थिति से अवगत कराया जा सके। श्री थामसन भारत के सच्चे हितैषी थे अत: यंग-बंगाल के सदस्योंने इस मौके का लाभ उठाते हुए, 20 अप्रैल 1843 को कलकत्ता में बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी की स्थापना की। यह सोसायटी पूरे बंगाल और देश के कोने-कोने से जानकारियां एकत्रित कर उसमें से उपयोगी जानकारी लंदन की सोसायटी को भेजा करती थी ताकि वहां राजनीतिक आन्दोलन चलता रहे।
इसके बाद कलकत्ता में एक लैण्ड होल्डर्स सोसायटी भी बनी थी जिसके सदस्य अधिकतर जमींदार लोग थे। इस सोसायटी ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सन् 1853 में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार पत्र के अंतिम नवीनीकरण का अवसर आया तब इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चाओं का बाजार गर्म था, क्योंकि भारत की जनता कम्पनी के राजकाज से न केवल असंतुष्ट थी, वरन देश के अनेक स्थानों पर आन्दोलन पनप रहे थे। तब तक कलकत्ता की दोनों सोसायटियां भी प्राय: मरणासन्न स्थिति में आ चुकी थीं। इसी समय इन दोनों संस्थाओं के सदस्यों ने मिलकर एक नई संस्था ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन का गठन 29 अक्टूबर 1851 को किया। यह संस्था काफी क्रियाशील थी और इसने अंग्रेजों के खिलाफ शक्तिशाली कदम उठाए। इसी बीच लंदन में भारत के मित्रों और भारत की जनता के हितैषियों ने 1853 में एक नई संस्था इंडियन रिफार्म सोसायटी का गठन किया। इसके संस्थापक सदस्यों में सांसद रिचर्ड कोडेन और जॉन ब्राइट थे। इंग्लैण्ड में रह रहे भारतीयों ने भी इसमें रुचि ली। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने रविवार दिनांक 26 जून 1853 को हिन्दू मेट्रोपोलिटन कॉलेज में एक सभा आयोजित कर इस सोसायटी के लिए धन संग्रह कर उसे यह राशि भेजी। इंडियन रिफार्म सोसायटी ने अपने एक सदस्य श्री डलवी सीमूर जो संसद सदस्य भी थे, को भारत भेजा। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण कर यहां की स्थितियां देखीं और पानी के जहाज से वे बम्बई से 1854 के प्रारम्भ में लंदन लौट गए। लगभग एक दशक के बाद लंदन में एक नई संस्था द इंडिया सोसायटी का गठन हुआ। इस दौरान भारत में काफी राजनीतिक उथल-पुथल हो चुकी थी। 1857 की सशस्त्र क्रांति और उसके बाद ब्रिटिश सम्राट का प्रशासन होने के बाद वातावरण बदला था। यद्यपि सिविल सर्विस के लिए भारतीयों को पात्रता प्रदान कर दी गई थी, परन्तु इसके लिए परीक्षा देने उन्हें इंग्लैण्ड जाना पड़ता था। सन् 1863 में पहली बार भारत के दो बंगाली विद्यार्थी, सर्वश्री सत्येन्द्र नाथ टैगोर और मनमोहन घोष इंग्लैण्ड जाकर इस परीक्षा में बैठे थे। इनमें से श्री टैगोर जब परीक्षा में पास हो गए तब अंग्रेजों को आश्चर्य हुआ था। अत: उन्होने इस परीक्षा के नियमों में ऐसे परिवर्तन करना प्रारंभ कर दिये कि भारतीय विद्यार्थी परीक्षा में पास न कर सकें। इसके बाद जब श्री मनमोहन घोष दो बार आई.सी.एस. की परीक्षा में बैठे, तब परिवर्तित नियमों के कारण पास नहीं हो सके। इसी पृष्ठभूमि में द इंडिया सोसायटी का गठन किया गया था। इसके गठन के पीछे श्री डब्ल्यू.सी. बैनर्जी की प्रेरणा थी जो उन दिनों इंडिया बैरिस्टर की पढ़ाई लंदन में कर रहे थे। उनसे अंग्रेजों की इस नियत को कि भारतीय किसी भी प्रकार आई.सी.एस. की परीक्षा में पास न हो सकें, नहीं देखा गया। द इंडिया सोसायटी के पहले अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी हुए। इस सोसायटी ने पहला काम यह किया कि एक अभ्यावेदन तैयार कर भारत-सचिव को भेजते हुए अंग्रेजों की सरकार द्वारा भारतीय विद्यार्थियों के साथ अपनाई जा रही भेदभाव की नीति की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया उधर श्री मनमोहन घोष ने इस संबंध में एक पुस्तक 1866 में लंदन में ही मुद्रित कराकर बंटवाई और जनता को बताया कि किस प्रकार भारतीय विद्यार्थियों के खिलाफ नियम परिवर्तित कर षड्यंत्र रचा जा रहा है। इस पुस्तक का नाम था दि ओपन काम्पीटीशन फार दा सिविल सर्विसेज ऑफ इंडिया। अंग्रेजों की करतूतों की पोल दिनों दिन खुलती जा रही थी। द इंडिया सोसायटी ने दो वर्षों के अपने कार्यकाल में उल्लेखनीय कार्य किए। भारत से लौटकर गए कुछ सेवानिवृत्त भारत-हितैषी अंग्रेजों और कुछ अंग्रेज सांसदों ने मिलकर भारत की आवाज उठाने के उद्देश्य से एक नई संस्था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का गठन किया। जब द इंडिया सोसायटी को यह विश्वास हो गया कि यह नई संस्था अच्छा कार्य कर रही है, तब सोसायटी भी एसोसिएशन में समाहित हो गई और इसके सचिव पद पर दादा भाई नौरोजी की नियुक्ति की गई। इस एसोसिएशन के पहले ही वर्ष में 64 आजीवन सदस्य और 530 साधारण सदस्य थे। एसोसिएशन की बैठकों में भारत की राजनीतिक गतिविधियों, अंग्रेजों द्वारा अपनाई जा रही नीतियों आदि पर चर्चाएं और भाषण आयोजित किए जाते थे, जिनका तिमाही प्रतिवेदन मुद्रित कराकर और वितरित कर इंग्लैण्ड में भारत के पक्ष में वातावरण तैयार किया जाता था।
इंग्लैण्ड में भारत के पक्ष में वहां निवास कर रहे भारतीयों के अतिरिक्त भारत हितैषी अनेक अंग्रेजों ने खुलकर कार्य किया था। अभी तक एक के बाद एक जो भी संस्थाएं गठित हुईं, उनमें अधिकांश अंग्रेज ही थे। इसी से यह स्पष्ट होता है कि भारत में अंग्रेजों की स्वार्थी और भेदभाव पूर्ण नीतियों के प्रति इंग्लैण्ड की जनता में भी जनमानस तैयार किया जा रहा था। उन्नीसवीं शताब्दी के छठवें और सातवें दशक में ब्रिटेन की समाज सुधारक मिस मेरी कारपेण्टर चार बार भारत आईं और यहां के राजनीतिक नेताओं और आम जनता से मिलकर जानकारियां एकत्रित कीं। वे राजा राम मोहन राय के समाज सुधार संबंधी कार्यों से बहुत अधिक प्रभावित हुई थीं। इसीलिए बाद में उन्होंने एक पुस्तक जिसका नाम था- दि लास्ट डेज इन इंग्लैण्ड ऑफ राजा राममोहन राय, लिखी, जो प्रख्यात भी हुई। इंग्लैण्ड लौटकर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी किया कि एक अलग संस्था, जिसका नाम था नेशनल इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होंने भारत की ओर से लंदन में राजनीतिक और सामाजिक कार्य सम्पन्न करना प्रारम्भ किया। इस एसोसिएशन की भारत में भी शाखाएं थीं। कलकत्ता शाखा के सचिव श्री मन मोहन घोष थे। दादा भाई नैरोजी जब भारत आए तब 1874 में उन्होंने इस कलकत्ता शाखा में आकर भाषण दिया था और बताया था कि अंग्रेज किस प्रकार भारत का दोहन कर रहे हैं। उनका यह भाषण मुद्रित कराकर बांटा भी गया था। एक ओर तो विभिन्न संगठन इंग्लैण्ड में भारत की लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर प्रोफेसर हैनरी फॉसेट हाउस ऑफ कामन्स में दृढ़ता से भारत का पक्ष प्रस्तुत करने में अग्रणी थे। वे जाने माने अर्थशास्त्री थे और भारत की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये उन्होंने खुलकर लड़ाई लड़ी।
इसी प्रकार भारत के धर्माचार्य श्री ब्रह्मानन्द केशवचन्द्र सेन ने भी इंग्लैण्ड जाकर भारत के कुशासन की ओर वहां की सरकार और जनता का ध्यान आकर्षित किया। श्री सेन ओजस्वी वक्ता थे और इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों द्वारा अपने ही देश का पक्ष लेने के बावजूद श्री सेन के भाषणों का प्रभाव अमिट था। सन् 1870 में श्री सेन के साथ श्री आनन्द मोहन बोस भी इंग्लैण्ड गए थे। वे वहां विद्यार्थी की हैसियत से अध्ययन के लिए रहे और समय-समय पर भारत की ओर से राजनीतिक भाषणों द्वारा भारत के पक्ष को उजागर करते रहे। श्री बोस ने भी वहां एक संस्था 1872 में गठित की थी, जिसका नाम था द इंडियन सोसायटी। भारतीयों के लिए यह सोसायटी एक मिलन स्थल का काम करती थी और श्री बोस के निवास पर ही इसकी बैठकें हुआ करती थीं। उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में अंग्रेजों और भारतीयों में तीखी मुठभेड़ तब हुई जब सिविल सेवाओं के आधुनिकीकरण के बहाने उन्होंने भारतीयों के लिए एक प्रकार से सिविल सेवाओं के द्वार बन्द कर दिए। तब कलकत्ता के इंडियन एसोसिएशन ने, जिसकी स्थापना 26 जुलाई 1876 को हुई थी, विद्रोह का झंडा उठा लिया। लार्ड लिटिन के भाषायी प्रेस एक्ट और आम्र्स एक्ट ने आग में घी डालने का काम किया। पूरे बंगाल में विद्रोह की आवाजें गूंजने लगीं। तभी इंडियन एसोसिएशन ने श्री लाल मोहन घोष को 1879 में इंग्लैण्ड भेजकर वहां की जनता और राजनीतिज्ञों को भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों की कहानी सुनाने का कार्य सम्पन्न किया। श्री घोष ने जो बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष भी हुए, इंग्लैण्ड जाकर और वहां के सांसदों के समक्ष भाषण देकर भारत में उठाए जा रहे दमनकारी कदमों की ओर ध्यान आकर्षित किया। ऐसी पहली बैठक की अध्यक्षता जान ब्राइट ने दिनांक 23 जुलाई 1879 को की थी। इसके बाद प्रतिपक्ष और उदारवादी दल के नेता श्री ग्लेडस्टोन ने संसद में भारत की अनुदारवादी नीतियों की तीखी आलोचना की। उन्होंने 1880 में अपने चुनाव प्रचार में भी इसे मुद्दा बनाया और उनके दल ने चुनावों मं बहुमत पाया। इसके बाद जब भारत में 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गई, जिसके दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता इंग्लैण्ड में 25 वर्षों से रह रहे दादाभाई नौरोजी ने की, तब इंग्लैण्ड में कांग्रेस की नीतियों और उद्देश्यों के प्रचार-प्रसार का कार्य नौरोजी की इच्छानुसार कांग्रेस के झंडे तले होने लगा। दादाभाई काफी व्यस्त रहते थे। उन्हें लगा कि जब तक प्रचार-प्रसार के लिए इंग्लैण्ड में कोई समिति गठित नहीं होगी, तब तक कार्य में एकरूपता और गतिशीलता नहीं आ पाएगी। अत: दादाभाई और अन्य मित्रों ने मिलकर लंदन में एक समिति का गठन किया जिसका नाम प्रासपरस ब्रिटिश इंडिया था। इसके अध्यक्ष सर विलियम वैडरवर्न और सचिव विलियम दिग्वाई थे। सन् 1889 के कांग्रेस के अधिवेशन में इस समिति को इंग्लैण्ड में कांग्रेस की नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए मान्यता प्रदान की गई थी। इस समिति में कुल सात सदस्य थे जिनमें से भारतीय केवल दादाभाई ही थे। इसी समिति ने इंडिया नामक एक मासिक पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया था जिसकी सम्पादन समिति के सचिव श्री दिग्वाई थे। बाद में यह मासिक पत्र साप्ताहिक के रूप में अनेक वर्षों तक प्रकाशित होता रहा। इंडिया और इस समिति का कार्यालय भारत की जानकारियों का केन्द्र बिन्दु था। यहीं से पर्चे, पोस्टर आदि प्रचार साहित्य प्रकाशित होकर बंटता था, भाषणों और गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। इंडिया में भारत हितैषी अंग्रेज लेख लिखते थे। कांग्रेस की भारत की गतिविधियों की जानकारी भी प्रमुखता से प्रकाशित की जाती थी। जब भारत से सिविल सेवा से श्री रमेशचन्द्र दत्त सेवानिवृत्त हुए तब वे सात वर्ष तक इंग्लैण्ड जाकर रहे और लगातार इंडिया में लिखते रहे। इंग्लैण्ड के निवासियों को भारत की भलाई के प्रति शिक्षित करने में इस समिति और इंडिया का योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। यह इंडिया के अनवरत प्रचार-प्रसार का प्रतिफल ही था कि भारत में मार्ले-मिन्टो सुधार के युग में नई चेतना घर कर चुकी थी और अंग्रेजों ने भी यह समझ लिया था कि इस नई चेतना की जड़ें, जन्मजात हैं जिसके आगे उन्हें झुकना ही पड़ेगा। इस प्रकार भारत के हित के लिए इंग्लैण्ड में जो लड़ाई लड़ी गई उसे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर याद कर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका शिरोधार्य करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। (विनायक फीचर्स)