सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी: भारत के प्रथम राष्ट्रीय नेता की निर्माण यात्रा*
(कुमार कृष्णन – विनायक फीचर्स)
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आधुनिक भारत के अग्रदूतों में से एक थे और ब्रिटिश राज के भीतर स्वशासन के समर्थक थे। उन्होंने देश की आजादी में प्रभावशाली भूमिका निभाई। एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर के रूप में करियर शुरू करने से लेकर कांग्रेस के माध्यम से राजनीति में कदम रखने तक, उनका प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर 1848 को कलकत्ता, भारत में हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने सिविल सेवा में जाने का लक्ष्य बनाया। 1868 में वे बिहारी और लाल गुप्ता रोमेश चंद्र दत्त के साथ भारतीय सिविल सेवा परीक्षा देने के लिए इंग्लैंड गए। उस समय, वे एकमात्र हिंदू थे, जिन्होंने चुनौतीपूर्ण सवालों का सामना करने के बावजूद साक्षात्कार बोर्ड को पार कर लिया था।
भारतीय सिविल सेवा के 1869 बैच के यह अधिकारी एक अनुभवी सिविल सेवक के रूप में उभर सकते थे। किंतु 1874 में कमज़ोर आधार पर सेवा से हटाए जाने के बाद उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं दोबारा तय कीं। वे सार्वजनिक जीवन में आए। 1858 में भारत सीधे तौर पर अंग्रेजी शासन के अधीन आ गया था। बंगाल एवं बॉम्बे प्रेसिडेंसी में इससे पहले ही संवैधानिक राजनीति बढ़ गई थी। इसके बावजूद भारत के विभिन्न भागों के बीच संवादहीनता से उनका आपसी संपर्क कायम नहीं हो पाया। किंतु 1870 एवं 1880 के दशक में रेल नेटवर्क के प्रसार ने इन कमियों को दूर कर दिया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी (1848-1925) इसका लाभ उठाने के लिये सही समय पर सही व्यक्ति थे। वह अखिल भारत के प्रथम नेता के रूप में उभरे।
वर्ष 1875 तक कैरियर बर्बाद होने के बाद बनर्जी ने कोलकाता में सार्वजनिक जीवन में सम्मिलित होना शुरू किया। बंगाल में शराबबंदी आंदोलन के दौरान मदिरापान के विरुद्ध दिए भाषण से लोगों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ। महान शिक्षाविद् एवं सुधारक ईश्वरचंद विद्यासागर ने उनको मेट्रोपॉलिटन इन्स्टीट्यूशन में अंग्रेज़ी का प्रोफेसर बना दिया।
वह कुशल वक्ता थे एवं शीघ्र ही कोलकाता एवं निकटवर्ती स्थानों में छात्र समुदाय के बीच वे प्रसिद्ध हो गये। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीयों को इटली के एकीकरण के पथ-प्रदर्शक ज्यूज़ेप मेत्सिनी से परिचित कराया। बनर्जी ऐसे प्रथम नेता थे जिन्होंने भारतीय एवं विदेशी इतिहास की सामग्री का उपयोग श्रोताओं में देशभक्ति की भावना पैदा करने में किया। किंतु वे ख़ालिस नर्म विचारधारा वाले नेता बने रहे। उन दिनों ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता की कोई मांग नहीं थी। मांग विधान परिषदों एवं नौकरशाही में बेहतर प्रतिनिधित्व दिलाने की थी, जिससे कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सहभागिता हो पाए।
बनर्जी के मस्तिष्क में एक राजनीतिक संघ बनाने की बात थी। यह सपना 26 जुलाई, 1876 को सच हुआ। इस दिन बनर्जी ने कोलकाता में आनंद मोहन बोस के साथ मिल कर इण्डियन एसोसिएशन का निर्माण किया। मैत्सिनी से प्रेरित बनर्जी राजनीतिक महत्वाकांक्षा एवं कार्यक्रम के क्षेत्र में भारत का एकीकरण चाहते थे। भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में भाग लेने की अधिकतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करने के ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्क्वीज़ सैलिस्बरी के निर्णय ने इसका अवसर प्रदान कर दिया। बनर्जी ने इस अवसर की पहचान भारतीयों को सिविल सेवा से बाहर रखने की चाल के तौर पर की। उन्होंने इस निर्णय के विरुद्ध 24 मार्च 1877 को कोलकाता के टाउनहॉल में विशाल जनसभा की। इस बैठक में ऐसी कार्ययोजना को स्वीकृति मिली जिसकी कोशिश इससे पहले नहीं की गई थी। इसमें संपूर्ण भारत को सिविल सेवा के मुद्दे के अलावा आम तौर पर भारतीयों को प्रभावित करने वाली सभी नीतियों के मामलों में एक मंच पर लाने का प्रस्ताव लाया गया।
26 मई 1877 को जब बनर्जी ट्रेन से उत्तर भारत की यात्रा पर निकले तब कम ही लोगों को अहसास था कि वो इतिहास बनाने जा रहे हैं। वह पहले भारतीय थे जिन्होंने बढ़ते हुए रेल नेटवर्क का प्रयोग राजनीतिक कारणों के लिए किया। 1870 के दशक के मध्य तक देश में रेल नेटवर्क 6,519 मील (10,430 किमी) हो गया था। बनर्जी ने लाहौर, अमृतसर, दिल्ली, मेरठ, अलीगढ़, कानपुर , लखनऊ, इलाहाबाद एवं वाराणसी को अपनी यात्रा के दौरान कवर किया। सभी स्थानों पर सिविल सेवा के ज्ञापन के अनुमोदन के लिये सभाएं आयोजित की गईं जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुये।
जहां भी संभव हुआ कोलकाता की इण्डियन एसोसिएशन से सम्बद्ध एसोसिएशन बनाई गई। इस तरह से बनर्जी के सार्वजनिक जीवन ने आकार लिया, जिसकी प्रतीक्षा भारत के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक थी। इसके बाद वाले वर्ष में उन्होंने बॉम्बे एवं मद्रास प्रेसिडेंसी में ऐसी ही यात्रा आयोजित की। उनका उद्देश्य बिखरी हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और संबंधित गतिविधियों को एकीकृत करना था। इस प्रक्रिया में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आधार कार्य पूरा किया। तदनंतर जिसकी स्थापना दिसंबर, 1885 में हुई।
वास्तव में 1883 में 28 से 30 दिसम्बर तक कोलकाता में आयोजित इण्डियन एसोसिएशन के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में कांग्रेस अपने आरम्भिक स्वरूप में सामने आ चुकी थी। सम्मेलन की अध्यक्षता बंगाल पुनर्जागरण के वयोवृद्ध पुरोधा रामतनु लाहिड़ी ने की थी। इस दौरान प्रतिनिधि परिषद अथवा स्वशासन, सामान्य एवं तकनीकी शिक्षा, दण्ड विधान के प्रशासन में न्यायिक एवं कार्यपालिक प्रकार्यों का पृथक्करण और सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों हेतु अधिक रोजग़ार जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई।
मई 1884 में बनर्जी ने सिविल सेवा के प्रश्न के अनसुलझे उत्तर को लेकर पुन: उत्तर भारत की विस्तृत यात्रा की। उन्होंने कोलकाता से लाहौर के पुराने रास्ते का थकाऊ भ्रमण किया। राज्य सचिव के समक्ष सिविल सेवा परीक्षा में हिस्सेदारी की अधिकतम उम्र बढ़ाने का मुद्दा उठाया गया। वर्ष 1885 में लोक सेवा आयोग की नियुक्ति की गई जिसकी अनुशंसा के परिणामस्वरूप अधिकतम आयु सीमा बढ़ाई गई।
इण्डियन एसोसिएशन का दूसरा सम्मेलन 25 से 27 दिसम्बर 1885 में कोलकाता में आयोजित किया गया। मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम सत्र भी इन्हीं तिथियों पर आयोजित हुआ था। ये दोनों कार्यक्रम आयोजकों के बीच बगैर किसी समन्वय के आयोजित कराए गए थे। इससे बनर्जी बॉम्बे कांग्रेस सत्र में शामिल नहीं हो सके। वर्ष 1885 में कांग्रेस के बॉम्बे सत्र में चर्चा में रहे मुद्दों पर 1883 में हुए प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन की छाप थी। बनर्जी ने सूचना दी थी कि बॉम्बे कांग्रेस से जुड़े जस्टिस केटी तैलंग ने प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन के नोट मांगे थे। किंतु 1886 से 1917 के मध्य बनर्जी ने कराची (1913) को छोड़ कर प्रत्येक वार्षिक कांग्रेस में उपस्थिति दर्ज़ की। बनर्जी ने पुणे (1895) और अहमदाबाद (1902) में कांग्रेस के सत्रों की अध्यक्षता भी की।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी 1890 में इग्लैंड गए कांग्रेस के 9 सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य थे। प्रत्येक प्रतिनिधि को अपना खर्च पूर्णतया स्वयं वहन करना पड़ा। बनर्जी की पहचान एकमात्र प्रवक्ता के तौर पर बनी। राजनीतिक सुधारों पर उनके व्याख्यानों की श्रृंखला ने अंग्रेज़ श्रोताओं को भी प्रभावित किया। किंतु उनके लिये सर्वाधिक सुनहरा क्षण 22 मई 1890 को ऑक्सफोर्ड यूनियन विमर्श के दौरान आया- हाउस ऑफ कॉमंस के समक्ष विधेयक में निर्वाचक सिद्धांतों को मान्यता न मिलना इस सदन के लिये खेदपूर्ण था। ऑक्सफोर्ड, अंग्रेजी कट्टरपंथी राजनीति का गढ़ होने के कारण प्रस्ताव गिर जाने का डर था। किंतु उन्होंने लॉर्ड हग सेसिल के समक्ष बेहद चातुर्यपूर्ण तरीक़े से अपने तर्क रखे। अधिकतर सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। इण्डियन काउंसिल एक्ट, 1892 में एक परोक्ष निर्वाचक सिद्धांत को मान्यता मिल गई।
बनर्जी की अद्वितीय वक्तृत्व क्षमता उनका प्रधान गुण था। उनको ट्रम्पेट ऑरेटर कहा जाता था। किंतु यह भारत के प्रति उनके समर्पण का स्थानापन्न नहीं था। उन्होंने कहा था कि जो अपने देश को प्रेम नहीं करता उसका श्रेष्ठ वक्ता होने की आकांक्षा पालने का क्या लाभ है। सन् 1905 से 1911 के मध्य में उन्होंने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध आंदोलन में प्रमुख भागीदारी की किंतु बहिष्कार और हिंसा की घटनाओं का विरोध किया। वह स्थानीय स्वशासन के हिमायती थे और रिपन कॉलेज (वर्तमान में सुरेंद्रनाथ महाविद्यालय) के संस्थापक थे। वह 1921 में इम्पीरियल विधानसभा के सदस्य बन गए एवं उसी वर्ष नाइट की उपाधि प्राप्त की। (विनायक फीचर्स)
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