बांग्लादेश में शेख हसीना की लोकतांत्रिक सरकार को चला कर दिया गया है। वहां की सत्ता पर प्रत्यक्ष रूप से सेना का नियंत्रण हो गया है। वास्तव में बांग्लादेश में वही हुआ है जो एक इस्लामिक देश में हो जाना चाहिए था। वहां पर हिंदुओं के साथ भी वही हो रहा है जो कभी भी अकल्पनीय नहीं कहा जा सकता था। वहां पर हिंदू महिलाओं के साथ जो कुछ हो रहा है, उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो रहे हैं, परंतु पूरा देश मौन साधे बैठा है। कई लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि आज जो बांग्लादेश में हो रहा है, वह कल भारतवर्ष में होगा। जबकि कई ऐसे भी हैं जो खुली धमकियां दे रहे हैं कि जो आज बांग्लादेश में हो रहा है, वही कल भारतवर्ष में भी होगा। बांग्लादेश में कभी भी यह संभव नहीं था कि कुछ मुट्ठी भर छात्र बाहर निकलें और इंकलाब कर दें । यदि सेना अपनी सरकार के साथ होती तो यह नितांत असंभव था, परन्तु जब सरकार और बाहर बैठी हुई भारत विरोधी शक्तियां एक ही सूत्र पर काम कर रही हों तो सब कुछ संभव था। सोची समझी गई रणनीति और नीति के तहत सब कुछ हो गया है। यह घटनाक्रम बता रहा है कि शिकार कभी-कभी सियार भी कर लिया करते हैं।
बांग्लादेश से जिन रोंगटे खड़े करने वाले अत्याचारों की कहानी छन छन कर आ रही हैं, वे सब नोआखाली के रक्तपात के साथ-साथ सीधी कार्यवाही दिवस की यादों को ताजा कर रही हैं । वहां पर इतिहास अपने आप को दोहरा नहीं रहा है बल्कि इतिहास ने बड़ी क्रूरता के साथ अपनी एक परिक्रमा पूर्ण कर ली है। वह संकेत दे रहा है कि यदि मेरे घटनाक्रम और घटनाओं से शिक्षा नहीं ली गई तो मैं ऐसी परिक्रमाएं अनंत काल अर्थात काफिरों के विनाश तक करता रहूंगा। बांग्लादेश की घटनाएं बता रही हैं कि आक्रांता की सोच इस पवित्र भूमि ( बांग्लादेश भी कभी हिंदुस्तान का ही एक भाग हुआ करता था ) के लिए वही है जो 712 ई0 में थी। एजेंडा भी वही है, हथकंडा भी वही है, झंडा भी वही है और डंडा भी वही है। ना तो सोच बदली है, ना कार्य शैली बदली है और ना ही मजहबपरस्ती में किसी प्रकार की कमी आई है। इसके उपरांत भी हिंदू को उपदेश दिए जा रहे हैं कि उदार बने रहो और शिकार होते रहो।
ऐसा नहीं है कि सनातन के शत्रु सीमाओं से बाहर अपने कार्य को अंतिम परिणति तक पहुंचाने के काम में लगे हुए हैं, ये देश के भीतर भी हैं और इतना ही नहीं स्पष्ट कहा जाए तो देश की संसद के भीतर भी पहुंच चुके हैं। जो लोग आज सनातन को कमजोर करने के लिए लोगों को जातियों में बांटने की तैयारी कर रहे हैं, उन्हें जाति पर गर्व हो रहा है और हिंदुत्व पर शर्म आ रही है। गर्व और शर्म के बीच के इस छोटे से अंतर के बीच ही हमारे विनाश की विभीषिकाएं रची जा रही हैं। जिन्हें हम नजरअंदाज कर रहे हैं। दैत्य हिंदुस्तान की ही भूमि पर तांडव कर रहा है और घर के शत्रु उस तांडव की ओर से मुंह फेर कर खड़े हैं या कहिए कि उन्होंने उस तांडव को छिपाने के लिए अपना एक बड़ा घेरा बना लिया है, जिससे कि इस तांडव के शिकार होने वाले आम आदमी को वह दिखाई ना दे। आत्मविनाश के लिए रचे जा रहे इस खेल को जो लोग समझ रहे हैं, वह गहरे सदमे में हैं ?
जिनको हम राजनीति में अधकचरा या नौसिखिया कह रहे थे, वे अब ढीठ हो चुके हैं और सारी राजनीति को इस तांडव की ओर खींच ले जाने के लिए आतुर दिखाई देते हैं।
‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ नामक पुस्तक में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नीत्शे को उद्धृत करते हुए कहा है कि वारिस होना खतरनाक होता है। 1947 से पहले जिन लोगों ने देश को बंटवारे के खून के आंसुओं से रुलाया था, आज उन्हीं के वारिस फिर एक नए बंटवारे की नींव रखते दिखाई दे रहे हैं। जिन्हें देखकर यही कहा जा सकता है कि सचमुच वारिस होना खतरनाक ही होता है। समय खामोशियों को धारण करने का नहीं है। खामोशियों को तोड़कर देश की और धर्म की रक्षा के लिए आंखें खोल कर चलने की आवश्यकता है। शुतुरमुर्ग की तरह खतरों को देखकर रेत में मुंह छुपाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। जो लोग आज भी शुतुरमुर्गी धर्म को निभाने का काम कर रहे हैं, वे देश के शत्रु हैं । राजनीतिक नपुंसकता के शिकार ये लोग कभी भी देश के नायक नहीं हो सकते । इन्होंने पिछले 78 वर्ष में पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे करोड़ों हिंदुओं को चुपचाप बलि का बकरा बन जाने दिया । हम प्रत्येक वर्ष प्रत्येक वर्ष लाल किले से स्वाधीनता दिवस मनाते हुए झंडा फहराते रहे और उधर देखते ही देखते करोड़ों हिंदुओं का या तो कत्ल हो गया या फिर वे हिंदू से मुसलमान बना दिए गए । इंसानियत को मरते देखकर भी हमारी इंसानियत पिघली नहीं। रोई नहीं । चीखी नहीं। चिल्लाई नहीं। पूरी तरह बेशर्म हो गई। निर्लज्ज हो गई । मुंह छुपा कर बैठ गई।
यदि यही गांधीवाद है तो हमें नहीं चाहिए ऐसा गांधीवाद। क्योंकि इस गांधीवाद की आत्मा ने किसी भी ‘ राजनीतिक बदमाश ‘ को झकझोरा नहीं कि तेरे देखते-देखते मानवता का खून किया जा रहा है और तू चुप है। घोटालेबाज , घपलेबाज और बेईमान कमीशनखोर राजनीतिज्ञ विदेश की यात्राएं करते रहे, मुर्ग मुसल्लम करते रहे, बड़ी-बड़ी सभाओं में जाकर गले में माला पहनते रहे , परन्तु किसी ने भी उन करोड़ों हिंदुओं को बचाने के लिए विश्व मंचों पर कभी कोई जोरदार आवाज नहीं उठाई जो पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में मुसलमान के अत्याचारों का शिकार हो रहे थे इन राजनीतिक नपुंसकों को किसी भी अबला पर होने वाले अत्याचार भी कहीं से दिखाई नहीं दिए। यहां तक कि जब कृष्ण की धरती की ओर आशा भरी नजरों से किसी भी द्रौपदी ने अपने चीरहरण के समय आवाज लगाई तो इनके भीतर का कृष्ण मर गया और उधर से पीठ फेर कर खड़ा हो गया। इसी राजनीतिक नपुंसकता और बदमाशी के चलते पिछले 78 वर्ष में भारतीय उपमहाद्वीप में इतने हिंदू मार दिए गए हैं या मुसलमान बना दिए गए हैं, जितने कभी मुगलों के समय में भी नहीं मारे गए थे।
यह एक सुखद संयोग है कि इस समय देश को प्रधानमंत्री मोदी नेता के रूप में मिले हैं, जो सनातन की रक्षा के लिए खुले शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, जो बिना किसी लागलपेट के हिंदू की रक्षा की बात उठा रहे हैं । कई राजनीतिक नपुंसकों को इसमें राजनीति दिखाई देगी, लेकिन जो राजनीति अपने लोगों में सुरक्षा का एहसास कराए, वही राजनीति होती है। जो राजनीति अपने लोगों को मरने के लिए प्रेरित करे, उनमें हीनता का भाव पैदा करे या उन्हें दुर्बल बनाए, उसे राजनीति नहीं राजनीतिक नपुंसकता कहा जाता है। ऐसे राजनीतिक नपुंसकों को समझ लेना चाहिए कि यह देश अहिंसावादी होकर भी छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप ,छत्रसाल बुंदेला , वीर बंदा बैरागी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे उन वीरों का देश है जो प्रत्येक प्रकार की राजनीतिक नपुंसकता को त्याग कर अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध खड़े होते रहे हैं। हमें शांतिपूर्वक रहकर भी क्रांति के मार्ग का अवलंब करना है। क्योंकि शांति तभी सुरक्षित रह सकती है, जब क्रांति का जज्बा हो। गुरुवर विश्वामित्र के शांति के यज्ञ भीतर भी तभी संपन्न होते हैं ,जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
सभी देशभक्त बहन और भाई प्रत्येक प्रकार की सांप्रदायिकता, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद ,भाषावाद प्रांतवाद, जातिवाद जैसी बुराइयों को त्यागकर एकता का परिचय देते हुए देश की समस्याओं और देश के सामने खड़ी चुनौतियों की ओर देखें। समय अधिक देर तक विचार करते रहने का नहीं है। समय संकल्प लेने का है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )