कुछ लोग कहते हैं कि हम परमात्मा एक कल्पना है , हम उसको नही मानते क्योकि वह दिखाई नही देता ! इसका उत्तर व निराकरण – जो वस्तु अति दूर है, अति पास है,अति सूक्ष्म है, उसे हम अपनी ऑखो से नही देख पाते । फिर ईश्वर तो हमारे हृदय मे निवास करता है उसको हम कैसे देख सकते है ! जब हम अपनी ऑखो से अपनी ऑखो का काजल नही देख सकते, उसको देखने के लिये भी किसी दर्पण की आवश्यकता होती है! ठीक उसी प्रकार ईश्वर को देखने के लिये हमको अपनी अज्ञानता की दीवार हटाकर ज्ञान रूपी दर्पण से देखना पडेगा !
जब हम हवा को नही देख सकते , बस महसूस कर सकते है ज्ञानेन्द्रियो के द्वारा ! परमपिता परमात्मा तो अणु से भी सूक्ष्म है तो हम उसे बिना ज्ञान के कैसे देख सकते है ! हमारे मकान मे बंद कमरे के धूल के कणो को देखने के लिये भी हमको प्रकाश की जरूरत होती है ! फिर परमपिता परमात्मा तो छोटे से भी छोटा और बडे से भी बडा है। परमपिता परमात्मा को देखने के लिये अज्ञानता की दीवार को हटाना पडेगा ! ऑखो से देखना ही देखना नही होता जबकि अन्य इन्द्रियो से जानकारी करना भी देखना ( दर्शन) है ! ऑखो से रूप,नासिका से गंध, रसना से स्वाद ,कानो से सुनना और त्वचा से महसूस करना ।इन्द्रियो से हम पदार्थो को नही देख पाते है पदार्थो के गुणो को देखते हैं।एक इन्द्रिय से एक ही पदार्थ का गुण देख पाते है ! इन्द्रियॉ परमात्मा को देखने मे अक्षम है सक्षम नहीं ।
कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार ऐसे ही बन गया ? उत्तर- कोई वस्तु बिना कारीगर के नहीं बन जाती है ? दुर्गम जंगल में अगर कोई आभूषण मिलता है तो बनाने वाले की महत्ता मानते है ! तो फिर हम इस सृष्टि को बनाने वाले परमपिता परमात्मा की महत्ता क्यों नही मानते ! परमात्मा के बिना इस सृष्टि का निर्माण कौन कर सकता है ! परमपिता परमात्मा का अपना संविधान वेद है जिसमें ईश्वर जीव प्रकृति का यथार्थ ज्ञान है।

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