11 अगस्त खुदीराम बोस के बलिदान दिवस पर विशेष
मित्रो ! आज खुदीराम बोस जी का बलिदान दिवस है । आज ही के दिन 1908 में 18 वर्ष की अवस्था में भारतवर्ष के इस क्रांतिकारी युवा ने अपना बलिदान दिया था । 3 दिसंबर 1989 को पश्चिम बंगाल में जन्मे इस क्रांतिकारी युवा ने 1905 में भंग भंग के लिए जिम्मेदार रहे किंग्सफोर्ड के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लिया था । यही कारण रहा कि इन्होंने अपना स्कूल भी जल्दी छोड़ दिया था । स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पैफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया ।
बंग भंग के विरोध में उतरे भारतीयों पर किंग्स फोड़ने कई प्रकार के अत्याचार किये थे । अंग्रेज सरकार ने इस ब्रिटिश अधिकारी को किसी प्रकार का दंड देने के स्थान पर उल्टे उसे पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा। तब किंग्सफोर्ड को सदा के लिए समाप्त करने की जिम्मेदारी खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी ने उठाई । इस संबंध में ‘युगांतरकारी’ नामक क्रांतिकारी संगठन की एक बैठक में निर्णय लिया गया । खुदीराम को एक बम और पिस्तौल दी गयी।
प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दी गयी। मुजफ्फरपुर में आने पर इन दोनों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की निगरानी की। उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख लिया। खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आए।
३० अप्रैल १९०८ को मां भारती के इन सपूतों ने सुनियोजित ढंग से अपना काम करने की योजना बनाई । उन्होंने किंग्स फोल्ड की बग्घी पर बम फेंक दिया , परंतु बाद में पता चला कि उस बग्गी में किंग्सफोर्ड न होकर दो ब्रिटिश महिलाएं मारी गई।
हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा योरोप में भी सुनी गयी जब वहाँ इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया । खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों – रात नंगे पैर भागते हुए गये और 24 मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।
दूसरे दिन सन्देह होने पर प्रफुल्लकुमार चाकी को पुलिस पकडने गयी, तब उन्होंने स्वयं पर गोली चलाकर अपने प्राणार्पण कर दिये। खुदीराम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित ही था। 11 अगस्त 1908 को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम सहर्ष फांसी के फंदे पर झूल गए। किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मृत्यु भी हो गयी। बाद में हमारा यह क्रांतिकारी युवा देश के क्रांतिकारियों के बीच इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि बंगाल के जुलाहों ने उस समय एक ऐसी धोती बनानी आरंभ की जिसके किनारे पर उसका नाम लिखा होता था , प्रत्येक क्रांतिकारी उस धोती को पहन कर अपने आप में बहुत ही गौरव की अनुभूति करता था।
ऐसा नहीं है कि खुदीराम बोस के द्वारा लिया गया संकल्प और उसके द्वारा देखा गया भविष्य के भारत का सपना पूरा हो गया है ।आज भी हमें खुदीराम बोस के सपनों के भारत को बनाने के लिए और भी अधिक मनोयोग से कार्य करने की आवश्यकता है । तभी अपने क्रांतिकारियों के बलिदानों से हम कुछ प्रेरणा ले पाएंगे और तभी हम उनकी दिवंगत आत्मा की शांति के लिए सही दिशा में ठोस कार्य कर पाएंगे । अपने ऐसे क्रांतिकारी बलिदानी युवा खुदीराम बोस को कोटिश: नमन और भावपूर्ण श्रद्धांजलि ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत