Categories
इतिहास के पन्नों से

रघुवंशी(सूर्यवंशी) गुर्जर के शिलालेख

(1) विद्व शाल मंजिका, सर्ग 1, श्लोक 6 में राजशेखर ने कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज महान के पुत्र महेंद्रपाल को रघुकुल तिलक गुर्जर अर्थात सूर्यवंशी गुर्जर बताया है।
(2) महाराज कक्कुक का घटियाला शिलालेख भी इसे सूर्यवंशी वंश प्रमाणित करता है, अर्थात रघुवंशी गुर्जर।
(3) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है(9 वी शताब्दी)।
(4) गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान की ग्वालियर प्रशस्ति। मन्विक्षा कुक्कुस्थ (त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः। तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं, राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:। श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये, सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी। तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम। अर्थात – सूर्यवंश में मनु, इश्वाकू, कक्कुस्थ आदि राजा हुए, उनके वंश में पौलस्त्य (रावण) को मारने वाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र (सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था, उसके वंश में नागभट्ट हुआ।इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव (विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।
(5) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी: (बालभारत,1/11)। तेन (महिपालदेवेन) च रघुवंश मुक्तामणिना (बालभारत)। बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी एवम् दहाड़ता गुर्जर कहा है।
(6) ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत 1013 (ईस्वी 956) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है, उसमे उल्लेख किया गया है कि- तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव: तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोड भवत। अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया, अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई।उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ। (7) 6 वी से 10 वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकर्तीया भी इनके सुर्यवन्शी होने की पुष्टि करती है। प्राचीन इतिहास में गुर्जर का अर्थ इस महान जाति ने मूल रूप से अपना नाम ‘गुरुतार’ शब्द से लिया है जैसे कि( पं। छोट लाल शर्मा) (प्रसिद्ध पुरातात्विक और इतिहासकार)। वाल्मीकि द्वारा रामायण में ‘महाराजा दशरथ’ को ‘गुरुदार’ कहा जाता था। इसका मतलब है “एक बहुत उच्च श्रेणी राजा” .जिसे गुरुजन में बदल दिया गया था और बाद में गुर्जर में बदल दिया गया था। गुर्जर भारत में सबसे प्राचीन जातियों में से एक हैं ।

बनारस के एक प्रसिद्ध संस्कृत पंडित पंडित वासुदेव प्रसाद ने प्राचीन संस्कृत साहित्य के माध्यम से साबित किया है कि शब्द “गुज्जर या गुर्जर ” प्राचीन के नामों के बाद बोली जाने वाली थी, क्षत्रिय अन्य संस्कृत विद्वान राधाकांत का मानना ​​है कि गुज्जर शब्द क्षत्रिय के लिए थे। वैज्ञानिक साक्ष्य ने साबित कर दिया है कि गुज्जर आर्यों से संबंधित है राणा अली हुसैन लिखते हैं कि गुज्जर शब्द गुर्जर या गरजर शब्द से लिया गया है, जिसका प्रयोग रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया है। वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है, “गतो दशरत स्वर्ग्यो गार्तारो” – जिसका अर्थ है राजा दशरत जो हमारे बीच क्षत्रिय थे, स्वर्ग के लिए चले गए इस महान जाति ने मूल रूप से अपना नाम ‘गुरुतार’ शब्द से लिया है जैसे कि पं। छोट लाल शर्मा (प्रसिद्ध पुरातात्विक और इतिहासकार)। वाल्मीकि द्वारा रामायण में ‘महाराजा दशरथ’ को ‘गुरुदार’ कहा जाता था। इसका मतलब है “एक बहुत उच्च श्रेणी राजा” .जिसे गुरुजन में बदल दिया गया था और बाद में गुर्जर में बदल दिया गया था। गुर्जर भारत में सबसे प्राचीन जातियों में से एक हैं बनारस के एक प्रसिद्ध संस्कृत पंडित पंडित वासुदेव प्रसाद ने प्राचीन संस्कृत साहित्य के माध्यम से साबित किया है कि शब्द “गुज्जर” प्राचीन के नामों के बाद बोली जाने वाली थी, क्षत्रिय अन्य संस्कृत विद्वान राधाकांत का मानना ​​है कि गुज्जर शब्द क्षत्रिय के लिए थे। वैज्ञानिक साक्ष्य ने साबित कर दिया है कि गुज्जर आर्यों से संबंधित है राणा अली हुसैन लिखते हैं कि गुज्जर शब्द गुर्जर या गरजर शब्द से लिया गया है, जिसका प्रयोग रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया है। वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है, “गतो दशरत स्वर्ग्यो गार्तारो” – जिसका अर्थ है राजा दशरत जो हमारे बीच क्षत्रिय थे, स्वर्ग के लिए चले गए।


आर.डी. बनर्जी क्या कहते हैं ?

प्रतिहार , परमार , चालुक्य ,चौहान , तंवर , गहलौत आदि वंशों को पूर्ण गुर्जर तथा गहरवार , चंदेल आदि वंशों को ( गुर्जर पिता व अन्य जातियों की माताओं से उत्पन्न ) अर्द्ध गुर्जर मानने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘प्रीहिस्ट्रीक, एनशिएंट एंड हिंदू इंडिया’ के ‘दी ओरिजिन ऑफ दी राजपूतस एंड द राइज ऑफ़ जी गुर्जर एंपायर’ – नामक अध्याय में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों द्वारा देश व धर्म की रक्षा में अरब आक्रमण के विरुद्ध किए गए संघर्षों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘गुर्जर प्रतिहारों ने जो नवीन हिंदुओं अर्थात राजपूतों के नेता थे , उत्तर भारत को मुसलमानों द्वारा विजय करके बर्बाद किए जाने से बचाया तथा इसी प्रकार सारी जनसंख्या को मुसलमान बनने से बचा लिया।’
इस टिप्पणी में डॉ आर.डी. बनर्जी द्वारा जो कुछ कहा गया है उसमें दो बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है – एक तो वह कहते हैं कि राजपूत नवीन हिंदू थे और उनके नेता गुर्जर थे । दूसरे वह हमें यह भी बताते हैं कि गुर्जरों के शौर्य और पराक्रम के कारण इस्लाम के आक्रांता उत्तर भारत में अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए । जिसका परिणाम यह निकला कि उत्तर भारत की जनसंख्या मुसलमान होने से बच गई । जहाँ तक उनके द्वारा राजपूतों को ‘नवीन हिन्दू’ कहे जाने की बात है तो इससे राजपूतों के प्राचीन होने का भ्रम समाप्त हो जाता है और यह बात फिर पुष्ट हो जाती है कि मध्यकाल में राजपूत हमारे सभी क्षत्रिय वर्ण के लोगों का एक प्रतिनिधि शब्द बन गया था। जबकि उत्तर भारत का इस्लामीकरण न होने देने में गुर्जर शासकों के महत्वपूर्ण योगदान को श्री बनर्जी द्वारा स्पष्ट किए जाने से गुर्जर शासकों की वीरता , शौर्य और पराक्रम का हमें पता चलता है । साथ ही साथ गुर्जरों के इस महान कार्य से उनकी देशभक्ति और संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव भी स्पष्ट होता है । जिसके चलते इस्लामिक आक्रमणकारी भारतवर्ष में भारतीय लोगों के इस्लामीकरण करने की अपनी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके। सचमुच गुर्जर शासकों का यह कार्य बहुत बड़ा है । जिसके लिए भारत की आने वाली पीढ़ियां भी उनकी ऋणी रहेंगी।

डॉक्टर एल. मुखर्जी की मान्यता

डॉ. एल. मुखर्जी ने ‘भारत के इतिहास’ में लिखा है कि ”गुर्जर प्रतिहार वंश भारत का अंतिम साम्राज्यवादी हिंदू राज्य वंश था , जिसने अरब आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला किया और अपने जीते जी उन्हें भारत में घुसने नहीं दिया।”
डॉ. मुखर्जी की इस टिप्पणी में गुर्जरों को साम्राज्यवादी कहा गया है। यद्यपि हम गुर्जरों को साम्राज्यवादी नहीं मानते । क्योंकि गुर्जर यदि अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे तो वह अपने आर्य पूर्वजों के द्वारा शासित की गई उस भूमि को ही लेने का प्रयास कर रहे थे जो विदेशी आक्रमणकारियों ने किसी समय विशेष पर भारत से जबरन हथिया ली थी या किसी भी कारण से वह भूमि अब भारत के आर्य शासकों के अधीन न रहकर पराधीन हो गई थी। साम्राज्यवादी शासक वह होता है जो दूसरे देश पर इस उद्देश्य से आक्रमण करता है कि वह उसे लूटेगा और वहां के निवासियों के साथ अत्याचार करते हुए उनके धन को हड़पेगा , साथ ही उनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करेगा , बच्चों तथा वृद्धों का वध करेगा और उस देश पर फिर बलात अपना अधिकार कर शासन भी करेगा। भारत के किसी भी हिंदू शासक के भीतर यह दुर्गुण नहीं रहा कि वह साम्राज्यवाद की इस परिभाषा के अनुसार संसार के किसी भी क्षेत्र पर अपना अधिकार करने का प्रयास करता । इसी परम्परा को भारत ने उस समय भी निभाने का प्रयास किया जिस समय उसका विश्व साम्राज्य सिमटना आरम्भ हो गया था।
हमारी दृष्टि में साम्राज्यवादी शासक वह भी होता है जिसका आक्रमित राज्य के लोग स्वाभाविक रूप से विरोध करते हैं अर्थात जिसे आक्रमित राज्य के निवासी अपना शासक नहीं मानते । जबकि गुर्जर शासक यदि कहीं भी अपना साम्राज्य विस्तार कर रहे थे तो स्थानीय लोग उनका स्वागत इसलिए कर रहे थे कि वह मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों से दु:खी थे । वह नहीं चाहते थे कि उनकी पवित्र भूमि पर एक ऐसा विदेशी शासक आकर शासन करे जो उनसे साम्प्रदायिक विद्वेष रखता हो और साम्प्रदायिक आधार पर उन्हें अपनी तलवार की प्यास बुझाने का माध्यम मानवता हो । भारत के लोगों ने इस्लामिक आक्रमणकारियों से पूर्व कभी साम्प्रदायिकता को किसी शासक के द्वारा उसकी नंगी तलवार से होते जनसंहार के रूप में देखा नहीं था । इसलिए वह ऐसे ही शासक की कामना करते थे जो उनसे पुत्रवत स्नेह करता हो । स्पष्ट है कि जन अपेक्षाओं का सम्मान करते हुए यदि हमारे गुर्जर शासक या उनके पूर्ववर्ती कोई भी शासक ईरान तक शासन करते हुए गए तो वहाँ की हिंदू जनता ने उनका यह सोच कर अभिनंदन किया कि वह उनके दु:खों के हरण करने वाले के रूप में आ रहे हैं ।
आज यदि उस क्षेत्र पर रहने वाले लोगों का पूर्ण इस्लामीकरण हो गया है और उस समय के लोगों की ‘आह’ इतिहास के कूड़ेदान में दबकर रह गई है तो भी हमें वस्तुस्थिति को समझकर उस पर चिंतन , मनन ,लेखन करने की आवश्यकता है ।तभी हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारे गुर्जर शासक साम्राज्यवादी थे या लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले न्यायप्रिय शासक थे ?
इसके उपरान्त भी डॉक्टर मुखर्जी की इस बात को बहुत ही अधिक प्रमुखता मिलनी चाहिए कि गुर्जर शासकों के कारण अरब आक्रान्ताओं को भारत में प्रवेश करने का अवसर उपलब्ध नहीं हो पाया । गुर्जर शासकों के रहते हुए अरब आक्रान्ता निराश हुए ।

डॉक्टर आर. के. सिन्हा व डॉक्टर राय का मत

डॉक्टर आर.के. सिन्हा व डॉ. राय ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में स्वीकार किया है कि अब गुर्जरों की ऐतिहासिक महानता स्वयं उनके अपने शिलालेखों के आधार पर स्थापित हो गई है । गुर्जर प्रतिहारों द्वारा अरब आक्रांताओं के विरुद्ध देश – धर्म की रक्षा में निरन्तर 250 वर्ष तक लड़े गए सफल युद्धों का उल्लेख करके उसी पुस्तक में डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय ने आगे लिखा है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट शक्तिशाली अरब आक्रमणकारियों को 250 वर्ष तक के निरन्तर युद्ध में पराजित करने में सफल न होते तो प्राचीन भारतीय संस्कृति मिट जाती अर्थात मिश्र तथा बेबीलोन आदि की प्राचीन संस्कृतियों की भांति भारत की संस्कृति भी मृतप्राय हो जाती।’
निश्चय ही डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय की उपरोक्त सम्मति भी गुर्जर प्रतिहार शासकों की महानता और उनकी देशभक्ति को ही इंगित करती है। सचमुच किसी देश के इतिहास में 250 वर्ष का कालखंड बहुत बड़ा होता है। विशेष रुप से तब जब विदेशी आक्रमणकारी निरन्तर किसी देश को और उस देश की संस्कृति को मिटाने के लिए पल-पल संघर्ष करते रहे हों या प्रयास करते रहे हों । ऐसे में अपने आपको पल-पल देशहित के लिए समर्पित किये रखना भी किसी जाति या शासक वर्ग के लिए बहुत बड़ी बात होती है । इस दृष्टिकोण से गुर्जर प्रतिहार शासकों का भारतीय संस्कृति , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धर्म को बचाए रखने में योगदान निश्चय ही अतुलनीय है।

डॉ. ए.सी. बनर्जी का मत

डॉ. ए.सी. बनर्जी ने अपनी ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में अरब आक्रमणकारियों के भारत विजय करने में असफल रहने का कारण बताते हुए लिखा है कि- ‘निरन्तर आक्रमणों के बावजूद अरब लोग भारत में विजय करने में इसलिए असफल रहे कि गुर्जर प्रतिहार राजपूत उनसे अत्यधिक शक्तिशाली थे।’
वास्तव में यह सत्य है कि सत्य तभी जीतता है जब उसके पीछे शक्ति होती है । यही कारण है कि वीर सावरकर जी जहां ‘सत्यमेव जयते’ को सही मानते थे वहीं ‘शस्त्रमेव जयते’ की बात भी करते थे । गांधीजी की कांग्रेस को ‘सत्यमेव जयते’ का नारा देने वाले पंडित मदनमोहन मालवीय थे जो हिंदू महासभा के नेता थे , परंतु हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने ही गांधीजी और उनके साथियों को इस बात के लिए भी प्रेरित किया कि ‘सत्यमेव जयते’ तभी सफल होगा जब ‘शस्त्रमेव जयते’ की परम्परा में विश्वास रखोगे । यह सौभाग्य की बात है कि हम जिस गुर्जर प्रतिहार वंश के शासन काल के बारे में इस समय चर्चा कर रहे हैं उस समय हमारे राष्ट्रीय नेता अर्थात प्रतिहार वंश के शासक ‘सत्यमेव जयते’ के लिए ‘शस्त्रमेव जयते’ को आवश्यक मान रहे थे और उसी के अनुसार अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह कर रहे थे। यही कारण रहा कि उन्होंने जहां देश की एकता और अखंडता को बचाए रखने में सफलता प्राप्त की , वहीं विदेशी आक्रमणकारियों को देश की सीमाओं से बाहर ही रोक दिया । उन्हें भारत की सीमाओं में प्रवेश करने का साहस नहीं हुआ।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version