ओ३म् “एक अकेला ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति व पालन कैसे कर सकता है?”

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
वैदिक धर्मी मानते हैं कि संसार में ईश्वर एक है और वही इस सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता तथा प्रलयकर्ता है। वही ईश्वर असंख्यजीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है तथा उन्हें उनके अनेक जन्म-जन्मान्तरों में सभी कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल देता है। एक ईश्वरीय सत्ता के लिये इस विशाल संसार की रचना तथा सब जीवों के कर्मों का याथातथ्य न्याय करना सम्भव प्रतीत नहीं होता। प्रायः सभी आस्तिकजन ईश्वर को इन कार्यों का कर्ता मानते हैं। इसका कारण यह भी है कि ईश्वर के अतिरिक्त इस सृष्टि में अन्य कोई सत्ता नहीं है जिनसे यह सभी कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। अतः एक ईश्वर ही है जो इन सब कार्यों को कर सकता है व करता भी है। विश्वास कैसे हो इसके लिये वैदिक धर्म में वर्णित ईश्वर के सत्यस्वरूप को समझना होगा क्योंकि वही ईश्वर इन कार्यों को कर सकता है जबकि मत-मतान्तरों में ईश्वर का जो स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव वर्णित हैं, वह इन सब कार्यों को करने में समर्थ नहीं हो सकते।

हमें यह भी जानना है कि कि संसार में केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ हैं। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद सृष्टि के आरम्भ में चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को ईश्वर से प्राप्त हुए थे। यह वेद ज्ञान पुस्तकों के रूप में नहीं अपितु सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी ईश्वर द्वारा अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न कर चार ऋषियों की आत्मा में भीतर से जीवस्थ रूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किया गया था। मनुष्य जब कोई बुरा काम करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका तथा लज्जा का अनुभव होता है। इसके विपरीत जब कोई धर्म, परोपकार तथा परसेवा का कार्य का कार्य करता है तो उसकी आत्मा में निर्भयता, प्रसन्नता, आनन्द तथा उत्साह का भाव उत्पन्न होता है। यह दोनों प्रकार के भाव आत्मा में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा द्वारा मनुष्यों की जीवात्माओं में उत्पन्न किये जाते हैं। इससे ईश्वर की सत्ता का होना और उसका सर्वान्तर्यामी व आत्मा के भीतर विद्यमान होना भी सिद्ध होता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि ईश्वर जीवात्माओं को प्रेरणा करके ज्ञान दे सकता है। 

सृष्टि के आदि काल में मनुष्यों को ईश्वर द्वारा ज्ञान दिये जाने के विषय में ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदोत्पत्ति प्रकरण में विस्तार से प्रकाश डाला है जिसे पढ़कर पाठक आश्वस्त हो सकते हैं कि ईश्वर मनुष्यों को जीवस्थ स्वरूप से प्रेरणा कर ज्ञान दे सकता है। यह चार वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है, अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरीय ज्ञान का नहीं है। यह भी ज्ञातव्य है कि वेद की सभी शिक्षायें ज्ञान-विज्ञान सम्मत तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं। इसमें इतिहासिक कहानी-किस्से वा इतिहास नहीं है। वेद की कोई बात आज तक विज्ञान के विपरीत सिद्ध नहीं हुई। वेदों की भाषा से ही लौकिक संस्कृत तथा विश्व की अन्य सब भाषायें उत्पन्न हुई हैं। संस्कृत शब्दों के अपभ्रंस प्रायः संसार की सभी भाषाओं में पाये जाते हैं। सृष्टि उत्पत्ति विषयक ज्ञान भी वेदों में है तथा ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति का सत्यस्वरूप तो जैसा वेदों में प्राप्त होता है वैसा संसार के किसी मानवकृत व अपोरूषेय माने जाने वाले ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता। उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी अनेक वेदानुकूल रहस्य प्राप्त होते हैं जो ज्ञान-विज्ञान सम्मत तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं। वेदों की महत्ता पर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में प्रकाश डाला है। आश्चर्य है कि वेदों की अनेक विशेषतायें होने तथा संसार का सबसे प्राचीन एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ होने पर भी मत-मतान्तरों के लोग राग-द्वेषवश बिना विचारे, वेदों को पढे, जाने व समझे उन्हें ठुकरा देते हैं और अपने मत के लोगों को भी ऐसा करने से रोकते प्रायः है। मत-मतान्तर व विश्व के लोगों की वेदों की उपेक्षा आश्चर्यजनक एवं दुःखद है। ऐसा करके वेद न पढ़ने वाले मनुष्य अपने शत्रु स्वयं ही सिद्ध होते हैं। 

वेदों से ईश्वर का जो सत्यस्वरूप प्राप्त होता है वह संक्षेप में इस प्रकार है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिामन्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही एक ईश्वर सब मनुष्यों का उपासनीय एवं स्तुति प्रार्थना करने योग्य है। ईश्वर सृष्टिकर्ता सहित सृष्टि का पालन कर्ता एवं हर्ता भी है। वह सब जीवात्माओं को यथावतरूप में जानता है तथा उनके पाप-पुण्यरूप कर्मानुसार उनके-मरण व मोक्ष आदि की व्यवस्था करता है। ईश्वर वेदज्ञान का दाता, सत्कर्मों का प्रेरक एवं दुष्कर्मों का विरोधी तथा आत्मविरुद्ध आचरण अर्थात् पाप कर्मों के लिए ताड़ना करने वाला है। 

जीवात्मा के गुण, कर्म एवं स्वभाव तथा स्वरूप पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि जीवात्मा सत्य, चित्त्, अल्पज्ञ, अल्पसामर्थ्य से युक्त, एकदेशी, ससीम, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र, ईश्वर से दूर होने पर अज्ञानता व पाप कर्मों में फंसता है तथा वेदाध्ययन तथा ईश्वरोपासना से सत्कर्मों को करते हुए पाप-पुण्य में आसक्ति से रहित होकर कर्म करते हुए समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात् कर मुक्ति को प्राप्त होता है। जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है। यह जैसे कर्म करता है, उसके अनुरूप ही ईश्वर फल देता है। जीवात्मा अल्प शक्ति से युक्त होता है। जीवात्मा अनादि, अविनाशी, अमर, नित्य तथा पवित्र है। जीवात्मा के जन्म-मरण धर्मवाला होने से इसकी जन्म के बाद मृत्यु तथा मृत्यु के बाद जन्म होता जाता है। अनादि काल से सभी जीवात्माओं के अनन्त बार जन्म हो चुके हैं। यह प्रायः सृष्टि की सभी प्राणी-योनियों में अनेक अनेक बार आ जा चुके हैं। भविष्य में अनन्त काल की अवधि में भी इसी प्रकार का क्रम जारी रहेगा। यही जीव का गुण, कर्म, स्वभाव तथा स्वरूप है।

हमारा यह संसार मूल प्रकृति का विकार है। प्रकृति त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज तथा तम गुणों वाली सूक्ष्म जड़ सत्ता है। ऋषि दयानन्द ने इसे सत्व अर्थात् शुद्ध, रजः अर्थात् मध्य तथा तमः को जाड्य बताया है। यह सूक्ष्म प्रकृति प्रलय अवस्था में पूरे ब्रह्म लोक में विस्तृत व फैली हुई होती है। सर्वज्ञ, सर्वाव्यापक एवं सर्वान्तयामी ईश्वर ही सर्ग के आरम्भ में इस प्रकृति से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रों आदि से युक्त सृष्टि की रचना करते हैं। ऋषि दयानन्द जी ने सृष्टि के रचना-क्रम पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि प्रकृति के क्रमानुसार विकार प्रकृति से महतत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इन में से प्रकृति अविकारिणी और महतत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रिया मन तथा स्थूल भूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा, न किसी की प्रकृति, उपादान कारण और न किसी का कार्य है। इसको विस्तार से जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश तथा सांख्य दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।  

संसार में अनादि तथा नित्य तीन पदार्थ हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। प्रकृति जड़ है। यह स्वयं सृष्टि के रूप में परिवर्तित व निर्मित नहीं हो सकती। इसे इस प्रकार समझ सकते हैं आटे से रोटी स्वमेव नहीं बन सकती। प्रकृति से सृष्टि बनाने के लिए किसी सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता की आवश्यकता होती है। जीव भी सत्, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ तथा अल्प शक्ति वाले हैं। यह अकेले व मिलकर भी सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, वनस्पति, अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि सहित मनुष्य व प्राणियों के शरीरों की रचना कर उनमें जीवों का प्रवेश नहीं करा सकते। अतः यह अपौरुषेय कार्य सर्वव्यापक ईश्वर ही सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अमर व सृष्टिकर्ता होने से सम्पन्न करता है। वेदों का अध्ययन करने से ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर ईश्वर अकेला यह सब कार्य कर सकता है, इस विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती है और अध्येता को विश्वास हो जाता है कि ईश्वर अनन्त शक्तियों से युक्त होने के कारण सृष्टि रचना व पालन आदि का कार्य अवश्य कर सकता है। इस बात का जीता जागता प्रमाण यह समस्त संसार वा ब्रह्माण्ड तथा इसकी व्यवस्थायें हैं जिन्हें ईश्वर संचालित कर रहा है। ईश्वर के अलावा लोक में अन्य कोई सर्वशक्तिमान सत्ता नहीं है। अतः यह सत्य भी है और स्वीकार भी करना होता है कि ईश्वर ही इस जगत का निमित्तकारण, उत्पत्तिकर्ता, धर्ता एवं हर्ता है। मत-मतान्तरों में आधा-अधूरा ज्ञान होने से सत्यान्वेषी मनुष्यों की सन्तुष्टि नहीं होती है। विद्वानों व वैज्ञानिकों की भी वह सन्तुष्टि नहीं करा सकते। वैदिक धर्म में सृष्टि के आरम्भ से ही ज्ञानी, विद्वान, वैज्ञानिक व ऋषि सभी ईश्वर पर दृढ विश्वास करते आये हैं। वह योगाभ्यास व समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करते थे। इनको अपनी सभी शंकाओं का भ्रान्तिरहित ज्ञान व समाधान सीधे ईश्वर से प्राप्त होता था। हमारे ऋषि व विद्वान सृष्टि विज्ञान के भी अधिकारी होते थे। ऐसे ही विद्वान व ऋषि दयानन्द थे। वह आप्त कोटि के महापुरुष थे। उनके कहे व लिखे शब्द भी प्रमाण योग्य एवं सर्वथा सत्य है। 

ईश्वर को समग्रता से जानने के लिये वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। बिना वेद ज्ञान के ईश्वर को पूर्णतया नहीं जान सकते। मत-मतान्तरों से सत्यान्वेषी विद्वानों की सन्तुष्टि नहीं हो सकती। जो सिद्धान्त व ज्ञान वेद व वैदिक साहित्य में मिलता है वह सब किसी मत-मतान्तर के ग्रन्थ से उपलब्ध नहीं होते। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य
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