उत्तरप्रदेश भाजपा में बढ़ती अंतर्कलह*
(शिवशरण त्रिपाठी – विनायक फीचर्स)
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जारी अंतर्कलह जहां भाजपा के लिये घातक बनती जा रही है वहीं विपक्षी दलों के लिये उत्तर प्रदेश में पैर जमाने की नई आस बन रही है ।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित झटका लगने से योगी सरकार निशाने पर आ गई। हार का ठीकरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर फोड़ा जाने लगा। सबसे मुखर हमला योगी सरकार में उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य ने बोला। उन्होने आरोप लगाया कि योगी जी ने संगठन की बजाय सरकार को कहीं अधिक महत्व दिया जिसके परिणाम सामने है।
उन्होने खुद अपनी पीठ ठोंकते हुये कहा कि 2017 में जब वह भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे तो पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 325 सीटें जीतकर रिकार्ड बनाया था। उनका यह जताने का मतलब संभवत: यही था कि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी जाये। पिछड़ा समाज से आने वाले श्री मौर्य को हमेशा गुमान रहा है कि वे उस पिछड़े समाज से आते है जिनकी उत्तर प्रदेश के कुल मतों में हिस्सेदारी करीब 45 फीसदी के आसपास है।
राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि उपमुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद भी उनके मन में मुख्यमंत्री न बन पाने की टीस रह-रहकर उठती रही है लेकिन योगी सरकार को केन्द्रीय नेतृत्व का पूरा समर्थन और आशीर्वाद मिलने से श्री मौर्य अपने अरमानों का गला घुटता देखने को विवश से हो गये।
श्री मौर्य के मुख्यमंत्री बनने की कवायद व सपने को तब करारा झटका लगा जब 2022 के विधानसभा चुनाव में वह अपनी सिराथू की सीट समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी पल्लवी पटेल के हाथों गंवा बैठे।
राजनीतिक विश्लेषक व प्रदेश की जनता तब सकते में आ गई जब हारने के बावजूद श्री मौर्य को पुन: उपमुख्यमंत्री बना दिया गया। इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं मिल सका कि आखिर एक हारे हुये नेता को किस विवशता के चलते उपमुख्यमंत्री पद सौंपा गया।
यहां ये स्मरण कराना जरूरी है कि श्री मौर्य 2022 में कोई पहला चुनाव नहीं हारे वरन् वे इससे पहले दो चुनाव और हार चुके हैं। ये बात दीगर है कि 2014 का लोकसभा चुनाव उन्होने फूलपुर सीट से लड़ा था जहां उन्हें 3 लाख से अधिक वोटों से जीत मिली थी। यह सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती रही है और यहीं से पं. जवाहर लाल नेहरू चुनाव लड़ते रहे हैं।
समझा जाता है कि फूलपुर की लोकसभा सीट जीतने के बाद उनका कद भाजपा में बढ़ गया और 2016 में उन्हे उत्तर प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बना दिया गया। और जब पार्टी अध्यक्ष रहते 2017 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई तब भाजपा हाईकमान भी उन्हे पिछड़ों का बड़ा नेता मानने लगा और यही कारण रहा श्री मौर्य सोते-जागते, उठते-बैठते मुख्यमंत्री पद का सपना देखने लगे। 2024 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा उत्तर प्रदेश में 62 सीटों से सिमटकर 33 सीटों पर आ गई तो इसकी सारी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर डाल दी गई। सबसे ज्यादा हमलावर श्री मौर्य दिखे। वैसे यहां यह भी दिलचस्प है कि पिछड़ों के इतने बड़े नेता होते हुये भी मौर्य के स्वयं के गृह जनपद कौशाम्बी में उनकी पार्टी हार गई।
इसी कड़ी में यहां ये प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि यदि केवल संगठन के बलबूते ही चुनाव जीते जाते हैं और इस जीत में ओबीसी की बड़ी भूमिका है तो श्री मौर्य के बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये ओबीसी वर्ग के अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह के नेतृत्व में पार्टी लोकसभा चुनाव में क्यों मात खा गई?
कदाचित श्री मौर्य इन तथ्यों से या तो अंजान है या फिर जानबूझकर अंजान बनते दिखते है कि 2017 में यदि भाजपा को पहले विधान सभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्साहवर्धक जीत हासिल हुई थी तो उसके कई कारण थे। इनमें से एक प्रमुख कारण तत्कालीन अखिलेश सरकार से लोगों की भारी नाराजगी भी थी।
श्री मौर्य की राह पर चलने वाले उत्तर प्रदेश के दूसरे उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक किस बूते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का विरोध करते रहे है इसे आज तक दिग्गज राजनीतिक विश्लेषक भी नहीं समझ पाये हैं।
कहा जाता है कि ब्राह्मण चेहरा होने के नाते उन्हे उपमुख्यमंत्री बनाया गया है। आज उत्तर प्रदेश के कितने ब्राह्मण उनके समर्थन में है और कितने उनकी वजह से भाजपा के समर्थक बने हुये हैं यह शोध का विषय है। अगर वे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के एक छत्र नेता होते तो उन्हें बसपा किसी कीमत पर पार्टी से न जाने देती।
अवसरवादी राजनीति के लिये जाने, जाने वाले श्री पाठक ने अपनी राजनीति 2002 में कांग्रेस से शुरू की थी जब वह कांग्रेस के टिकट पर अपने गृह जनपद हरदोई की मल्लावा विधान सभा सीट से चुनाव लड़े थे। उसमेें पराजित होने के कोई दो वर्षो बाद उन्होने बसपा का दामन थाम लिया था। बसपा से 2004 में वह उन्नाव सीट से सांसद बने। फिर बसपा ने उन्हें बाद में राज्यसभा भेजा था। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में वे चुनाव हार गये तो दो वर्षो बाद 2016 में उन्होने भगवा चोला धारण कर लिया। 2017के विधान सभा चुनाव में वह भाजपा के टिकट से जीतकर विधायक बने और योगी सरकार में उन्हे कानून मंत्री बनाया गया। 2022 के विधानसभा चुनाव में जब उन्होंने लखनऊ की छावनी विधान सभा सीट जीती तो मार्च 2022 में उन्हे सूबे का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया।
उपमुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंनेे पार्टी को कितनी मजबूती दी और सरकार की साख बढ़ाने में क्या योगदान दिया इस पर भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को चिंतन करने की जरूरत है।
प्रदेश के अधिसंख्य लोगों का तो यह कहना है कि योगी जी के रहते हुये उत्तर प्रदेश में दो-दो उपमुख्यमंत्री बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है। जिस तरह ये दोनों उपमुख्यमंत्री प्रदेश सरकार की छवि खराब करने में जुटे हैं उससे भाजपा की ही जग हंसाई हो रही है।
उत्तर प्रदेश के दोनों उपमुख्यमंत्री के योगी विरोध को लेकर ये चर्चायें भी आम हो चली है कि आखिर उन्हें कहां से ताकत प्राप्त हो रही है। जिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का खुला समर्थन प्राप्त है। जिन मुख्यमंत्री को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री माना जाता हो आखिर उनके खिलाफ पार्टी के ही दो नेताओं द्वारा खुलेआम मुहिम चलाना नि:संदेह इस बात का ही प्रमाण है कि उन्हे किसी बड़ी ताकत का वरदहस्त जरूर प्राप्त है।
यहां यह भी गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें घटने के बाद जिस तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरूद्ध मुहिम चलाई गई और जो अभी तक जारी है तो इस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अथवा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने संज्ञान क्यों नहीं लिया? नि:संदेह इन प्रश्नों का जवाब जनता को मिलना ही चाहिये।
जिस भाजपा को अनुशासित पार्टी माना जाता है यदि उसी पार्टी में अनुशासनहीनता खुलेआम नजर आये तो पार्टी आला कमान को सावधान हो ही जाना चाहिये।
यहां ये भी कम गौरतलब नहीं है कि आलाकमान द्वारा श्री मौर्य व श्री पाठक को अनुशासन में रहकर और योगी जी के साथ मिलकर काम करने के कड़े निर्देश के बाद भी दोनों उपमुख्यमंत्री अपने मुख्यमंत्री से दूरी बनाते दिखाई दे रहे हैं। (विनायक फीचर्स)
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