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अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत : अध्याय-18, *कुछ क्रूर आक्रांता और अफगानिस्तान*

*अफगानिस्तान को कई क्रूर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा। भारत का पश्चिमी सीमांत प्रांत होने के कारण और भारत के इस उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र से ही विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण का प्रवेश द्वार होने के कारण भी अफगानिस्तान को विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों का शिकार होना पड़ा।

   मंगोलियाई शासक और आक्रमणकारी चंगेज खान ने अफगानिस्तान, ईरान, भारतवर्ष सहित तत्कालीन विश्व के बहुत बड़े भाग पर क्रूरता और बर्बरता का कहर बरसाया था। उसकी बर्बरता की कहानियों को सुनकर अभी तक भी लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इसका मंगोलियाई नाम चिंगिस खान था। चंगेज खान का जन्म 1162 ई. के आसपास मंगोलिया के उत्तरी भाग में ओनोन् नदी के समीप कहीं हुआ माना जाता है। कहते हैं कि चंगेज खान ने अपने समय में मुस्लिम साम्राज्य को लगभग नष्ट ही कर दिया था। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। कुछ विद्वानों का मानना है कि चंगेज खान चीन के शासक पन्थ का अनुयायी था। अफगानिस्तान उस समय बौद्ध धर्म का गढ़ था। चंगेज खान ने अपने बर्बर आक्रमणों के समय अफगानिस्तान को भी अपनी बर्बरता और क्रूरता का शिकार बनाया था। इस प्रकार महात्मा बुद्ध की अहिंसा परमो धर्मः की नीति चंगेज खान की नंगी तलवारों के दिखाए जाने वाले बर्बरता और क्रूरता के खेलों के सामने समाप्त हो गई। महात्मा बुद्ध अहिंसा के जिस महान् उपदेश को लेकर संसार को स्वर्ग बनाने के लिए चले थे, उसे अशोक महान् जैसे शासकों ने यदि आगे बढ़ाने का कार्य किया तो चंगेज खान जैसे अधर्मी शासकों ने महात्मा बुद्ध की अहिंसा का सत्यानाश ही कर दिया। कितना अद्भुत संयोग है कि अशोक महात्मा बुद्ध के जिस संदेश को अफगानिस्तान में विशेष रुचि लेकर फैलाने के लिए निकला था, उसी अफगानिस्तान को सांस्कृतिक व धार्मिक रूप से मिटाने और राजनीतिक रूप से दुर्बल कर देने का जब समय आया तो महात्मा बुद्ध के ही एक अनुयायी चंगेज खान ने भी उसमें बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया। कहने का अभिप्राय है कि जिस प्रकार महात्मा बुद्ध मानवता का संदेश लेकर संसार में आए थे और उसके प्रचार-प्रसार और विस्तार के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे, उसको उनके एक अनुयायी सम्राट अशोक ने तो प्राणपण से फैलाने का प्रयास किया, परंतु उन्हीं के परिवार अर्थात् अनुयायियों के संघ में ऐसे भी शासक हुए जो उन्हीं की विचारधारा को नष्ट करने पर उतारू हो गए।

 चंगेज खान ने मंगोलियाई लोगों के कबीलों को एकजुट करने का कार्य आरंभ किया। उसने अपने इन सहयोगियों के साथ मिलकर एक बड़े क्षेत्र पर शासन करना आरंभ किया। इतिहासकारों का मानना है कि उसके राज्य में आज का कोरिया, चीन, रूस, पूर्वी यूरोप, भारत के कुछ भाग और दक्षिण पूर्व एशिया आते थे। उसकी बर्बरता और क्रूरता की कहानियाँ उस समय संसार के एक बड़े क्षेत्र में इतनी व्यापकता से फैल गई थीं कि लोग उसके नाम से भय के मारे कांपने लगते थे। अहिंसा प्रेमी धर्म में ऐसे हिंसक शासकों का होना सचमुच इतिहास के महान् आश्चयों में से एक है। रूस, एशिया और अरब देश चंगेज खान की परछाई से भी डरने लगे थे। चंगेज खान ने अपना अभियान चलाकर ईरान, गजनी सहित पश्चिम भारत के काबुल, कंधार, पेशावर सहित कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया था। कहने का अभिप्राय है कि तत्कालीन भारत के भाग रहे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में विशेष रूप से चंगेज खान की क्रूरता ने अपना पूरा तांडव दिखाया था, अर्थात् इस पवित्र भूमि ने चंगेज खान की क्रूरता और बर्बरता को अपनी आँखों से देखा था।

  उस समय चंगेज खान ने योजना बनाई थी कि वह सिंधु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटे, परन्तु किसी कारणवश उसकी यह योजना सफल नहीं हो सकी। यदि वह अपनी इस योजना में सफल हो गया होता तो भारत को और भी अधिक जन-धन की क्षति उठानी पड़ती।

                चंगेज खान की क्रूरताओं पर किए गए एक शोध के अनुसार इस क्रूर मंगोलियाई योद्धा ने अपने क्रूर आक्रमणों में इस सीमा तक लूटपाट और रक्तपात किया था कि एशिया में चीन, अफगानिस्तान सहित उज्बेकिस्तान, तिब्बत और बर्मा आदि देशों की बहुत बड़ी जनसंख्या का सफाया ही हो गया था। हमारा मानना है कि नरभक्षी हो जाना शासक की सफलता या महानता का परिचायक नहीं होता, अपितु उसके पतन का प्रतीक होता है। इतिहास इसके उपरांत भी यदि ऐसे क्रूर शासकों को महान् और प्रतापी शासक बताए तो समझना चाहिए कि इतिहास अपनी भाषा में नहीं बोल रहा है। कहते हैं कि मुसलमानों के लिए तो चंगेज खान और हलाकू खान के हृदय में तनिक भी दया नहीं थी। उन्होंने लुटेरी संस्कृति और बर्बरतापूर्ण असभ्यता का प्रदर्शन करते हुए पाशविकता का प्रचार-प्रसार करने में कमी नहीं छोड़ी। संसार को भयाक्रांत करते हुए जीवन जीने का प्रयास किया।

यह सारा आतंकवाद, उत्पात और क्रूरता का तांडव तब तक यथावत चलता रहा, जब तक वह जीवित रहा।

चंगेज खान ने अकूत संपदा प्राप्त करके और लोगों के राज्य छीन छीन कर साम्राज्य का विस्तार किया, परंतु उसे मानसिक शांति नहीं मिली। वह संपूर्ण भूमंडल को अपने अधीन कर लेना चाहता था, परंतु उसके हृदय में अशांति की आग लगी हुई थी, इसलिए वह उस आग में जलता रहा और अशांत रहकर संसार में उत्पात मचाता रहा। चंगेज खान पर लिखी गई एक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक जैक वेदरफोर्ड ने कहा है कि जीवन भर लूटकर अपने लिए सारे संसार से धन एकत्र करने वाले चंगेज खान ने कभी स्वयं या परिजनों पर खर्च नहीं किया। उसकी मृत्यु के उपरांत उसे बहुत साधारण ढंग से दफना दिया गया था।

हलाकू - हलाकू नाम का विदेशी बर्बर आक्रमणकारी चंगेज खान का पौत्र था। स्पष्ट है कि उसके भीतर चंगेज खान जैसी क्रूरता और बर्बरता के ही प्रबल संस्कार थे। जिनके कारण उसने भी अपने शासनकाल में लोगों पर उसी प्रकार के अत्याचार किए, जैसे उसके पितामह चंगेज खान ने अपने शासनकाल में किए थे। हलाकू की माता सोरगोगतानी बेकी ने उसे और उसके भाइयों को वैसे ही संस्कार देने का प्रयास किया जैसे उन्के परिवार के लिए अपेक्षित और आवश्यक थे।

   माता के द्वारा दिए गए संस्कारों का परिणाम यह हुआ कि हलाकू बचपन में ही लड़ाकू और खतरनाक प्रवृत्ति का योद्धा बन गया। माता के दिए संस्कार जीवन भर काम आते हैं। माता को हमारे यहाँ पर निर्माता कहा गया है। वह बच्चों को संसार के लिए भस्मासुर भी बना सकती है और वह उन्हें संसार के लिए देव भी बना सकती है। उसकी ऊर्जा किस क्षेत्र में कैसे प्रवाहित हो जाए? यह केवल वही जानती है। उसके विवेक और बौद्धिक कौशल पर ही निर्भर करता है कि वह अपनी संतान को क्या बना सकती है? या क्या बनाने जा रही है? जब माँ स्वयं यह निश्चय कर लेती है कि उसे अपनी संतान को क्या बनाना है तो फिर उसे संसार की कोई शक्ति रोक नहीं सकती। हलाकू की माँ ने भी सोच लिया था कि वह उसे दूसरा चंगेज खान बना कर ही रहेगी। यही कारण था कि हलाकू सचमुच दूसरा चंगेज खान बन गया। इतिहास में जितने घृणा के साथ चंगेज खान का नाम लिया जाता है, उतनी ही घृणा के साथ हलाकू को भी स्मरण किया जाता है।

1217 ई. में जन्मे हलाकू खान की मृत्यु 8 फरवरी, 1265 को हुई। इस प्रकार वह अधिक समय जीवित नहीं रहा, परंतु अल्पायु में ही वह बहुत बड़े अत्याचार बरपा गया। मध्य एशिया में उसने जिस प्रकार अपने अत्याचारों की कहानी लिखी उसे देख कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसने दक्षिण-पश्चिम एशिया के कई भू-भागों पर आक्रमण कर अपना नियंत्रण स्थापित किया। उसने ही मध्य एशिया में मलखानी साम्राज्य स्थापित किया। इस साम्राज्य को मंगोल साम्राज्य का एक भाग माना जाता है। हलाकू खान ने इस्लाम के सबसे शक्तिशाली केंद्र बगदाद को नष्ट करके रख दिया था। उसने ईरान और अरब देशों पर भी अपना नियंत्रण स्थापित किया। बगदाद की शक्ति के नष्ट होने से ईरान में फारसी भाषा मिटा दी गई। हलाकू ने तीन लाख फौज के साथ भारत पर भी हमला बोला था। उसके भारत पर किए गए हमले के परिणामस्वरूप ईरान, अफगानिस्तान और तुर्क के विद्वान्, शिल्पकार और अन्य लोग भागकर दिल्ली सल्तनत आकर बस गए थे। इस प्रकार अफगानिस्तान ने हलाकू जैसे राक्षस आक्रमणकारी के अत्याचारों को बड़ी निकटता से देखा और झेला था। वहाँ से विद्वानों का पलायन यह बताता है कि हलाकू के अत्याचार अत्यंत पीड़ादायक थे।

इतिहासकारों का मानना है कि हलाकू ने मंगोलों का चीन और रूस सहित किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान तक एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर दिया था। कहते हैं कि उसकी पत्नी दोकुज खातून एक नेस्टोरियाई ईसाई थी। इस महिला का बहुत प्रयास रहा कि उसका पति हलाकू भी ईसाई धर्म का अनुयायी बन जाए, परंतु उसे असफलता ही हाथ लगी, क्योंकि हलाकू अपने अंतिम क्षणों तक बौद्ध धर्म का ही अनुयायी बना रहा।

 हलाकू ने जनवरी 1258 ई. के अंतिम तिथियों में बगदाद पर आक्रमण करने का विचार बनाया। 13 फरवरी को जब वह बगदाद शहर में प्रविष्ट हुआ तो उसने वहाँ पर नरसंहार के आदेश दिए। यह नरसंहार एक सप्ताह तक चला। कहते हैं कि उसने बगदाद के एक महान् पुस्तकालय की सारी पुस्तकों को उठाकर नदी में फिंकवाने के आदेश कर दिए थे। जो शरणार्थी वहाँ से बचकर भागे थे उन्होंने बाद में बताया था कि फेंकी गई हजारों-लाखों पुस्तकों की स्याही से दजला का पानी काला हो गया था। मरने वालों की संख्या कम से कम एक लाख बताई जाती है। नागरिकों पर पाशविक अत्याचार किए गए। साथ ही महिलाओं और बच्चों को भी क्रूर यातनाओं से मारने और उनके साथ बलात्कार करने की ऐसी घटनाएँ हुई जिन्हें सुनकर लज्जा को भी लज्जा आ जाएगी।

  शत्रु इतिहास लेखकों ने चंगेज, हलाकू, तैमूर, नादिर शाह आदि विदेशी आक्रमणकारियों को कुछ इस प्रकार दिखाने का प्रयास किया है कि जैसे यह भारत की सीमाओं पर भेड़िए की तरह घूमे और वहाँ से कुछ शिकार करके वापस चले गए। इन इतिहास लेखकों का मानना है कि इन आक्रमणकारियों के आक्रमणों से भारत पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जबकि सच यह नहीं था। सच यही था कि यदि ये आक्रमणकारी अफगानिस्तान में भी उस समय अत्याचार कर रहे थे या इनमें से किसी ने अफगानिस्तान को अपना शिविर बना कर वहाँ से भी भारत पर हमले करने की योजनाएँ बनाई या हमला किए तो उन सबका एक ही लक्ष्य था-भारत का सांस्कृतिक रूप से विनाश करना।

तैमूर लंग – तैमूर लंग का जन्म 8 अप्रैल, 1336 ई. को हुआ था। उसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक इस विदेशी आक्रमणकारी क्रूर शासक का साम्राज्य विस्तार पा चुका था। इसी तैमूर का वंशज बाबर था।

जिसने उसके आक्रमण के लगभग सवा सौ वर्ष पश्चात् भारत पर आक्रमण किया था।

तैमूर लंग के पिता ने इस्लाम कबूल किया था। तैमूर लंग प्रारंभ से ही अपना आदर्श चंगेज खान को मानकर चलता था। वह चाहता था कि जिस प्रकार चंगेज खान ने संसार को रौंदकर क्रूरतापूर्वक अत्याचार करते हुए शासन किया, उसी प्रकार वह भी करे। उसकी यह भी इच्छा थी कि वह सिकंदर की भाँति विश्व विजेता बनने के लिए विश्व विजय अभियान चलाए।

1369 ई. में समरकंद के मंगोल शासक की मृत्यु हो जाने के उपरांत तैमूर लंग ने उसके राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। उसने 1380 से 1387 ई. के बीच खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान, कुर्दिस्तान पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन कर लिया था। इन सभी स्थानों पर उसने अपनी क्रूरता और बर्बरता का पूर्ण प्रदर्शन किया था, तथा लोगों के साथ जितने भी अत्याचार कर सकता था, वह सब किये। 1393 ई. में बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर उसने अपना अधिकार स्थापित किया। इससे उत्साहित और प्रेरित होकर उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उसके सरदार नहीं चाहते थे कि भारत पर आक्रमण किया जाए, परंतु जब उसने अपने सरदारों के सामने अपना भाषण देते हुए यह स्पष्ट किया कि वह इस्लाम के प्रचार के लिए भारत जाना चाहता है तो उसके सरदार भारत पर आक्रमण के लिए तैयार हो गए।

अप्रैल 1398 ई. में तैमूर ने समरकंद से भारत के लिए प्रस्थान किया। पानीपत के युद्ध में 17 दिसंबर 1398 ई. को तैमूर लंग ने महमूद तुगलक को परास्त किया। उसने 15 दिन तक दिल्ली में लूटपाट, हत्या, बलात्कार आदि किये। मार्च 1399 ई. में वह अपने देश के लिए लौट गया। परंतु 15 दिन के उस काल में उसने दिल्ली को नरमुंडों और कंकालों का बसेरा बना कर रख दिया था। 1405 ई. में उसकी मृत्यु हो गई थी। यह इतना क्रूर शासक था कि नरमुंडों के चुनवाने में उसे बहुत अच्छा लगता था। उसने भारत पर आक्रमण करने से पहले यह स्पष्ट कर दिया था कि” हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय हिंदुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है। जिससे इस्लाम की सेना को भी हिंदुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जाएँ।”

उसने लोनी में नर मुंडों के स्तूप चुनवाए थे। सरदारों ने 100000 हिंदुओं को गिरफ्तार कर लिया था। तब उसके सरदार ने उससे कहा था कि इन लोगों को यदि छोड़ा जाता है तो भी खतरनाक होगा और साथ ले चलना भी उचित नहीं होगा। इस पर वह स्वयं लिखता है-" इसलिए उन लोगों को सिवाय तलवार का भाजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैंप में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिए जाएँ और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे, उसे भी खत्म कर दिया जाए और उसकी संपत्ति सूचना देने वालों को दे दी जाए। जब इस्लाम के गाजियों को यह आदेश मिला तो उन्होंने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्तिपूजकों का कत्ल कर दिया गया।"

ऐसे अत्याचारी शासक के लिए मार्ग देने वाला अफगानिस्तान भी उसके अत्याचारों से उस समय पूर्णतः आतंकित था। अफगानिस्तान के हिंदुओं और बौद्धों ने उसके अत्याचारों को कितनी पीड़ा के साथ सहन किया होगा ? यह सब आज इतिहास के गहरे गड्ढे में दफन होकर रह गई बातें हैं।


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