त्रिगुणातीत से क्याअभिप्राय है ? ( भाग -2 )
रजोगुण की प्रधानता से कर्म तो करो क्योंकि रजोगुण से सुख की प्राप्ति होती है किन्तु उसमें फंसो मत जैसे कमल पानी में रहता किन्तु पानी से ऊपर रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आसक्ति में मत फंसो निरासक्त रहो, प्राणी मात्र अथवा मानवत के कल्याण के लिए सदैन तत्पर रहो, एक तपस्वी की तरह। इसका उदाहरण इतिहास में मिथिला नरेश महाराज जनक
को जीवन से लीजिए उनका व्याक्तिगत जीवन सरलता, सादगी,श्रम,संयम और विवेक से परिपूर्ण था किन्तु सार्वजनिक जीवन वैभव, ऐश्वर्य और मर्यादा से परिपूर्ण था। वे राजा होते हुए भी ‘विदेह’ कहलाते थे। वे योग और भोग दोनों की मर्यादा जानते थे। वे रागातीत और द्वेषातीत होने में सिध्द्धहस्त थे, निरासक्त, थे ईश्वरभक्त थे इसी लिए वे राजा होते हुए भी योगी कहलाते थे।
क्रमशः