- प्रशांत पोळ
आज से ठीक ७७ वर्ष पूर्व, चौदह दिनों के बाद आई हुई रात, यह विभाजन की रात थी। किसी समय अत्यंत शक्तिशाली, वैभवशाली और संपन्न रहे हमारे अखंड भारत के तीन टुकड़े हो गए थे। पवित्र सिंधु नदी हमें परायी हो गई। राजा दाहिर के पराक्रम की गाथा सुनाने वाला सिंध प्रांत हमसे छीन गया। हजारों वर्षों से वहां खेती / किसानी / व्यापार करने वाले हमारे लाखों सिंधी भाई – बहन, एक ही रात में विस्थापित हो गए. हरा – भरा – फला – फुला पंजाब भी आधा गया। गुरु नानक देव जी का जन्मस्थान, पवित्र ननकाना साहिब गुरुद्वारा भी गया। गुरुद्वारा पंजासाहिब भी गया। महाराजा रणजीत सिंह के पराक्रम की निशानियां जाती रही। देवी की शक्तिपीठों में से एक, पवित्र हिंगलाज देवी का मंदिर भी हमें पराया हो गया। पवित्र दुर्गा कुंड से सुशोभित, पूर्व का वेनिस कहलाने वाला, बंगाल का ‘बरिसाल’ हमसे छीन गया। ढाके की मां ढाकेश्वरी भी परायी हुई।
१२ लाख से १५ लाख लोगों की हत्या और डेढ़ करोड़ लोगों का विस्थापन करने वाला यह विभाजन क्यों हुआ..?
इस विभाजन का एकमात्र कारण था, अलग राष्ट्र का मुसलमानों का दुराग्रह और इस मांग को मनवाने के लिए किया गया ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ जैसा जघन्य हत्याकांड..!
१९४७ का विभाजन, सीधे-सीधे धार्मिक आधार पर था। मुसलमानो के लिए पाकिस्तान बना और वहां सारे मुसलमान जाएंगे ऐसा कहा गया। डॉ बाबासाहेब अंबेडकर जी ने जनसंख्या के अदला बदली की पुरजोर मांग रखी थी। किंतु गांधी जी और नेहरू के आग्रह के कारण, भारत के मुसलमानों को यहीं रहने के लिए कहा गया। पाकिस्तान में ऐसा हुआ नहीं। वहां ऐसा वातावरण बनाया गया कि सारे हिंदू वहां से पलायन करते गए। आज पाकिस्तान में बमुश्किल से १.९७% हिंदू बचे हैं, जो नरक से भी बदतर जीवन जी रहे हैं। यही हाल बांग्लादेश के हिंदुओं का है, जो मात्र ७.९% बचे हैं।
संक्षेप में पाकिस्तान (और बाद में टूट कर बना बांग्लादेश) तो मुस्लिम राष्ट्र बन गया, किंतु भारत यह हिंदू – मुस्लिम राष्ट्र बना रहा। धीरे-धीरे भारत में मुस्लिम आबादी बढ़ती गई और उनका प्रतिशत भी बढ़ता गया।
अगर यह मुस्लिम आबादी भारत की मुख्य धारा के साथ घुल-मिल जाती, भारत के पुरखों में अपने पुरखे ढूंढती, भारत की परंपराओं का सम्मान करती तो कोई प्रश्न नहीं खड़ा होता। इंडोनेशिया इसका जीता जागता प्रमाण है। विश्व की सबसे ज्यादा मुस्लिम जनसंख्या इंडोनेशिया में है। किंतु वहां का मुस्लिम, उस राष्ट्र की मुख्य धारा को अपना मानता है। वहां के पुरखों को, वहां की परंपराओं को अपना मानता है। उन पर गर्व करता हैं। इसलिए वहां के विद्यालय / विश्वविद्यालय के बाहर, देवी सरस्वती की भव्य प्रतिमाएं होती हैं। उनकी मुद्रा (नोटों) पर भगवान गणेश का चित्र रहता है। उनकी भाषा में ७०% संस्कृत शब्द रहते हैं।
दुर्भाग्य से भारत के मुसलमानों ने ऐसा नहीं किया। वह उन्हीं रास्तों पर चल रहे थे, जिन पर स्वतंत्रता से पहले मुस्लिम लीग चली थी। इसीलिए विभाजन के ७७ वर्षों के बाद, आज जो स्वर सामने आ रहे हैं, वह अत्यंत चिंताजनक हैं। स्वतंत्रता पूर्व वाली स्थिति में हम पहुंच रहे हैं क्या, ऐसा सोचने के लिए पर्याप्त प्रमाण मिल रहे हैं।
अभी २०२४ के चुनाव में जो चित्र सामने आया हैं, वह इस बात को और स्पष्ट करता है। इस चुनाव में मुसलमानों ने रणनीतिक (strategic) मतदान किया हैl उनके मुल्ला – मौलवियों के अत्यंत स्पष्ट निर्देश थे कि भारतीय जनता पार्टी के विरोध में मात्र मतदान नहीं करना हैं, तो भारतीय जनता पार्टी को जो हरा सकता हैं, उसी उम्मीदवार को वोट देना हैं। अर्थात, अगर कोई मुस्लिम प्रत्याशी भी मैदान में हैं, और वह भाजपा को हराने की क्षमता नहीं रखता है, तो उसे वोट नहीं देना हैं।
इस बार कांग्रेस के नेतृत्व वाली इंडी एलायंस के उम्मीदवारों को मुसलमानों ने जबर्दस्त समर्थन दिया। इसलिए धुले लोकसभा में, छह में से पांच विधानसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार १,९०,००० मतों से आगे थे। किंतु मुस्लिम बहुल मालेगांव (मध्य) इस एक विधानसभा क्षेत्र ने कांग्रेस के उम्मीदवार को १,९३,००० की लीड दी और भाजपा ३,००० मतों से परास्त हुई। यहां पर डॉ प्रकाश आंबेडकर के ‘वंचित बहुजन समाज आघाडी’ के जहूर अहमद मोहम्मद भी चुनाव मैदान में थे। किंतु उन्हें मुस्लिम वोटर्स ने सिरे से नकार दिया। उन्हें ५,००० वोट भी नहीं मिले। रणनीति के तहत, मुसलमानों ने अपने सारे वोट, कांग्रेस प्रत्याशी डॉक्टर श्रीमती शोभा बच्छाव को दिए और उनकी जीत सुनिश्चित की।
ऐसा देशभर, बहुतायत लोकसभा क्षेत्र में हुआ। स्वाभाविक था, कांग्रेस इसे फुली नही समा रही है। कांग्रेस के नेता, मुसलमानों के लिए ‘कुछ भी’ करने के लिए तैयार हैं।
और यहीं पर कांग्रेस भारी भूल कर रही हैं।
यही हुआ था स्वतंत्रता के पहले, तीस के दशक में, जब मुस्लिम तुष्टीकरण करने के कारण कांग्रेस को, और विशेषत: महात्मा गांधी जी को, यह लगता था कि मुस्लिम सारे कांग्रेस के साथ है, मुस्लिम लीग के साथ नहीं। प्रारंभ में मुस्लिम लीग ने भी यही गलतफहमी बनाए रखी। किंतु सही चित्र सामने आया, सन १९४५ के चुनाव में। इस बार, कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को काट देने के लिए, मौलाना अबुल कलाम आजाद को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था। उनकी अध्यक्षता में लड़े गए, मुस्लिम तुष्टिकरण से भरपूर, इस चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों से बहुत ज्यादा अपेक्षाएं थीं। किंतु कांग्रेस का दुर्भाग्य, मुसलमानों के लिए आरक्षित ३० में से एक भी सीट कांग्रेस को नसीब नहीं हुई। पूरे देश में मुसलमानों ने कांग्रेस को सिरे से नकार दिया और मुस्लिम लीग का ही पुरजोर समर्थन किया।
महात्मा गांधी जी की तो यह प्रबल इच्छा थी की स्वतंत्रता के पश्चात पाकिस्तान में रहने के लिए जाएं। (८ अगस्त, १९४७ के मुंबई के Times of India के समाचार का शिर्षक था – Mr Gandhi to spend rest of his days in Pakistan)। उनको लगता था कि वह पाकिस्तान के मुसलमानों का मत परिवर्तन कर सकते हैं। किंतु दुर्भाग्य से, पाकिस्तान के राष्ट्रपती जीना, प्रधानमंत्री लियाकत अली खान या बाकी बड़े राष्ट्रीय नेता तो दूर की बात, पाकिस्तान के किसी गली के, किसी छुटभैय्ये नेता ने भी, गांधी जी को पाकिस्तान में आमंत्रित नहीं किया। अर्थात मुसलमानों ने कांग्रेस को ‘यूज एंड थ्रो’ पद्धति से अपनाया था।
इस २०२४ के चुनाव में भी मुसलमानों ने इसकी झलक, कांग्रेस को दिखाई। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी, पश्चिम बंगाल के बहरामपुर से सन १९९९ से चुनाव जीतते आए हैं। यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। अर्थात यहां ५२% मुस्लिम वोटर हैं। अधीर रंजन चौधरी ने पिछले बीस – बाईस वर्षों में मुसलमानों के लिए, इस क्षेत्र में जो-जो बन सका, वह सब कुछ किया हैं। किंतु इस बार रणनीति के तहत, मुसलमानों ने, तृणमूल कांग्रेस के माध्यम से गुजरात के यूसुफ पठान को यहां से चुनाव लड़वाया। ‘मां – माटी – मानुष’ का नारा देने वाली तृणमूल कांग्रेस ने एक ऐसे प्रत्याशी को खड़ा किया, जिसे बंगाली का ‘ब’ भी नहीं आता था। किंतु मुस्लिम समुदाय की रणनीति एकदम स्पष्ट थी। कोई संभ्रम नहीं। कोई कंफ्यूजन नहीं। किंतु-परंतु भी नहीं। उन्हें इस बार बहरामपुर से मुस्लिम प्रत्याशी चुनकर लाना था, वह लाया। वह भी इतने वर्ष मुसलमानों की तरफदारी करते हुए, उनका तुष्टीकरण करते हुए राजनीति करने वाले अधीर रंजन चौधरी को हराकर..!
इन सब का अर्थ स्पष्ट हैं। हम शायद इतिहास को दोहराने वाले हैं। जो इस देश में १९३० – १९४० के दशकों में हुआ, वहीं अगले ५ -१० वर्षों में दोहराने की बात हो रही है। हलाल सर्टिफिकेट का आग्रह, सार्वजनिक स्थानों पर अलग प्रार्थना स्थल का आग्रह, सड़क पर नमाज का आग्रह, हिजाब का आग्रह… करते-करते, अलग ‘मुगलीस्तान’ के आग्रह तक, बात जाएगी यह दिख रहा हैं।
इस १४ अगस्त को, जब देश, ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ मना रहा होगा, तब यह प्रश्न हम सब के मन में कौंध रहा होगा, कि क्या हम एक और विभाजन की दिशा में बढ़ रहे हैं..?
– प्रशांत पोळ
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