त्याग एव तपस्या की मूर्ति आचार्य रामदेव जी

Acharya_Ramdev

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सत्यानुरागी, धर्मपरायण, अनथक परिश्रमी, निःस्वार्थ सेवी, विद्वान-व्याख्याता, प्रवक्ता, उपदेशक, अधिष्ठाता, भारतीय स्वराज्य आन्दोलन के सहयोगी, त्याग एव तपस्या की प्रतिमूर्त्ति आचार्य रामदेव जी आर्यसमाज एवं गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अनन्य प्रचारक थे। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने अगर गुरुकुल रूपी पौधे को लगाया था तो आचार्य रामदेव ने उसे अपने लहू से सींचकर वट वृक्ष में परिवर्तित किया था। जीवन के कुछ पहलुओं पर विचार करने से आपकी महानता का आभास हो जाता है।
(1) नारी जाति उद्धारक-

आचार्य जी जब डी0ए0वी0 कॉलेज लाहौर में पढ़ते थे, तब उनका छोटी आयु में विवाह हो गया। आपके मन में नारी-जाति के कल्याण की तीव्र भावना थी इसलिए आपने अपनी पत्नी को जालंधर स्थित कन्या पाठशाला में पढ़ने भेजा। परिवार के विरोध के बावजूद आप अडिग रहे। मुसलमानों के राज्य में हिंदुओं ने पर्दा रूपी कुरीति को अपना लिया था। आप इस अत्याचार के विरुद्ध थे। आपने अपने मित्रों को बुलाकर अपनी स्त्री से उनका परिचय पर्दा हटाकर करवाया। उस समय यह अत्यंत क्रांतिकारी कदम था। आपके पिताजी ने रुष्ट होकर आपको घर से निकाल दिया। इधर कॉलेज में महात्मा हंसराज ने, जो आपके मौसेरे भाई थे, कॉलेज शिक्षा पद्धति का विरोध करने व गुरुकुल पद्धति का समर्थन करने पर आपको कॉलेज से निष्कासित कर दिया।
घर व कॉलेज दोनों से निकाल दिए जाने पर आप एक पेड़ के नीचे निराश बैठ गये। तब स्वामी श्रद्धानंद जी ने उन्हें सहारा दिया। इन्हीं आचार्य रामदेव ने पहले गुरुकुल कांगड़ी एवं तत्पश्चात् कन्या गुरुकुल देहरादून के माध्यम से हजारों छात्र-छात्राओं के जीवन का उद्धार किया।
(2) गुरुकुल कांगड़ी व गुरुकुल देहरादून के प्राण

स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज के आह्वान पर आपने गुरुकुल कांगड़ी में सर्वप्रथम आचार्य एवं बाद में अधिष्ठाता के रूप में बागडोर संभाली। गुरुकुल में उस समय की व्यवस्था पुरातन पाठशालाओं के समान थी। आपके उसे बदलकर समय पर घंटियाँ लगाकर उसे व्यवस्थित किया। गुरुकुल पुस्तकालय को समृद्ध किया। जब गंगा की बाढ़ में गुरुकुल भवन को क्षति पहुँची तो अफ्रीका जाकर आप एक लाख का चंदा करके लाये जिससे भवन का निर्माण हो सके। विभिन्न पाठ्यक्रमों की पुस्तकें आपने स्वयं लिखी जिसे विद्यार्थियों को पढ़ाया जा सके।
आपको कोल्हापुर विश्वविद्यालय से 650/- मासिक का निमंत्रण मिला पर आप उसे अस्वीकार कर मात्र 75/- मासिक पर निर्वाह करते रहे, क्योंकि आपका उद्देश्य धनार्जन नहीं बल्कि आर्ष विद्या का पुनरुद्धार था। अंत समय में आपका पूरा ध्यान गुरुकुल देहरादून की स्थापना व विकास पर लगा था। रोगी होते हुए भी आपको सदैव गुरुकुल की उन्नति की चिंता रहती थी। यही चिंता समय से पूर्व आपकी मृत्यु का कारण बनी थी।
(3) साहित्य क्षेत्र में
आपने भारत के स्कूल-कालिजों में पढ़ाये जाने वाले इतिहास का विश्लेषण किया तो उसे सत्यानुरूप नहीं पाया। वह विद्यार्थियों को यही सिखलाता था कि प्राचीन आर्य असभ्य और जंगली थे, वेद गडरियों के गीत थे– इत्यादि। आपने ‘भारतवर्ष का इतिहास’ के नाम से पुस्तक की रचना विद्यार्थियों को भ्रमित होने से बचाया। पं0 जयदेव शर्मा विद्यालंकार की सहायता से ‘पुराण-विमर्श’ नामक एक विशाल ग्रंथ प्रकाशित करवाया। विकासवाद के खण्डन में पुस्तिका लिखी। आपके लेखों का संग्रह राजपाल एण्ड सन्स ने प्रकाशित करवाया था।
गुरुकुल कांगड़ी से उस समय ‘‘वैदिक मैगजिन’’ के नाम से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका अंग्रेजी में प्रकाशित होती थी जिसमें आप और आर्यजगत् के मूर्धन्य विद्वान पं0 चमूपति जी का परिश्रम सम्मिलित होता था। इस पत्रिका में श्रीमती एनी बीसेन्ट, डॉ0 भगवानदास, साधु वास्वानी, डॉ0 विनयकुमार सरकार, डॉ0 राधा कुमुद मुखर्जी, डॉ0 अविनाश चंद्र दास, लाला हरदयाल, प्रो0 फणीन्द्रनाथ, श्री गंगाप्रसाद जी जज, डॉ0 बालकृष्ण जी, प्रो0 ताराचंद जी गाजरा, प्रो0 विनायक गणेश साठे, योगी अरविंद, दीनबंधु सी0 एफ0 एन्ड्रयूज, मामरन फेल्पस, पाल रिचार्ड, एफ0टी0 बुक इत्यादि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों के लेख छपते थे। महान लेखक टालस्टाय के वानप्रस्थ जीवन के आर्य आदर्श के प्रति आकृष्ट होने का माध्यम यही पत्रिका बनी थी। आर्य सिद्धांतों के विश्व व्यापी प्रचार में इस पत्रिका को योग को हमेशा स्मरण किया जायेगा।
(4) आर्यसमाज और सत्यार्थप्रकाश
सन् 1909 में पटियाला में आर्यों पर सरकारी अत्याचार टूट पड़ा। आर्यों को बिना कारण जेल में डाल दिया गया। आप स्वामी श्रद्धानंद से बोले- अगर मैं बैरिस्टर होता तो अभी पटियाला जाकर सरकार के इस अत्याचार का सामना करता। स्वामीजी तत्काल पटियाला जाकर आर्यसमाज के लिए कोर्ट में वकील बनकर पेश हुए व आर्यों को बरी करवाया। स्वामीजी ने इंग्लैण्ड में भारतीय मसलों को देखने वाले वार्ड मोरले के नाम एक सन्देश प्रकाशित किया जिसमें आर्यसमाज को राजनैतिक संस्था नहीं, अपितु सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करने वाली संस्था सिद्ध किया गया था।
इसी के साथ आपने 300 पृष्ठ के एक विशाल ग्रंथ । आर्यसमाज एंड इट्स विंदीकेशन अर्थात आर्यसमाज और उसके निंदक प्रकाशित किया जिसमें पटियाला राज्य एवं अंग्रेजी सरकार द्वारा आर्यसमाज पर किये गये अत्याचार, पटियाला अभियोग आदि के संबंध में आर्यसमाज के पक्ष को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से रखकर आर्यसमाज की रक्षा की।
सन् 1909 के नवम्बर मास में लाहौर बच्छेवाली आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर जब ऐसा प्रतीत होता था कि सरकार सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबंध लगा देगी तब आपने भाषण में कहा-‘‘भारतवर्ष पर आक्रमण करने वाले मुस्लिम राजाओं ने कई बार इस देश के बड़े-बड़े पुस्तकालयों को जलाकर खाक में मिला दिया और सैंकड़ों आर्य विद्वानों को मृत्यु के विकराल मुख में झोंक दिया तो भी हमारे पूर्वजों ने वेद शास्त्र तथा अन्य वैदिक साहित्य को नष्ट नहीं होने दिया था। उन्होंने वंश परम्परा से वेदों को कण्ठ करके उनकी रक्षा की थी। हम उन्हीं आर्यो के वंशज है। हम भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की एक-2 पंक्ति कंठ कर लेंगे और उसे नष्ट न होंने देंगे। सरकार का कानून कागज पर छपी हुई पुस्तक को जब्त कर सकता है, आर्यों के हृदयों में सुरक्षित उनके ज्ञान को नहीं।’’ आचार्य जी की दहाड़ ने आर्यों के मनों में उत्साह भर दिया एवं आर्यसमाज व सत्यार्थप्रकाश की रक्षा हुई।
(5) जीवन की कुछ झलकियाँ-
पश्चिम की होली:
आपके गुरुकुल कांगड़ी स्थित पुस्तकालय में आग लग गई। आप मोहग्रस्त होकर घबराए नहीं अपितु बोले- इन पुस्तकों में अधिकांश पाश्चात्य लेखकों द्वारा लिखी हुई थीं। देखो, पश्चिम की कितनी शानदार होली जल रही हैं।
घर में चोर:
एक रात एक चोर उनके घर में घुसा। आपकी नींद खुल गई। आपने चोर को पुकारकर कहा-भाई, लालटेन इधर पड़ी है, इसे जला लो। घर को खूब अच्छी तरह देख लो। इसमें कहीं कुछ हो तो मुझे भी बता देना। यदि पुस्तकें पढ़ने की जरूरत हो तो उन्हें ले जा सकते हो।
प्रेमचन्द चकित रह गए:
एक बार गुरुकुलीय साहित्य परिषद् के जन्मोत्सव पर सभापति पद के लिए श्रीयुत प्रेमचंद जी (हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार) को निमंत्रित किया गया। स्वागताध्यक्ष के स्थान पर श्री आचार्य जी आसीन थे। आचार्य जी ने अपने स्वागत-भाषण में एक सिरे से यूरोपियन भाषाओं के कहानी-साहित्य और उपन्यास साहित्य की ऐसी विशद कहानी कह डाली कि प्रेमचंद जी विस्मय विमूढ़ रह गए। वे बोले कि आचार्य जी ने जितने कृतिकारों की रचनाओं की मीमाँसा और चर्चा अपने भाषण में की है उनमें से एक दर्जन साहित्यकारों के तो मैं नाम तक नहीं जानता- उनकी कृतियों का पढ़ना तो दूर की बात है। अंत में प्रेमचंद जी केवल विख्यात फ्रेंच लेखक विक्टर ह्यूगों के ‘‘ला मिजरेवल’’ की कहानी सुनाकर रह गए। और जब प्रेमचंद जी को यह ज्ञात हुआ कि उपन्यासों का अध्ययन तो आचार्य जी के लिए एक बहुत गौण सा विषय है, तब तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
ऐसी महान विभूति जिनके परिश्रम का फल सुदृढ़ गुरुकुल कांगड़ी व गुरुकुल देहरादून के रूप में देख सकते हैं। आचार्य जी आज हमारे बीच नहीं है, पर उनसे प्रेरणा लेकर आर्य सर्वदा आगे बढ़ते रहेंगे, यही हमारी इच्छा है।

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