कृष्णा कुमारी मीणा
अजमेर, राजस्थान
“मैंने 12वीं तक विज्ञान विषय से पढ़ाई की है. फिर घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण रोज़गार की तलाश करने लगा. लेकिन मुझे कहीं भी नौकरी नहीं मिली. जिसके बाद मुझे मार्बल फैक्ट्री में मज़दूर के रूप में काम करना पड़ रहा है. रोज़गार की तलाश में कहीं भी जाता था तो मायूसी ही हाथ लगती थी. इसलिए अब मैंने अपनी डिग्री के आधार पर रोज़गार की तलाश छोड़ कर मज़दूरी से ही जुड़ गया हूं. कम से कम इससे आमदनी तो हो रही है और मैं अपने परिवार को पालने में सक्षम तो हूं.” यह कहना है 26 वर्षीय राजकंवर दौसा का, स्नातक पास राजकंवर राजस्थान के धुवालिया नाडा गांव का रहने वाला है. यह गांव अजमेर से लगभग 15 किमी दूर स्थित है. करीब 650 लोगों की आबादी वाले इस गांव में लगभग 100 घर हैं. जिनमें भील, रेगर और मुस्लिम परिवारों की संख्या अधिक है. इस गांव में रोज़गार सबसे बड़ा मुद्दा है. कुछ ही परिवार ऐसे हैं जो स्थाई रूप से रोज़गार से जुड़े हुए हैं.
गांव के 45 वर्षीय तोलाराम बताते हैं कि उनके परिवार में 6 सदस्य हैं. जिनके भरण पोषण की ज़िम्मेदारी उनके कंधो पर है. जिसके लिए वह स्थानीय मार्बल फैक्ट्री में सुपरवाइज़र के रूप में काम करते हैं. वह बताते हैं कि उन्होंने स्नातक तक शिक्षा प्राप्त की है और इस आधार पर कई बार सरकारी नौकरी के लिए आवेदन भी भरा. लेकिन जब नौकरी नहीं लगी तो उन्होंने मार्बल फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया. तोलाराम बताते हैं कि वह आर्थिक रूप से काफी कमज़ोर हैं. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह कोई स्वरोज़गार कर सकते थे. इसलिए उन्होंने प्राइवेट नौकरी करना ही बेहतर समझा. वह बताते हैं कि गांव के बहुत सारे युवा ऐसे हैं जो अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिल रहा है. वह बताते हैं कि रोज़गार के साथ साथ गांव में कई प्रकार की बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है. जिसका नकारात्मक प्रभाव भी गांव के विकास पर पड़ता है. गांव में आज तक पक्की सड़क नहीं बन सकी है. जिसके कारण यहां परिवहन की बहुत बड़ी समस्या आती है. गांव से शहर आने जाने के लिए किसी प्रकार का ऑटो या अन्य साधन उपलब्ध नहीं है. ऐसे में रोज़गार करने वालों को भी कठिनाइयों का सामना रहता है. प्रतिदिन अजमेर शहर जाकर नौकरी अथवा मज़दूरी करने वालों को प्रतिदिन गांव से डेढ़ किमी पैदल चल कर मुख्य सड़क तक पहुंचना होता है, जहां से शहर जाने के लिए गाड़ियां उपलब्ध होती हैं. वह कहते हैं कि यदि गांव में पक्की सड़क का निर्माण हो जाता तो आवागमन की सुविधा हो जाती जिससे रोज़गार करने वालों को आसानी होती.
स्नातक अंतिम वर्ष की छात्रा 21 वर्षीय कुसुम कहती है कि धुवालिया नाडा के अधिकतर युवा या तो प्राइवेट जॉब करते हैं या फिर बाहर जाकर मज़दूरी करते हैं क्योंकि गांव में कृषि के लायक सभी के पास पर्याप्त ज़मीन भी नहीं है और स्वरोज़गार का भी विकल्प नज़र नहीं आता है. वह कहती है कि जल्द ही उसका ग्रेजुएशन पूरा होने वाला है. इस आधार पर वह पिछले कुछ महीनों से लगातार नौकरी के लिए प्रयास कर रही है. लेकिन अभी तक उसे सफलता नहीं मिली है. कुसुम कहती है कि गांव में लड़कों के साथ साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी ज़ोर दिया जाता है. इसलिए यहां सभी बच्चे स्कूल जाते हैं. लेकिन पढ़ लिख कर रोज़गार के लिए भटकते नज़र आते हैं. फिर वह या तो फैक्ट्रियों में काम करने लग जाते हैं या फिर किसी निजी संस्था में बहुत कम तनख्वाह पर काम करते हैं. वह कहती है कि गांव में स्वरोज़गार के विकल्प नहीं है. इसीलिए युवा अपना रोज़गार शुरू करने के स्थान पर कहीं नौकरी करते हैं. यदि सरकार और संबंधित विभाग की ओर से गांव में ही स्वरोज़गार के विकल्प उपलब्ध कराये जाएं तो बहुत सारे युवा विशेषकर किशोरियों के सशक्तिकरण की दिशा में बहुत सार्थक पहल होगी. अभी गांव की लड़कियां स्वरोज़गार के नाम पर कपड़े सिलाई करती हैं. लेकिन इससे उन्हें बहुत अधिक लाभ नहीं मिलता है. यदि उन्हें रोजगार से जुड़े कौशल प्रशिक्षण दिए जाएं तो वह गांव में ही रहकर आर्थिक रूप से मज़बूत बन सकती हैं.
एक अन्य युवा 32 वर्षीय जयराम रेगर कहते हैं कि उन्होंने कहीं नौकरी करने से बेहतर कृषि कार्य को प्राथमिकता दिया था और ज़मीन के छोटे टुकड़े पर खेती शुरू की थी, जो उनकी पारिवारिक ज़मीन है. लेकिन कभी सिंचाई तो कभी बीज या मार्केटिंग की समस्या आती थी. जिससे उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था. यही कारण है कि अब उन्होंने इसे छोड़ कर नौकरी करने की सोची है. हालांकि अब उन्हें रोज़गार ढूंढने में काफी कठिनाई आ रही है. वह कहते हैं कि “गांव में रहकर यदि स्वरोज़गार का कोई माध्यम उपलब्ध हो जाए तो उनके लिए बहुत अच्छा होगा. लेकिन उन्हें नहीं पता कि इसके लिए वह क्या करें? उन्होंने बताया कि केंद्र और राजस्थान सरकार की ओर से स्वरोज़गार से जुड़ी कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसके लिए सरकार आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है. लेकिन इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है. एक अन्य युवा 12वीं पास मुकेश कहते हैं कि ‘पढ़ाई के बाद जब रोज़गार का कोई साधन उपलब्ध नहीं हुआ तो उन्होंने फैक्ट्री में काम शुरू किया है. इसके लिए उन्हें प्रतिदिन अजमेर शहर जाना पड़ता है. जिसमें उनके काफी पैसे खर्च हो जाते हैं. लेकिन उनके पास रोज़गार का कोई अन्य विकल्प नहीं है. वह कहते हैं कि पशुपालन के लिए भी आर्थिक सहायता की ज़रूरत होती है. इसके लिए उन्होंने बैंक से लोन लेने का भी प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुए.
हालांकि केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की ओर से युवाओं को रोज़गार से जोड़ने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. राजस्थान सरकार की ओर से मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना की शुरुआत की गई है. इसके तहत राज्य के बेरोजगार युवाओं को रोजगार शुरू करने के लिए बैंक से लोन दिया जाता है इसमें सब्सिडी भी उपलब्ध कराया जाता है. इस योजना में सरकार द्वारा व्यवसाय के आधार पर 25 लाख रुपए से लेकर 10 करोड़ रुपए तक लोन दिया जाता है. योजना के तहत उपलब्ध कराए जाने वाला लोन बैंकों के माध्यम से दिया जाता है. इसमें सरकार द्वारा सब्सिडी भी दी जाती है ताकि युवाओं को ऋण चुकता करने में कोई मानसिक दबाव न पड़े. इसके अतिरिक्त इस वर्ष के केंद्रीय बजट में भी ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर भी खास फोकस करते हुए रोज़गार सृजन की बात की गई है. इसके लिए स्किल डेवलपमेंट से लेकर एजुकेशन लोन, अप्रेंटिसशिप के लिए इंसेंटिव, ईपीएफ में अंशदान के साथ पहली नौकरी पाने वालों के लिए सैलरी में योगदान और न्यू पेंशन सिस्टम के लिए योगदान में बढ़ोतरी जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं.
दरअसल हमारे देश में रोजगार एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है. देश के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर रोजगार की काफी कमी है. यही कारण है कि इन क्षेत्रों से लोगों की एक बड़ी संख्या बड़े महानगरों और औद्योगिक इलाकों में रोज़गार के लिए पलायन करती है. हालांकि ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के रूप में मनरेगा एक महत्वपूर्ण साधन है. लेकिन स्वरोज़गार इस दिशा में एक अहम कड़ी साबित हो सकता है. वहीं सेल्फ हेल्प ग्रुप भी गांवों में रोज़गार उपलब्ध कराने का सबसे सशक्त माध्यम है. ज़रूरत इस बात की है कि युवाओं को इससे जोड़ा जाए, उन्हें आसानी से लोन उपलब्ध कराया जाए और इस दिशा में उनका मार्गदर्शन किया जाए. यदि गांवों तक रोज़गार को पहुंचाया जाए तो न केवल ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक रूप से सशक्त होगा बल्कि शहरों और महानगरों पर पड़ने वाला बोझ भी कम होगा. (चरखा फीचर)