आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
कांवड़ यात्रा सावन का विशेष आयोजन
सावन माह में शिव भक्त गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी जलाशय के तट पर कलश में गंगाजल भरते हैं और उसको कांवड़ पर बांध कर कंधों पर लटका कर अपने अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और जीवन के सभी संकटों को दूर करते हैं।
पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सहज रास्ता है। कांवड़ धारी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की कठिन से कठिन बाधाओं को पार कर लेता है। कांवड़ लाने वाले भक्तों को कांवड़िया और भोला कहा जाता है। यह कावड़ आम या सेमला के पेड़ों की लकड़ी से बनाए जाते हैं। कावड़ बनाने वाले में बढ़ई और कलाकार दोनों के कौशल का मिश्रण होता है। दो मटकियों में किसी नदी या पवित्र सरोवर का जल भरा जाता है और फिर उसे आपस में बंधी हुई बांस की तीन स्टिक पर रखकर उसे बांस के एक लंबे डंडे पर बांधा जाता है। इस अवस्था में आकृति किसी तराजू की तरह हो जाती है। आजकल तांबे के लोटे में जल भरकर इसे कंधे पर लटकाकर यात्रा की जाती है। इस दंड में दोनो छोर पर जल के दो घड़े या पात्र (डिब्बे या बोतल) टांग लेता है। एक तरफ पानी और दूसरे तरफ यात्री का अन्य सामान्य भी हो सकता है। कावड़ , पवित्र नदियों से पानी ले जाने के लिए टोकरियों के रूप में हो सकता है। लोग कावड़ लेकर शिव भगवान की यात्रा करने जाते हैं। लोग भगवान शिव की तीर्थ यात्रा के लिए पवित्र नदियों से जल ले जाने के लिए टोकरियों का उपयोग करते हैं।
हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। कांवड़ यात्रा हमेशा सावन के पहले सोमवार से शुरू होती है, वहीं समापन ऐसे दिन पर करते हैं जब दिन सोमवार, प्रदोष या शिवरात्रि हो।
हाथरस यू पी का परसरा परंपरागत कावड़ वाला गांव है
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पूर्व अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. ज्ञानेंद्र श्रीवास्तव ने इस गांव का सर्वेक्षण अपने आगरा के कार्यकाल में किया था। उनकी विवेचना के अनुसार ,
“ परसरा बस्ती के लोगों को बाबाजी और जोगी भी कहते हैं। इनकी छोटी छोटी मढ़ियाँ भी होती हैं। ये लोग काँवड़ लेकर चलते रहते हैं। सावन में विशेषकर इनके साथ और लोग भी जल लेने और जगह जगह थानों और शिवालयों में चढ़ाने जाते हैं । उस समय वहाँ उनके 18-20 घर थे किंतु अधिकांश लोग बाहर गये हुये थे।
प्राचीन काल से योगी या जोगी ( योग साधना करने वाले), यति (जती ईश्वरोपासना के यत्न या जतन करने वाले), तपस्वी या तपसी ( तप या तपस्या करने वाले जिसमे व्रत, उपवास,आसन, शयन,एकांतवास, ठंढ या ताप सहने की अनेकानेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।), मुनि ( मौन साधक) आदि ईश्वरोपासक संप्रदायों की परंपरा रही है। यह भारतवर्ष की विशेषता रही है कि सामान्य जन सदैव इनसे जुड़कर इनकी देखभालएवं सुविधा का ध्यान रखता रहा है । सामान्य जन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये जोगी -जती आदि साधकों के साथ मिलकर उनके समारोहों को भी भव्य बनाता रहा है और इसी क्रम में वह इनके साथ यात्रा आदि पर भी निकलने लगा तथा अन्य तीर्थों का भ्रमण कर साधु-संतों के दर्शन तथा तीर्थयात्रा का प्रसाद लेने लगा।
शैव धर्म में कालांतर में इसमें पाशुपत, कापालिक, मत्तमयूर , अघोरादि पाँच व्यवस्थित साधना वाले सम्प्रदाय विकसित हुये। पाशुपत सम्प्रदाय का उत्थान गुजरात के आचार्य लकुलीश की महत्ता से हुआ जो ओडिसा से लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैल गया । इसी सम्प्रदाय में आचार्य पराशर नामक महान् शैवाचार्य हुये जिनके नाम से पाराशरेश्वर नामक अनेकानेक शिवमंदिर भी मिलते है एवं परसरा , परसौंजा आदि अपभ्रंश नामों वाले सेटलमेंट या गांव भी मिलते हैं जो इस संप्रदाय के अनुसरण करने वालों के जीवंत केंद्र थे। समय के साथ यद्यपि विशिष्ट साधना सम्प्रदाय ओझल हो गये किंतु लोकमत में उनकी मान्यता बनी रही और यह सब मनुष्य की जीवन शैली में रच बस गया। इस प्रकार रुद्र या शिव के जलाभिषेक हेतु कांवड़ यात्रा लोकजीवन का अभिन्न अंग बन गयी। “
जल की यात्रा का पर्व
श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु – पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है ।
कावड़ यात्रा का इतिहास
हिंदू पुराणों में कांवड़ यात्रा का संबंध दूध के सागर के मंथन से है। जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो शिव ने विष को अपने अंदर ले लिया। लेकिन, इसे अंदर लेने के बाद वे विष की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। अन्य जगह रावण द्वारा देवघर में वैद्यनाथ में जल अर्पण का विवरण मिलता है।धार्मिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीने से शिवजी का गला जलने लगा था। इस स्थिति में देवी- देवताओं ने गंगाजल से प्रभु का जलाभिषेक किया, जिससे प्रभु को विष के प्रभाव से मुक्ति मिल गई। ऐसा माना जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।
सृष्टि की मान्यताओं का अंकन
प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।
कांवड़ के चार प्रकार
कांवड़ मुख्यत: चार प्रकार की होती है और हर कांवड़ यात्रा के नियम और महत्व अलग होते हैं। इनमें सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़, दांडी कांवड़ हैं। जो व्यक्ति जैसी कांवड़ लेकर जाता है, उसी हिसाब से तैयारियां भी की जाती है।
- सामान्य कांवड़
सामान्य कांवड़ यात्रा के लिए कांवड़िये रास्ते में आराम करते हुए यात्रा करते हैं और फिर अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं। इसके नियम बेहद सहज और सरल है। इसकी सबसे अच्छीा बात है कि कांवड़ियां बीच रास्ते में कभी भी आराम कर सकता है और फिर यात्रा शुरू कर सकता है।
2.डाक कांवड़
डाक कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़िये नदी से जल लेकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने तक लगातार चलना होता है। एक बार यात्रा शुरू करने के बाद जलाभिषेक के बाद ही यात्रा खत्म की जाती है। शिव मंदिरों में जलाभिषेक के लिए विशेष व्यवस्था भी की जाती है। इसके नियमों का पालन करने के लिए शिव भक्त को बहुत मजबूत बनना पड़ता है, क्योंकि इस यात्रा में कांवड़ को पीठ पर ढोकर लगातार चलना पड़ता है।
- खड़ी कावड़
खड़ी कावड़ यात्रा सामान्य यात्रा से थोड़ी मुश्किल होती है। इस कांवड़ यात्रा में लगातार चलना होता है। इसमें एक कांवड़ के साथ दो से तीन कांवड़िएं होते हैं। जब कोई एक थक जाता है, तो दूसरा कांवड़ लेकर चलता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यात्रा में कांवड़ को नीचे जमीन पर नहीं रखते। इसी कारण इसे खड़ी कांवड़ यात्रा कहते हैं।
4.दांडी कांवड़
दांडी कांवड़ को सबसे कठिन यात्रा माना जाता है। इसमें कांवड़िए को बोल बम का जयकारा लगाते हुए दंडवत करते हुए यात्रा करते हैं। कांवड़िए घर से लेकर नदी तक और उसके बाद जल लेकर शिवालय तक दंडवत करते हुए जाते हैं। इसमें सामान्य कांवड़ यात्रा से काफी समय लगता है।
कांवड़ यात्रा की परंपरा
1.सभी देवों द्वारा शिव जी का अभिषेक
कांवड़ यात्रा को लेकर प्रथम मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान जब महादेव ने हलाहल विष का पान कर लिया था, तब विष के प्रभावों को दूर करने के लिए भगवान शिव पर पवित्र नदियों का जल चढ़ाया गया था। ताकि विष के प्रभाव को जल्दी से जल्दी कम किया जा सके। सभी देवता मिलकर गंगाजल से जल लेकर आए और भगवान शिव पर अर्पित कर दिया। उस समय सावन मास चल रहा था। मान्यता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो गई थी।
2.परशुराम द्वारा पुरा महादेव जी का अभिषेक
मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। परशुराम गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर आए थे और यूपी के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का गंगाजल सेअभिषेक किया था। उस समय सावन मास ही चल रहा था, इसी के बाद से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई। आज भी इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। लाखों भक्त गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर जाते हैं और पुरा महादेव पर जल अर्पित करते हैं।
- रावण द्वारा भी पुरा महादेव जी का अभिषेक
प्राचीन ग्रंथों में रावणको पहला कांवड़िया बताया है। समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया था, तब भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वे तभी से नीलकंठ कहलाए थे। लेकिन हलाहल विष के पान करने के बाद नकारात्मक शक्तियों ने भगवान नीलकंठ को घेर लिया था। तब रावण ने महादेव को नकारात्मक शक्तियों से मुक्त के लिए रावन ने ध्यान किया और गंगा जल भरकर ‘पुरा महादेव’ का अभिषेक किया, जिससे महादेव नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त हो गए थे। तभी से कांवड़ यात्रा की परंपरा भी प्रारंभ हो गई।
- श्रवण कुमार माता पिता के साथ हरिद्वार से कावड़ लाया गया
कुछ विद्वान का मानना है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा पर लेजाने के लिए कांवड़ बैठया था। श्रवण कुमार के माता पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी, माता पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार कांवड़ में ही हरिद्वार ले गए और उनको गंगा स्नान करवाया। वापसी में वे गंगाजल भी साथ लेकर आए थे। बताया जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी।
- रावन द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
जनश्रुति एवं पुराणों के अनुसार भगवान शिव को खुश करने के लिए लंकेश्वर रावण ने हरिद्वार से कांवर में जल लाकर बाबा बैद्यनाथ पर जलार्पण किया था।
- भगवान राम द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे।भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजलभरकर देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था। उस समय सावन मास चल रहा था।राज्याभिषेक के पश्चात राम अपनी पत्नी सीता एवं तीनों भाईयों के साथ देवघर आए थे और बाबा बैद्यनाथ पर जलाभिषेक किए थे।
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