साहित्य समाज का दर्पण है। जिस प्रकार का समाज होगा, साहित्य भी उसी प्रकार रचा जाएगा। दलित चेतना का काल हम रामायणकाल से ही मान सकते हैं, हालांकि उस समय दलितों के पक्ष में कोई खास नहीं लिखा गया और जो लिखा भी गया, वह आज की भांति न तो पैना था और न ही दलितों की पीड़ा को उकेरने वाला।
आजकल कतिपय व्यक्तियों द्वारा जातिगत आधार पर मुंशी ‘प्रेमचंद’ के साहित्य को दलित विरोधी बताए जाने की धृष्टता की जा रही है। दरअसल साहित्य में नकारे गए निराश, हताश एवं कुंठित ये वे व्यक्ति हैं जो साहित्य में भी ‘आरक्षण’ चाहते हैं। ये दलितों के नाम पर ‘साहित्य अकादमी’ बनाकर न केवल शासकीय अनुदान हड़प रहे हैं, वरन् अकादमी की फैलोशिप तथा विभिन्न पारितोषिक एवं प्राइज देने के नाम पर अलंकरण स्वीकारने वालों से, उसके बदले मोटी धनराशि ऐंठते हैं। वस्तुत: ये कथित साहित्यकार संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त हैं। ये जाति विशेष को ‘दलित’ एवं जाति विशेष के लेखन को ही ‘दलित साहित्य’ मानते हैं, जबकि समाज के दबे, कुचले, शोषित, प्रताडि़त, प्रवंचित एवं उत्पीडि़त सभी दलित हैं। यदि सूक्ष्मता से देखें तो मुंशी प्रेमचंद का संपूर्ण ‘साहित्य’ दलितों के संघर्ष की गाथा है।
मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि दलित लेखन केवल दलित कुलोत्पन्न व्यक्ति ही कर सकता है। हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने से यह बात सहज ही सामने आ जाती है कि अन्य वर्गों/जातियों में उत्पन्न व्यक्तियों ने भी दलितों की पीड़ा को महसूस किया और उन्होंने उनकी पीड़ा मुखरित कर वाणी प्रदान की। यह माना जा सकता है कि दलितों की पीड़ा दलित लेखक अच्छी तरह से मुखरित कर सकता है, क्योंकि वह स्वयं भुक्तभोगी होता है। किंतु चूंकि लेखक/साहित्यकार अपने आप में संवेदनशील एवं दूसरों के दर्द को समझने एवं महसूस करने की अतिरिक्त शक्ति रखता है, इसलिए वह किसी भी समाज या व्यक्ति की पीड़ा को उसी तीव्रता /शिद्ïदत से उठा सकता है, जैसे कि कोई सजातीय लेखक। यों तो अनेक लेखकों ने दलितों पर उपन्यास, कहानियां, संस्मरण, रिपोतार्ज आदि लिखे हैं किंतु मैं यहां पर केवल मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में दलित चेतना का ही उल्लेख कर रहा हूं।
प्रेमचंद जी को उपन्यास सम्राट कहा जाता है, किंतु उन्होंने अनेक कहानियां भी लिखी हैं, जिनमें दलितों की पीड़ा मुखरित हुई है। उनके उपन्यास ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’ तथा ‘गोदान’ तो उल्लेखनीय हैं ही, उनकी अनेक कहानियां भी ऐसी हैं जो आज भी दलितों को वाणी प्रदान करने में सक्षम हैं। कमेरे और लुटेरे की लड़ाई को स्पष्ट करते हुए मुंशी प्रेमचंद ‘महाजनी सभ्यता’ में लिखते हैं, ‘मनुष्य समाज दो भागों में बंट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने वश में किए हुए। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की रियायत नहीं। इनका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाएं, खून गिराएं और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाएं।‘
प्रेमचंद की एक कहानी का नाम है ‘सद्गति’ जिस पर सत्यजित रे ने टेलीफिल्म भी बनाई थी। कहानी में एक दलित अपनी पुत्री का लग्न निकलवाने पंडित के घर जाता है। पंडित उसे लकड़ी फाडऩे के काम में लगा देता है। वह दलित सारा दिन भूखा-प्यासा वहां लकड़ी फाड़ता रहता है और अंतत: वहीं पर उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। अब प्रश्न उसके अंतिम संस्कार का आता है। दलित लोग उसके शव को इसलिए नहीं छूते कि वह पंडित के यहां मरा था और पंडित महाराज उसे अछूत होने के कारण स्पर्श करना गंवारा नहीं करते। अंतत: किसी प्रकार पंडित महोदय उसके पैर में रस्सी बांधकर उसके शव को जंगल में फैंक आते हैं। ‘सद्गति’ में एक ब्राह्मण द्वारा एक दलित का शोषण किस प्रकार किया जाता है, यह बात बड़ी तीव्रता/शिद्दत से प्रेमचंद ने उठाई है।
‘ठाकुर का कुआ’ में प्रेमचंद ने छुआछूत की भावना को इतनी गहराई से उकेरा है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। दलितों के पीने का पानी प्रदूषित है। एक दलित युवक बीमार है। यदि उसे शुद्ध पेयजल मिल जाए तो उसके स्वस्थ होने की आशा बंध सकती है, किंतु गांव में शुद्ध पेयजल का केवल एक ही साधन है और वह है ठाकुर का कुंआ। अब उस कुएं से पानी कैसे आए। उस युवक की मां रात्रि का इंतजार करती है और रात के अंधेरे में ठाकुर के कुएं से चोरी से पानी भरने का प्रयास करती है। किंतु कुएं में डोल डाले जाने के शोर से ठाकुर साहब जाग जाते हैं और उस दलित महिला को बिना शुद्ध जल लिए ही भागना पड़ता है।
‘सवा सेर गेहूं’ में बंधुआ मजदूरों की मुंह बोलती कहानी है। एक व्यक्ति के यहां सन्यासी आ जाता है। वह सन्यासी के लिए एक पंडित जी से सवा सेर गेहूं उधार लाकर उन्हें गेहूं की रोटी खिलाता है। बस यही उस दलित अथवा व्यक्ति के लिए अभिशाप बन जाता है। अनेक वर्षों तक उस दलित से पंडित जी के सवा सेर गेहूं का उधार ही नहीं उतरता और बाद में उसे तथा उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे को उस पंडित के घर बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती है। ‘कफन’ में जहां प्रेमचंद ने दलितों की ‘शराब’ पीने की बुरी आदत की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, वहीं ‘पूस की रात’ में दलितों की निर्धनता को वाणी प्रदान की है। यदि गहराई से देखा जाए तो प्रेमचंद ने अपने साहित्य में दलितों की आवाज को बुलंद किया है। ‘मंगलसूत्र’ में मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं जिस राष्ट्र में तीन चौथाई आदमी भूखों मरते हों, वहां किसी एक को बहुत-सा धन कमाने का कोई भौतिक अधिकार नहीं है। चाहे इसकी उसमें सामथ्र्य ही क्यों न हो।‘ उन्होंने छुआछूत की समस्या, दलितों के अधिकारों पर डाका डालने, जमींदारों के जुल्म तथा दलितों के श्रम की महत्ता को उकेरा है। अत: स्वयं सिद्ध है कि प्रेमचंद साहित्य दलितों का पक्षधर है न कि सामंतों का। (विभूति फीचर्स)
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