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आज का चिंतन

ईश्वर की आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता है।

प्रियांशु सेठ
जैसे मनुष्य-शरीर में आत्मा काम करता है,इसी प्रकार सारे जगत् को परमात्मा चलाता है।
यदि सूर्य को किसी तरह बोलने की शक्ति मिल जाये,तो उसे कहता सुनेंगे–
“हे धरती पर विचरनेवालो! मुझे जाज्वल्यमान और चमकता हुआ देखकर भ्रम में न उलझ जाना।यह चमक मेरी नहीं है,उसकी है जो मेरे भीतर-बाहर विराजमान है।मेरी चमक का कारण वही है।सूर्य मैं नहीं हूं, वह है।मैं तो निमित्त मात्र हूं।उसकी आज्ञा है,मैं आपके लिए चमकूँ, आपको प्रकाश और गर्मी दूं,अन्धकार छुड़ा दूं।मैं तो केवल उसकी आज्ञा का पालन करता हूँ।यदि वह एक क्षण के लिए भी मुझे छोड़ दे,अपनी शक्ति लौटा ले तो फिर आप मुझे कहीं देख भी न सकें।उषा की लालिमा के साथ जब मैं अनेक रंगों के साथ उदय होता हूँ,तो आप निहार-निहार नाचते हैं,खुश होते हैं,गीत गाते हैं।परन्तु वह सौन्दर्य मेरा नहीं,उस ईश्वर का है।गीत भी मेरे नहीं,उसी के हैं।”
नदियाँ,जो दिन-रात अबाध गति से पृथिवी के छोर से दूसरे छोर तक भागती फिरती हैं,इनका कल-कल निनाद तो सभी सुनते हैं,परन्तु इस निनाद में निहित इस आवाज को सुननेवालों ने ही सुना है–
“शीतल जल पीना चाहो तो पीयो।स्नान करना चाहो तो करो।मैले वस्त्र धोकर उज्ज्वल कर लो।सूखी खेती सींचकर हरी-भरी बना लो।पनचक्कियां चलाकर आटा पीस लो।बिजली पैदा करो।कारखाने चलाओ।जो चाहो,सो करो।हम आपकी सेवा में उपस्थित हैं।परन्तु भूलो मत कि यह गति हमारी नहीं है।यह सब-कुछ उस ईश्वर की देन है,जिसकी आज्ञा से अनवरत बहती हुई हम न कभी थकती हैं,न हारती हैं।हमारे गीत न गाओ,उस भगवान् का धन्यवाद करो,जो जल के एक-एक बिन्दु में ओत-प्रोत है।उसकी आज्ञा से ही हम बहती हैं।उसकी आज्ञा न हो,तो आज रेत में लोटने लगें।”
किनारे से टकराती,सागर की उतरती-चढ़ती लहरों का गौरव सभी ने सुना है;लेकिन समझनेवालों ने ही समझा कि असंख्य जलचरों को और एक अनोखी सृष्टि को अपने गर्भ में रखनेवाला यह अथाह सागर कहता है–
“इस सारी धरती को मैं समेटे हुए था।ईश्वर की आज्ञा से मैं स्वयं सिमट गया।अब फिर उसे अपने में समेटने के प्रयत्न में लगा हुआ हूँ।न पहले मेरी कोई सामर्थ्य थी,न अब है।उसी के आदेश से,उसी की शक्ति से,उसी की प्रेरणा से ज्वार और भाटे के खेल खेला करता हूँ।मेरे भीतर की गम्भीरता,उसकी गम्भीरता है।मेरी बाह्य चंचलता,उसकी चंचलता है।मेरे भीतर-बाहर जो कुछ भी है,वही है।मैं कुछ भी नहीं।केवल उसकी कृपा का पात्र हूँ कि लाखों-करोड़ों रत्नों को अपने पेट में सँजोकर रखे हुए हूँ।”
वे गर्जते हुए मेघ,चमकती हुई बिजली,भीषण भयंकर आँधियाँ, वरुण और इन्द्र देवता भी यही कहते हैं–
“न हम गर्ज सकते हैं,न चमक सकते हैं।यह गर्जन,यह चमक,यह गति,उसी की दी हुई है।हम तो निष्प्राण हैं,गूंगे,अन्धे,बहरे।उसके संकेत पर हरकत में आते हैं;वह जैसे नचाता है,नाचने लगते हैं।उसी के इशारे पर खामोश हो जाते हैं।यह गर्जन उसी का है।यह चमक उसी की है।यह ज्योति उसी की है।”
विशाल विस्तृत स्तब्धता और उन बालू के कणों में से उठता हुआ झुलसा देनेवाला तेज आपने देखा है?यात्री समझता है यह मुझे झुलसा रहा है।लेकिन परखनेवालों ने परखा और सुननेवालों ने सुना।वह तेज कह रहा था–
“मैं कौन हूँ झुलसाने वाला?मैं तो प्रकृति का निष्प्राण अंश हूँ।मेरा तेज है ही कहाँ?यह तो उस प्रभु का तेज है,जिसे मैं व्यय कर रहा हूँ।कारण यह है,मैं केवल उपकरण हूँ।हे यात्री! मेरी क्या सामर्थ्य है कि तुझे सुखी या दुःखी कर रखूं।उसकी आज्ञा पालने के लिए,उसकी बनाई हुई मर्यादा को पूरा करने के लिए,मैं स्वयं इस निर्जन मरुस्थल में पड़ा हूँ।”
गंगा में भी तू, फूलों में भी तू, पर्वत और वृक्षों में भी तू, और जहां कुछ नहीं वहां भी तू, तू ही तू, तू ही तू!
निष्कर्ष– वेदों में कहा है,”जो स्वयं बिना हिले सम्पूर्ण जगत को हिलाने वाला है वह ईश्वर सकल सृष्टि की गति का कारण है।”

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