गोरक्षा तथा गोबध निषेध
लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, डॉ० विवेक आर्य
सहयोगी- डॉ० ब्रजेश गौतमजी
नवजागरण काल के अपने अनेक समसामयिक महापुरुषों की तुलना में स्वामी दयानन्द की दूरगामी दृष्टि तथा अग्रगामिता कुछ विशिष्ट थी। त्रिविध एषणाओं का त्याग करने वाला यह संन्यासी जहां धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में नवीन जागृति और परिवर्तन लाने का इच्छुक था वहां अनेक राष्ट्रीय तथा आर्थिक प्रश्नों के प्रति भी उनकी जागरूकता प्रशंसनीय थी। उन्होंने बहुत पहले अनुभव कर लिया था कि भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए एक समान भाषा के प्रचलन की भारी आवश्यकता है। जातीय एकात्मता की सिद्धि बिना समान राष्ट्रभाषा को अपनाये नहीं हो सकती। अतः स्वयं की मातृभाषा गुजराती होने तथा संस्कृत का प्रकाण्ड पाण्डित्य अर्जित कर लेने के पश्चात् भी स्वामीजी अधिकांश भारतीयों द्वारा बोली और समझी जाने वाली हिन्दी को इस देश की राष्ट्रभाषा के पद पर अभिषिक्त देखना चाहते थे। इसे उन्होंने ‘आर्य भाषा’ का विशिष्ट नाम दिया और प्रत्येक आर्यसमाजी के लिए उसका जानना अनिवार्य किया।
दूसरा प्रश्न आर्थिक था जो कृषि प्रधान देश में गोधन के अपरिमित ह्रास तथा गोवंश के निर्मम बध से जुड़ा था। स्वामीजी के गौरक्षा के प्रश्न को विशुद्ध आर्थिक दृष्टि से देखा था। वे मानते थे कि गोवंश की सुरक्षा से देश की आर्थिक समृद्धि को सुनिश्चित किया जा सकता है। गाय की भांति वे भैंस, बकरी आदि अन्य उपयोगी पशुओं के निर्मम बध के भी खिलाफ थे तथा मानव के उपयोग में आने वाले इन सभी पशुओं की सुरक्षा चाहते थे।
समझदार मुगल शासकों ने हिन्दुओं द्वारा पवित्र समझी जाने के कारण गाय के बध को कानूनन बन्द करवा दिया था। जब भारत में अंग्रेजी राज्य की नींव पड़ी तो गोरे सैनिकों के लिए गोमांस उपलब्ध कराया जाने लगा तथा सैन्य शिविरों में गो बध होने लगा। स्वामीजी ने अनुभव किया था कि यदि इसी प्रकार मांस के लिए गोबध होता रहा तो भारत की कृषि व्यवस्था चरमरा जायेगी तथा यहां के बच्चों को गो दूध से भी वंचित होना पड़ेगा। अतः उन्होंने गोबध निषेध का एक बड़ा अभियान चलाया। स्वामीजी का युग सार्वजनिक आन्दोलनों का युग नहीं था। विदेशी शासन के अधीन यहां की प्रजा तो शासक से याचना या फरियाद ही कर सकती थी। स्वामीजी ने भी देश के करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर करवाकर एक प्रार्थना-पत्र तत्कालीन भारत सम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया को भेजने का विचार किया। उनकी धारणा थी कि करोड़ों भारतवासियों के हस्ताक्षरों से युक्त इस प्रार्थना का अनुकूल असर होगा और विवेकशील महारानी भारत में गोबध पर प्रतिबन्ध लगाने का आदेश प्रसारित करेगी। स्वामीजी के असामयिक निधन से उनका यह विचार क्रियान्वित नहीं हो सका तथापि लाखों लोगों के हस्ताक्षरों से युक्त यह प्रतिवेदन उस दूरदर्शी संन्यासी के अग्रगामी सोच की साक्षी देता है।
दयानन्द सरस्वती के पत्र-व्यवहार में गोरक्षा के लिए उनके मन की तड़प यत्र तत्र प्रकट हुई है। गोबध निषेध के लिए भेजे जाने वाले प्रार्थना-पत्र पर बड़ी संख्या में लोगों के हस्ताक्षर कराये जायें, इस विषय में स्वामीजी ने उदयपुर के नरेश महाराणा सज्जनसिंह को २५ दिसम्बर १८८१ को एक विस्तृत पत्र लिखा था। उनका कहना था- “जो जो श्रीमान् महाशय इस (प्रार्थना-पत्र) पर सही करें वे इस रीति से करें कि इतने लाख इतने करोड़ मनुष्यों की ओर से मेरे हस्ताक्षर और मोहर हैं।” उन्होंने महाराणा से यह भी निवेदन किया कि वे अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों और प्रभाव को काम में लाकर जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, कोटा, बूंदी, रतलाम, इन्दौर, ग्वालियर, बड़ौदा आदि के राजाओं के हस्ताक्षर भी इस प्रार्थना पत्र पर करवायें। उनका कहना था कि यदि काश्मीर और नेपाल के नरेशों की भी इस पर सही (हस्ताक्षर) हो जाये तो अत्युत्तम रहेगा। इस पत्र में मार्मिक स्वर में लिखा गया है- “यह महोपकारक काम श्रीमान् आर्य कुल कमल भास्कर ही के करने योग्य है अन्य किसी के नहीं।” (भाग २, पृ० ५२६)
आर्यसमाज दानापुर (बिहार) के मन्त्री को १२ मार्च १८८२ को लिखे अपने पत्र में गोबध को बन्द कराने विषयक अपनी योजना का खुलासा करते हुए स्वामीजी ने स्पष्ट किया, “इस काम को (गोबध प्रतिबन्ध) सिद्ध करने का विचार इस प्रकार किया गया कि दो करोड़ से अधिक राजे महाराजे और प्रधान आदि महाशय पुरुषों की सही विषय की अर्जी करके ऊपर लिखित गाय आदि पशुओं की हत्या को छुड़वा देना।” (भाग २, पृ० ५३७)
गोबध रुकवाने के लिए जो प्रार्थना-पत्र महारानी विक्टोरिया को भेजा जाने वाला था और जिस पर करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराने की योजना थी उसका आलेख पत्र-व्यवहार (भाग २, पृ० ५३८-५४०) में छपा है। इसमें गाय, बैल और भैंस के मारे जाने से होने वाली हानि का उल्लेख कर सम्राज्ञी से निम्न प्रकार निवेदन किया गया है- “इसलिए हम सब लोग स्वप्रजा की हितैषिणी श्रीमती राज राजेश्वरी क्वीन विक्टोरिया की न्याय प्रणाली में जो यह अन्याय रूप बड़े-बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या होती है इसको इनके राज्य में से प्रार्थना से छुड़वा के अति प्रसन्न होना चाहते हैं। यह हमको पूरा निश्चय है कि विद्या, धर्म, प्रजा-हित-प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन विक्टोरिया पार्लियामेन्ट सभा (ब्रिटिश संसद) और सर्वोपरि प्रधान आर्यावर्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहिब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल और भैंस की हत्या को उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सबको परम आनन्दित करें।” (भाग २, पृ० ५४९) प्रतिवेदन के अन्त में इस लोकोपकारी कार्य में स्वामीजी परमात्मा से प्रार्थना करते हैं- “परम दयालु, न्यायकारी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, परमात्मा इस जगदुपकारक काम करने में (हम देशवासियों को) एक मत्य करे।”
गोरक्षा के प्रश्न को स्वामीजी मात्र हिन्दुओं का प्रश्न नहीं समझते थे। उनकी दृष्टि में गो आदि उपयोगी पशुओं की रक्षा में सभी मतस्थ लोगों का हित है। यह न तो किसी सम्प्रदाय का सवाल है और न गाय के साथ किसी प्रकार की अतार्किक भावुकता को जोड़ा जाना चाहिए। वे चाहते थे कि मुसलमान और ईसाई भी गोरक्षा के महत्त्व को समझें और उनके द्वारा प्रसारित प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर करें। १४ मार्च १८८२ को मुम्बई से प्रकाशित विज्ञापन में यह पंक्ति द्रष्टव्य है- “जो मुसलमान व ईसाई लोग इस महोपकार विषय में दृढ़ता और प्रसन्नता से सही करना चाहें तो कर दें। मुझको दृढ़ निश्चय है कि आप परम उदार महात्माओं के पुरुषार्थ, उत्साह और प्रीति से यह सर्व उपकारक, महापुण्य, कीर्तिप्रदायक कार्य यथावत् सिद्ध हो जाएगा।” (भाग २, पृ० ५४०)
स्वामीजी की सूझ अनेक प्रसंगों में आश्चर्यप्रद थी। वे मनुष्य गणना की ही भांति राज्य में पशु गणना के भी पक्ष में थे। जयपुर की राज्य परिषद् के सदस्य श्री नन्दकिशोरसिंह को ८ अप्रैल १८८२ को मुम्बई से लिखे अपने अंग्रेजी पत्र में उन्होंने राज्य में पशु गणना किये जाने का सुझाव दिया- “राज्य की सब गायों आदि की गणना करा दी जाय। प्रत्येक नया पशु जो पैदा हो (या मरे) उसकी सूचना इस कार्य के लिए नियुक्त कर्मचारी के पास भेज दी जाये। यह गणना प्रति ६ मास ७ मास बाद होनी चाहिए। इसका कारण यह है कि रात्रि आदि में असम्भव नहीं कि पशु चुरा लिए जायें (भाग २, पृ० ५५८)।” पशु गणना का स्वामीजी के यह विचार सर्वथा नया तथा अभिनन्दनीय समझा जायेगा। इससे पशुओं के बारे में सही आंकड़े प्राप्त होना सुगम हो जाता।
गोरक्षा के प्रश्न को अत्यधिक महत्त्व का समझने तथा गौ एवं अन्य उपयोगी पशुओं के बध से होने वाली क्षति को अनुभव कर स्वामीजी ने ‘गोकरुणानिधि’ नामक अपने एक लघु ग्रन्थ में इस समस्या से जुड़े सभी पहलुओं की सांगोपांग समीक्षा की है। एक गाय के संरक्षण से होने वाले असीमित लाभ तथा एक गाय की हत्या से होने वाले नुकसान का आंकड़े देकर विवेचन करना स्वामी दयानन्द की मौलिक सूझ थी। यहां यह लिखना पुनः आवश्यक है कि गोरक्षा के इस प्रस्ताव में स्वामीजी किसी भावुकता के वशवर्ती नहीं थे। उन्होंने गाय को सर्वत्र पशु ही कहा है, उसे पौराणिक ग्रन्थों की भांति देवी नहीं बताया। वे चाहते थे कि गोकरुणानिधि का अंग्रेजी में अनुवाद हो जाये ताकि गैर हिन्दी प्रान्तों के लोग, उच्च अंग्रेज अधिकारी तथा अन्य शिक्षित व्यक्ति भी गोबध की हानियों को अनुभव करें। इस उपयोगी पुस्तिका के अंग्रेजी अनुवाद के लिए उन्होंने आर्यसमाज लाहौर के प्रथम प्रधान राय मूलराज से एकाधिक बार (चार बार) पत्र लिखकर अनुरोध किया। किन्तु राय मूलराज ने स्वामीजी के पुनः पुनः किये गये आग्रह की ओर किंचित मात्र ध्यान नहीं दिया। अनुवाद न करने का कोई प्रत्यक्ष कारण भी उन्होंने नहीं बताया। यह तो प्रसिद्ध बात है कि राय मूलराज मांस भोजन को उचित मानते थे। सम्भवतः मांसाहार की उनकी इसी प्रवृत्ति ने उन्हें ऐसे कार्य को न करने के लिए कहा जिससे निरीह प्राणियों की रक्षा होती हो।
देवी-देवताओं के नाम पर होने वाली पशु हिंसा के स्वामीजी कट्टर विरोधी थे। शताब्दियों से शाक्त सम्प्रदाय में देवी पूजा में पशुबध को विहित माना गया है। आज भी दशहरा तथा नवरात्र आदि पर्वों पर अनेक शाक्त पीठों में निर्बाध, निर्मम पशुबध होता है और धरती मूक पशुओं के रक्त से आप्लावित हो जाती है। अपनी उदयपुर यात्रा में देवताओं के लिए किये जाने वाले पशुबध की भीषणता का स्वामीजी ने स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने महाराणा सज्जनसिंह को लिखे अपने एक पत्र में इसकी चर्चा की है। धर्म के नाम किये जाने वाले पशु बध के औचित्य को तो महाराणा ने भी नहीं माना किन्तु इतना अवश्य कहा कि शताब्दियों से रूढ़ हुई इस कुप्रथा को एक दिन में बन्द करना सम्भव नहीं है। धीरे-धीरे जनमानस को प्रबुद्ध बनाने से ही ऐसे धार्मिक, पाखण्ड दूर हो सकते हैं। उक्त उपदेशात्मक पत्र के बिन्दु संख्या १३ में स्वामीजी ने लिखा- “अब दशहरा निकट आया। उसमें अनपराधी भैंसे बकरों का प्राण न लेकर उस स्थान में सिरनी (मीठा पदार्थ) मिठाई, मोहन भोग, लापसी आदि की बलि (देवता हितार्थ भेंट) प्रदान कीजिये।” (भाग २, पृ० ७५७)
जिन दिनों स्वामीजी अपना गोरक्षा अभियान चला रहे थे उस समय भारत के वायसराय पद पर लार्ड रिपन विराजमान थे। ये महाशय अपेक्षाकृत उदार विचारों के थे अतः स्वामीजी को आशा थी कि यदि गोबध निषेध के लिए तैयार किया जाने वाला प्रतिवेदन इसी वायसराय के माध्यम से महारानी विक्टोरिया और ब्रिटिश संसद तक पहुंचे तो इस कार्य में सफलता मिल सकती है। इसी भाव को उन्होंने उक्त पत्र में व्यक्त किया है- “गोरक्षा के अर्थ अर्जी शीघ्र देनी चाहिए। जितनी आशा लार्ड रिपन साहब के समय में इस कार्य की सिद्धि होने की है उतनी दूसरे गवर्नर जनरल के समय में अनुमति नहीं है।” (भाग २, पृ० ७५७)
यह अनुताप का विषय रहा कि स्वामीजी के आकस्मिक देहान्त के कारण गोरक्षा विषयक प्रतिवेदन महारानी विक्टोरिया को नहीं भेजा जा सका। परवर्ती काल में गोबध निषेध के लिए किए गए प्रयत्न भी सिद्ध नहीं हो सके।
पाद टिप्पणियां:
१. (अ) ३ मार्च १८८१ के पत्र में स्वामीजी ने लिखा- गोकरुणानिधि का जल्दी तर्जुमा करके हमारे पास भेज दीजिए।
(आ) गोकरुणानिधि का बहुत अच्छा तर्जुमा अंग्रेजी भाषा में कर दीजिए। (२८ मई १८८१ का पत्र)
(इ) जब मूलराज ने अनुवाद करने में लापरवाही की तो स्वामीजी ने उलाहना देते हुए १२ नवम्बर १८८१ को उन्हें लिखा- “जब आप इतना भी पुरुषार्थ नहीं कर सकते तब आर्यसमाज की उन्नति किस प्रकार होगी?”
(ई) “आपने जो गोकरुणानिधि को इंग्लिश में भाषान्तर कर देना स्वीकार किया उससे बहुत आनन्द हुआ।” ९ दिसम्बर १८८१ का पत्र। अनुवाद करना स्वीकार करके न करना मूलराज का निंद्य आचरण था।
२. शाक्त मतानुमोदित वाममार्ग में मांस को पंच मकारों में स्थान प्राप्त है। जो व्यक्ति मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन, इन पंच मकारों की आलंकारिक व्याख्या करते हैं वे लोगों को धोखा देते हैं। मुण्ड-माला तन्त्र में लिखा है- छागे दत्ते भवेत् वाग्मी मेषे दत्ते कविर्भवेत्। बकरे का बलिदान करने वाला वक्ता हो जाता है और भेड़ की बलि देने वाला कवि बन जाता है।
विस्तार के लिए द्रष्टव्य- गोपालराव हरि देशमुख कृत आगमप्रकाश नामक गुजराती ग्रन्थ- यह लोकहितवादी समग्र वाङ्मय खण्ड २ में संग्रहीत है।
[स्त्रोत- स्वामी दयानन्द सरस्वती के पत्र-व्यवहार का विश्लेषणात्मक अध्ययन]
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