क्या हिन्दुओं की बुद्धि व्यभिचारिणी हो गयी ?
आज हम सभी हिन्दुओं को यह बात स्वीकार करना पड़ेगी कि वैदिक सनातन हिन्दू धर्म की जितनी हानि विधर्मियों ने की है , उस से अधिक हानि स्वयंभू अवतार , तथाकथित संत और बाबाओं द्वारा की जा रही है , ऐसे लोग हिन्दुओं को वेद , उपनिषद् , गीता जैसे प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथो की शिक्षा देने की जगह कपोलकल्पित कथाएं और अपने बारे में प्रायोजीत चमत्कार की बातें सुना कर लोगों को अपना अनुयायी बना लेते है , और धर्म से अनभिज्ञ भोले लोग ऐसे पाखंडियों पर विशवास करने लगते हैं , वास्तव में ऐसे लोग धर्म का धंदा करते है , इनका उद्देश्य धर्म का प्रसार और हिन्दू धर्म को सशक्त करना नहीं , बल्कि हिन्दू धर्र्म को खोखला करना और अपनी तिजोरी भरना है , पिछले दो तीन दशक में कुछ ऐसे अवतार और बाबा हुए जिनके कभी लाखों भक्त थे , आज भी ऐसे 6 बाबा मौजूद हैं ,1 . संत रामपाल 2 . आसाराम 3 . निर्मल बाबा 4 . नित्यानन्द 5 . शोभन सरकार 6.मदारी बाबू
लेकिन जब इन ढोंगियों का भंडा फूट गया तो इनके चेलों के पास पछताने के आलावा कुछ नहीं रहा . तुलसी दास जी ने कहा है
” प्राकृत जन कीने गुणगाना , सिर धुनि लागि पड़ा पछताना ”
आजकल हिन्दुओं में वेद उपनिषद् और गीता की जगह कल्पित कथाओं और राम , कृष्ण की जगह बाबाओं , पीरों ढोंगी संतों के प्रति रुझान क्यों हो रहा है ? इसका कारण हिन्दुओं की ” व्यभिचारिणी बुद्धि ” है . चूँकि भगवद्गीता को उपनिषद् का सार कहा जाता है और भगवान कृष्ण ने वेदों और उपनिषदों का अध्यन किया था इसलिए उन्हीं के शब्दों में व्यभिचारिणी बुद्धि का वर्णन दिया जा रहा है .
1-व्यभिचारिणी बुद्धि कैसी होती है ?
गीता में साफ कहा है कि व्यभिचार से वर्णसंकर लोग पैदा होते हैं जिन के कारण धर्म और समाज नष्ट हो जाता है ,
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ (1:43
भावार्थ : इन अवांछित सन्तानो के दुष्कर्मों से सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। (1:43
आजकल जितने भी सेकुलर हैं वह नामके तो हिन्दू हैं मगर विचारों से वर्णसंकर हैं , अर्थात वैचारिक व्यभिचार की औलादें हैं’व्यभिचारिणी बुद्धि के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
2.अपूज्यों की पूजा
ऽउर जैसे व्यभिचारिणी औरत पति को छोड़ के अन्य लोगों से सम्बन्ध बनाती है ,उसी तरह व्याभिवारी बुद्धि वाले कई कल्पित देवी देवता , भूत ,मजार औलिया फकीर बाबा पाखंडी संतों की भक्ति करते हैं , गीता में कहा है ”
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥ (17:4.
ऐसी बुद्धि ही व्यभिचारिणी बुद्धि या भक्ति है . हम ऐसे लोगों की भक्ति क्यों करें ,क्या हमारे राम , कृष्ण आदि रिटायर्ड हो गए ? या निस्तेज हो गए , जो हमें वह नहीं दे काकते जो यह ढोंगी दे सकते हैं ?और यह बाबा हमें कौन सा ज्ञान दे सकते हैं , जो वेद उपनिषद् और गीता नहीं दे सकते ?
3-फिल्मी भजन भक्ति
आज पूरे हिंदी भाषी प्रदेशों में जगह जगह कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे भजनिया उग गए हैं जो किसी भी कथा के बीच में कोई भजन – गीत घुसा देते हैं , जिसकी तर्ज किसी फ़िल्मी गीत पर होती है , और जब ऐसा भजन शुरू होता है तो पुरुष महिला सभी नाचने लगते हैं . लेकिन उनका ध्यान भक्ति में नहीं फिल्म के गाने पर बना रहता है ,
दुर्गा सप्तशती के अनुसार ऐसे सभी प्रवचनकार अधम हैं
” गीती शीघ्री , शिरकम्पी च अलिखित पाठकः , अनर्थज्ञो बहुकण्ठिश्चः ऐते अधम पाठकाः ”
अर्थात -गा गा कर , जल्दी जल्दी बोल कर , सिर हिला हिलाकर , और बीच में ऐसे बातें जोड़ने जो ग्रन्थ में नहीं हों , जिसका कोई अर्थ नहीं हो , और तरह तरह की तरजों पर भजन करने वाले अधम है , क्योंकि यह हिन्दुओं को वीर योद्धा नहीं नचैया या हिजड़ा बनाते रहते हैं , जैसे जग्गा का एक भजन है ” कैसा सजा है दरबार भवानी ” इसके बीच में धुन है ” सरकाय लो खटिया कि जाड़ा लगे ”
अब हिन्दू जिहादियों का मुकाबला करेंगे या . खटिया सरकायेंगे ?
इसी तरह मदारी बबाबू राम कथा के बीच में अली मौला और या हुसैन करने लगता है
<>4-भगवान को सोने से लाद देना
<>कुछ मूर्ख हिन्दू समझते है की भगवान की मूर्ति पर जितना अधिक सोना चाँदी चढ़ायेंगे वह उतना ही खुश होगा . इसलि लिए कई लोग मूर्ति पर इतना सोना लाद कि भगवान बोझ से दब जाता है , ऐसे लोग गीता का यह श्लोक ध्यान से पढ़ें
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ (9:26
भावार्थ : जो मनुष्य एक पत्ता, एक फ़ूल, एक फल, थोडा सा जल और कुछ भी निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित करता है, उस शुद्ध-भक्त का निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित किया हुआ सभी कुछ मैं स्वीकार करता हूँ। (9:26
अतः मंदिरों और मूर्तियों पर क्विंटलों सोना चढाने वाले हिन्दुओं का कोई भला नहीं कर सकते ,उलटे जिहादियों लुटेरों को न्योता देते है . जबकि इतने धन से हिन्दुओं की सेना बन सकती है , जो विधर्मियों को देश से साफ़ कर डाले ऐसे लोग भक्त नहीं असुर हैं , गीता में कहा है ,
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ (16:15
भावार्थ : आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि मैं सबसे धनी हूँ, मेरा सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार मै जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं। (16:15
5-कामनापूर्ति के लिए व्रत उपवास करना
व्रत का अर्थ प्रतिज्ञा होता है , जैसे कोई व्रत करे कि मैं जीवन भर झूठ नहीं बोलूँगा . और उपवास का अर्थ पास बैठना है , इसका तात्पर्य आचार्य के पास बैठ कर वेदों का ज्ञान प्राप्त करना है , व्रत ,उपवास का मतलब निराहार रहना नहीं है . लेकिन आजकल टी वी पर कुछ ठग पाखंडी ऐसे कई चैनल चला रहे हैं जिनमे लोगों सभी समस्यायों हल करने के अजीब अजीब उपाय बताये जाते हैं . और किसी भी दिन या तिथि को भूखे रहने को कहा जाता है , और भोली भाली माताएं बहिने इसी को धर्म समझ लेती हैं , ऐसे भूखे रहने से कोई लाभ नहीं होता , बल्कि हिन्दू महिलायें कमजोर हो जाती है , गीता में इसकी साफ़ मनाही है। यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
<>न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ (16:23
<>जो शास्त्रों को छोड़ कर कामना पूर्ति के लिए मनमाने काम करता है , उसे न तो काम में सफलता मिलती है और न सुख अपर परम गति ही प्राप्त होती है ॥ 16:23
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ (17:5
भावार्थ : जो मनुष्य शास्त्रों के विधान के विरुद्ध अपनी कल्पना द्वारा व्रत धारण करके कठोर तपस्या करतें हैं, ऎसे घमण्डी मनुष्य कामनाओं, आसक्ति और बल के अहंकार से प्रेरित होते हैं। (17:5
<> यह व्यभिचारिणी बुद्धि के कुछ उदाहरण हैं , इनके विपरीत बुद्धि को गीता में ” अव्यभिचारिणी बुद्धि कहा गया है।
6-अव्यभिचारिणी बुद्धि
इन दौनों प्रकार की बुद्धियों में यही अंतर है कि एक मानता है , जबकि दूसरा जानता है , गीता में जानंने वालों को श्रेष्ठ माना गया है। . जाने बिना मानने वाले अंध विश्वासी बन कर धोखा खाते हैं इसलिए गीता में कहा है ,
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ (2:50
बुद्धि का कुशलता पूर्वक प्रयोग करके मनुष्य धर्म और अधर्म की पहिचान कर लेता है , और पाप कर्मों से खुद को मुक्त कर लेता है , यही योग कहलाता है 2:50
7-ईश्वर सभी प्राणियों में मौजूद है। हमें ईश्वर की खोज में जंगल पहाड़ या निर्जन गुफा में जाने की जरूरत नहीं है ,गीता में साफ़ कहा है
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥18:61
भावार्थ : हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है॥18:61
इसलिए ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए सोना चांदी चढ़ाने या घंटे घड़ियाल बजने की जगह उसके बनाये प्राणियों की रक्षा और सेवा करना ही धर्म है , ईश्वर सभी जीवों का पालक और पिता है , जैसे हम किसी व्यक्ति के बच्चों को मार कर उसे खुश नहीं कर सकते उसी तरह ईश्वर के बनाये जीवों मार को या उसकी बनाई प्रकृति को नष्ट करके ईश्वर को कभी प्रसंन्न नहीं कर सकते .
8-केवल ईश्वर की शरण में जाएँ
अक्सर देखा गया है कि थोड़ा सा ही कष्ट या समस्या हो जाते ही लोग , बाबाओं , तांत्रिकों ,भविष्य वक्ताओं , पीरों ओझा और ज्योतिष्यों की शरण में दौड़ने लगते हैं , यह उनकी ईश्वर के प्रति अविश्वास का परिचायक है . यदि हमारा ईश्वर सामर्थ्यवान है तो किसी की शरण में जाना मूर्खता है . इसी लिए तो गीता में कहा है ,
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥18:62
भावार्थ :हे भारत के लोगो तुम पूरी भावभक्ति से उसी ईश्वर की शरण में जाओ , और उसी की कृपा से तुम्हें शान्ति और शाश्वत सुख प्राप्त होगा
9- आज दुष्टविनाश ही धर्म है
जिस प्रकार से कोई किसान अपने खेत में चाहे जितना अच्छा बीज डाले , अच्छी खाद डाले ,समय पर सिंचाई करे ,लेकिन खेत में कीटनाशक दवा नहीं डाले और खरपतवार नहीं निकाले , फसल बर्बाद हो जाती है . उसी तरह से हम कितना भी धार्मिक कार्य करें ,लेकिन दुष्टों का नाश नहीं करें ,तो धर्म को नहीं बचा सकते , गीता में यही समझाया गया है , कि धर्म की स्थापना के लिए दुष्टों का नाश जरुरी है .गीता का यह सन्देश सभी हिन्दुओं के लिए है
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (4:8
भावार्थ : भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए तथा धर्म की फ़िर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ। (4:8
और जो भी अनन्य भाव से ऐसी अव्यभिचारिणी बुद्धि से भक्ति करता है , और अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता , वाही ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (14:26
भावार्थ : जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है। 14:26
नोट -यह लेख इसलिए प्रासांगिक है ,क्योंकि भगवद्गीता को आज 5151 वर्ष हो गए हैं . इसलिए कृष्ण का नाम जपने के साथ उनके उपदेशों का पालन करना जरूरी है।
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बृजनंदन शर्मा
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