अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत : अध्याय 17 *मुगलकाल में अफगानिस्तान की स्थिति*
*मुग़ल साम्राज्य की स्थापना करने वाला बाबर था। इस वंश ने भारत में 1526 ई. से लेकर 1857 ई. तक राज्य किया। 1857 ई. में इस वंश का अंतिम शासक बहादुरशाह जफर था। यद्यपि औरंगजेब की मृत्यु होने के पश्चात् 1707 ई. में ही यह साम्राज्य लड़खड़ा गया था। उसके सही 30 वर्ष पश्चात् ही अर्थात् 1737 ई. में मराठों ने मुगलों को परास्त कर यह साम्राज्य छिन्न-भिन्न कर दिया था। मुगल साम्राज्य वास्तव में एक इस्लामी तुर्की मंगोल साम्राज्य था।
मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर मूल रूप में तूरानी था। वह तैमूर वंश का था। यही कारण था कि उसने तैमूर लंग जैसे क्रूर और अत्याचारी शासक को सदैव अपना आदर्श माना और जीवन में उसी के अनुरूप कार्य करता रहा। बाबर ने दो बार समरकंद को अपने अधिकार में ले लिया था, परंतु भाग्य और परिस्थितियों ने उसका साथ नहीं दिया। यही कारण रहा कि यह क्षेत्र उसके हाथ से निकल गया। अपने पैतृक देश से भाग कर वह काबुल आ गया। काबुल को अपने अधिकार में लेकर उसने फिर समरकंद को प्राप्त करने का प्रयास किया। ईरान की सहायता से उसने समरकंद को फिर से प्राप्त किया। परन्तु उसे निरंतर तीसरी बार समरकंद से भागना पड़ा। इसके बाद यहाँ के निवासी भारतीय मुगलों को अपना देशवासी स्वीकार करने में संकोच करने लगे।
बाबर के द्वारा स्थापित मुगल साम्राज्य के लिए एक बार ऐसा भी समय आया था जब वह भारत के 44 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर शासन करता था, अर्थात् आज के लगभग 32 लाख वर्ग किलोमीटर के संपूर्ण भारत के क्षेत्रफल से भी 12 लाख वर्ग किलोमीटर अधिक क्षेत्रफल पर उसका शासन था। स्पष्ट है कि मुगलों के शासन में उस समय आज का बलूचिस्तान और अफगानिस्तान का बहुत बड़ा भाग भी हुआ करता था। उस काल में भारत की कुल आबादी 12 से 13 करोड़ थी।
1526 ई. में दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर ने भारत में मुगल वंश की स्थापना की थी। इसके पश्चात् उसने खानवा के युद्ध में महाराणा संग्राम सिंह को भी परास्त किया। बाबर एक ऐसा शासक था जो अपने देश में अपने पिता के द्वारा दिए गए साम्राज्य की रक्षा नहीं कर पाया था। इसके अतिरिक्त उसने अपना साम्राज्य खड़ा करने हेतु जो भी प्रयास वहाँ पर किए, वे सारे के सारे निरर्थक सिद्ध हुए, परंतु यही बाबर जब भारत की ओर बढ़ा तो वह यहाँ पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गया।
हुमायूँ -बाबर की 1530 ई. मृत्यु हो गई तो उसके पश्चात् उसका पुत्र हुमायूँ उसके साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। वह अपनी मातृभूमि विजय के प्रति उसी प्रकार लालायित रहा जैसे उसका पिता रहा था। परंतु वह भी निज भाइयों के असहयोग के कारण इस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर सका। वह एक बार काबुल पर अपना अधिकार करने में सफल हुआ।
स्थानीय शासकों के पारस्परिक कलह के चलते हुमायूँ को 1546 ई. में बदख्शां को जीतने में भी सफलता मिली, परंतु किन्हीं कारणोंवश उसे यह राज्य मिर्जा सुलेमान को सौंपना पड़ा जो बदख्शां का ही शासक था। परन्तु परिस्थिति ऐसी बनी कि 1548 ई. में मिर्जा सुलेमान पुनः बदख्शां का स्वतंत्र शासक हो गया। 1549 ई. में हुमायूँ ने बल्ख अभियान का भी निश्चय किया, परंतु उसे अपना यह अभियान भी बीच में ही छोड़ना पड़ गया था। फलस्वरूप वह काबुल लौट आया। इस प्रकार हुमायूँ की सफलता बदख्शां पर अपना अधिकार स्थापित करने तक ही सीमित रही।
इधर भारत में भी शेरशाह सूरी के रूप में उसके लिए एक बहुत बड़ी चुनौती उपस्थित थी। जिसने 1540 ई. में उसे यहाँ से भी उखाड़ कर फेंक दिया। तब वह एक निर्वासित शासक की भाँति भारत से बाहर चला गया। 1545 ई. में जब शेरशाह सूरी का देहांत हो गया तो उसके उत्तराधिकारी बहुत ही दुर्बल सिद्ध हुए। तब हुमायूँ के लिए पुनः अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं और वह 1555 ई. में भारतवर्ष लौट आया। तब उसने दिल्ली को एक बार फिर अपने अधिकार में लेने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार हुमायूँ का अफगानिस्तान के साथ कुछ वैसा ही आँख मिचौली का खेल चलता रहा, जैसा उसके पिता बाबर का चलता रहा था। उसे अफगानिस्तान में कोई स्थायी सफलता तो नहीं मिली, परंतु वहाँ से निराश होकर लौटे हुमायूँ को भारत में एक बार फिर अपने पैर जमाने का अवसर उपलब्ध हो गया। इसका लाभ उसे तो अधिक नहीं मिला, क्योंकि वह तो कुछ माह पश्चात् ही संसार से विदा हो गया, परंतु उसके पुत्र अकबर के लिए एक भूमि अवश्य तैयार हो गई, जिस पर उसने आगे चलकर अपना साम्राज्य खड़ा किया।
अकबर -अकबर का अफगानिस्तान के प्रति विशेष लगाव था। इसका कारण यह था कि जब उसका राज्यविहीन पिता हुमायूँ इधर-उधर भटक रहा था, तब वह बचपन में कई वर्ष काबुल में रहा था। काबुल को अकबर अपना पैतृक राज्य मानता रहा। हमाएँ ने काबुल का राज्य अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम को दिया था। 1563 ई. में अकबर ने भी गक्खर का पर्वतीय राज्य जीतकर कमल खान नाम के अपने एक विश्वसनीय व्यक्ति को दे दिया था। वास्तव में अकबर के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण विजय थी। अब तक इसे कोई भी भारतीय मुस्लिम शासक जीत नहीं सका था। जब तक अकबर को महाराणा प्रताप ने भीतरी संघर्षों में उलझाए रखा तब तक अकबर का ध्यान उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा और राज्य विस्तार की ओर नहीं गया। 1585 ई. में महाराणा प्रताप के संघर्षों से अपने आपको बचाकर अकबर ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए दूसरी ओर देखना आरंभ किया। जब उसके भाई मिर्जा हकीम का देहांत हो गया तो काबुल को उसने मुगल साम्राज्य के अंतर्गत सम्मिलित कर लिया। विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘अकबर द ग्रेट मुगल’ में कहते हैं कि इस प्रकार साम्राज्य की सीमा हिंदूकुश तक पहुँच गई, इसे सुदृढ़ करने की अकबर की चिंता स्वाभाविक ही थी। अकबर अपने इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 1585 से 1598 ई. तक लाहौर में डेरा डाले पड़ा रहा था। विंसेंट स्मिथ के माध्यम से ही हमको जानकारी मिलती है कि इस दौरान कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान इत्यादि प्रदेश विजित हुए, कंधार पर मुगल आधिपत्य स्थापित हुआ और सम्राट ने अपनी वैदेशिक नीति की रूपरेखा भी निर्धारित कर ली।
अपने इस सीमावर्ती प्रांत की सुरक्षा और शांति व्यवस्था के लिए अकबर ईरान के साथ पत्र-व्यवहार भी करता रहा था। इतना ही नहीं, उसके साथ दूतों का आदान-प्रदान भी किया गया। मिर्जा हकीम की मृत्यु के उपरांत अकबर ने मानसिंह को काबुल का राज्यपाल नियुक्त किया था। राजा मानसिंह ने ही आगे बढ़कर काबुल को अपने अधीन किया था। मिर्जा हकीम के पुत्र कैकुबाद और अफरासियाब को लेकर मानसिंह दिल्ली आ गया था। उस समय उसने काबुल अपने पुत्र जगतसिंह को सौंप दिया था।
स्वात और बजौर के पर्वतीय क्षेत्र को प्राप्त करने में अकबर को विशेष पुरुषार्थ करना पड़ा था। 1586 ई. में लड़े गए इस युद्ध में 8000 मुगल सैनिक भी मारे गए थे। यहाँ पर बीरबल और टोडरमल के सेनापतित्व में सेना भेजी गई थी। जब राजा टोडरमल को वहाँ भेजा गया, उसकी सहायता के लिए हकीम अब्दुल फतह और राजा मानसिंह जैसे अन्य सेनापतियों को भी लगाया गया था। ‘ तबकाते अकचरी’ से पता चलता है कि अकबर को अपने इस अभियान में सफलता तो मिली, परंतु स्थाई शांति क्षेत्र में स्थापित ना हो सकी।
दीर्घकालीन युद्धों से तंग आकर अफगानिस्तान की स्थानीय जातियाँ अकबर और मुगलों के विरुद्ध हो गई थीं। अपने विरोध को प्रकट करने के लिए उन्होंने आंदोलन चलाए। जिन्हें इतिहास में ‘रोशनिया आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन बहुत देर तक चलता रहा और इसमें मुगलों व स्थानीय जातियों दोनों को ही जन-धन की पर्याप्त हानि उठानी पड़ी।
अकबर ने 1593 ई. में रुस्तम को मुल्तान का सूबेदार बनाया। कंधार के शासक मुजफ्फर हुसैन मिर्जा के विरुद्ध अकबर ने सेना भेजी। मुजफ्फर ने अपनी माँ और अपने शहजादा बहरम मिर्जा को अकबर के पास भेजा उससे क्षमा याचना करते हुए संधि प्रस्ताव रखा। अकबर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करके उसको अपने सम्मुख उपस्थित होने को आदेशित किया। ए. एल. श्रीवास्तव बताते हैं कि मुजफ्फर हुसैन मिर्जा अकबर के सम्मुख उपस्थित हुआ, जहाँ उसे अच्छा सम्मान मिला और उसे 5000 सवारों का मनसब भी नियुक्त किया गया।
इस प्रकार अकबर के समय में अपने पूर्वजों की भाँति अफगानिस्तान पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करने का प्रयास निरंतर जारी रहा। अकबर और उसके पूर्ववर्ती मुगल शासक, क्योंकि अफगानिस्तान को अपना मानते थे, इसलिए वहाँ की गृह राजनीति में भी सक्रिय बने रहना अपना स्वाभाविक अधिकार मानते थे।
उनके मन-मस्तिष्क में एक ही विचार रहता था कि यदि अपने घर अर्थात् अफगानिस्तान में हम मजबूत नहीं रहे तो भारतवर्ष में भी मजबूत नहीं रह पाएँगे, वैसे भी उस समय अफगानिस्तान भारत का ही एक अंग था। मुगल यह भी जानते थे कि अभी तक भारतवर्ष पर जितने भी आक्रमण हुए हैं, वह सब अफगानिस्तान की ओर से ही हुए हैं। यदि इस सीमावर्ती क्षेत्र में कोई अन्य शक्ति आकर बैठ गई तो वह उन्हें भारतवर्ष में सुरक्षित नहीं रहने देगी। यही कारण था कि उत्तर-पश्चिमी सीमा के इस प्रवेश द्वार को मुगल अपने आधिपत्य और नियंत्रण में रखने का सदा भरसक प्रयास करते रहे।
जहाँगीर – जहाँगीर अकबर का सुपुत्र था। वह अपने पिता अकबर की मृत्यु के उपरांत 1605 ई. में हिंदुस्तान का बादशाह बना। उसने बादशाह बनते ही अफगानिस्तान की ओर ध्यान दिया। यद्यपि वह अपने पिता अकबर के समान कूटनीतिज्ञ और सफल शासक नहीं माना जाता, परंतु वह भी इतना तो जानता ही था कि उसके साम्राज्य के लिए उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और अफगानिस्तान का क्या महत्त्व है? यही कारण था कि उसने भी अपने पिता अकबर की भाँति अफगानिस्तान को अपनी राजनीति में विशेष स्थान दिया। जहाँगीर ने अपने शासनकाल में तूरान विजय के लिए विशेष अभियान चलाया। तूरान में वली मोहम्मद जहाँगीर का समकालीन शासक था। जहाँगीर के शासनकाल में तूरान की आंतरिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि वहाँ का शासक वली मोहम्मद आंतरिक विद्रोहों से दुखी होकर ईरान भाग गया। तब ईरान के शासक ने खुरासान को अपने नियंत्रण में लेकर कंधार की ओर भी बढ़ना आरंभ किया। जहाँगीर ने परिस्थितियों को समझकर स्वयं काबुल जाने का निर्णय लिया। जहाँगीर के काबुल पहुँचने पर वहाँ के शासक शाह अब्बास ने जहाँगीर से समझौता कर लिया। इसके पश्चात् उसने जहाँगीर को प्रसन्न करने के दृष्टिकोण से अनेकों बहुमूल्य उपहार उसके पास भेजे। 1611, 1615, 1616 और 1620 ई. में ईरान का राजदूत बहुत ही मूल्यवान उपहारों को लेकर अपने शासक शाह अब्बास की ओर से मुगल दरबार में उपस्थित हुआ था।
डॉक्टर मथुरा लाल शर्मा ने शाह अब्बास की ओर से अपने राजदूत के माध्यम से भेजे गए एक पत्र का वर्णन किया है । जिससे पता चलता है कि शाह अब्बास जहाँगीर के प्रति कितना चाटुकार यह स्वामीभक्त हो गया था? उस पत्र की भाषा कुछ इस प्रकार है-
“सम्राट जहाँगीर साम्राज्य के पुष्प सिंहासन पर विराजमान है। वैभव और उच्च आनंद दमक रहा है। उसका प्रताप सूर्य के समान है। उसका भाग्य अत्यंत तरुण है। इस प्रसिद्ध सम्राट का शासन देश-देशांतरों पर है। वह समस्त संसार को वश में किए हुए है। वह अनेक देशों का विजेता है। वह सिकंदर के समान कीर्तिमान है। डेरियस की ध्वजा से अलंकृत है। कीर्ति और महत्ता के सिंहासन पर स्थित है। सात द्वीपों पर उसका अधिकार है। उसकी संपत्ति और समृद्धि निरंतर बढ़ती रहती है। आनंद के उपवन में विहार करता है। वह सब ग्रहों का स्वामी है। वह साम्राज्य का पूर्ण स्वरूप है। वह आकाश की गूढ़ बातों का ज्ञाता है। वह विद्या और सूक्ष्म दृष्टि का अलंकार है। मानव पूर्णता की प्रतिमा है। भगवान की कीर्ति का प्रतिबिंब है। आत्मा को उच्च करने वाला है। भाग्य का वर्धक है। आकाश का सूर्य है। वह सृष्टा की कृपा की छाया है। उसका ऐश्वर्य जमशेद के समान है। यह संसार का रक्षक है। वह भगवान के अनुग्रह की नदिया है। वह अनंत दया का स्रोत है। वह पवित्रता के मैदान की हरियाली है। भगवान करे उसके राज्य पर किसी की कुदृष्टि ना पड़े। उसकी पूर्णता सत्य पर आश्रित रहे, उसके सदगुणों और उपकारों की कथा लिखी नहीं जा सकती।”
ऐसी चाटुकारिता में मुगल बादशाह जहाँगीर अपने इस सीमावर्ती राज्य की सुरक्षा के प्रति असावधान हो गया। फलस्वरूप इसी शाह अब्बास ने इराक और खुरासान की सेनाओं के साथ मिलकर कंधार के दुर्ग को घेर लिया। ‘वाकियात ए जहाँगीर’ इलियट एंड डॉउसन के अनुसार बादशाह ने बिना किसी बेचैनी और भय के शाह अब्बास का सामना करने के लिए सेना भेजने का निर्णय लिया। बादशाह ने शाहजहाँ से इस सेना का नेतृत्व करने के लिए कहा, परंतु शहजादे शाहजहाँ ने वहाँ जाने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप शाह अब्बास ने 45 दिन के घेरे के पश्चात् कंधार का किला जीत लिया। इसके पश्चात् शाह अब्बास ने राजदूत भेजकर मुगल सम्राट को यह भी संदेश दे दिया कि कंधार का दुर्ग न्यायपूर्वक ईरानियों का है। जहाँगीर के लिए उचित यही था कि वह स्वयं ही इस किले को उनके अर्पण कर देता। यह एक दुखद सत्य है कि जहाँगीर के शासनकाल में जब कंधार उसके हाथों से एक बार निकल गया तो वह उसे पुनः कभी भी प्राप्त नहीं कर पाया। यद्यपि इसकी प्राप्ति के लिए उसने भरसक प्रयास किए। कंधार में अफगान कबीलों ने भी विद्रोह किया। अफगान कबीलों ने मुगलों को नाकों चने चबा दिए थे, परंतु जहाँगीर किसी भी प्रकार से उनके विद्रोह को शांत नहीं कर पाया था। मुगल जितने ही अधिक वहाँ पर अत्याचार करते जा रहे थे, उतने ही अधिक ये कबीले उनके विरोध में विद्रोह पर उतारू होते जा रहे थे। 1617 ई. में महावत खां को जहाँगीर ने इस अपेक्षा के साथ वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया था कि संभवतः महावत खान यहाँ शांति स्थापित करने में सफल होगा? महावत खान की सहायता के लिए राजा टोडरमल के पुत्र राजा कल्याण को भी नियुक्त किया गया, परंतु सकारात्मक परिणाम फिर भी प्राप्त नहीं हो सके।
कंधार के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इतिहासकार ठाकुर उपेंद्र ने लिखा है कि *”पर्शिया अथवा मध्य एशिया का कोई भी विजेता आसानी से भारतवर्ष पर इसी मार्ग से आक्रमण कर सकता है। यदि कंधार काबुल के शासकों के नियंत्रण में न रहा तो फिर उनकी राजधानी पर खतरा है। एक ऐसे युग में जबकि काबुल दिल्ली साम्राज्य का एक अंग था, हिंदुस्तान की सुरक्षा बहुत कुछ कंधार की सुरक्षा पर निर्भर करती थी। इसके अतिरिक्त कंधार एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र भी था। जहाँ भारत, पर्शिया, टर्की और मध्य एशिया के व्यापारी अपनी-अपनी वस्तुओं की खरीद बिक्री के लिए एकत्र होते थे। 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत से लगभग 14 हजार ऊँटों पर सामान लादकर पर्शिया जाया करता था।”
इसलिए जहाँगीर या उसके पूर्ववर्ती या पश्चात्वर्ती मुगल शासकों के लिए कंधार का बहुत अधिक महत्त्व था, परंतु दुर्भाग्यवश जहाँगीर इसे भरसक प्रयास करने के उपरांत भी अपने साथ नहीं रख सका।
शाहजहाँ – शाहजहाँ ने उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के इस महत्त्वपूर्ण सामरिक क्षेत्र का महत्त्व समझते हुए इसकी ओर अपने पूर्ववर्ती मुगल शासकों की भाँति ही पूरा ध्यान देने का प्रयास किया। इस मुगल सम्राट ने 1638 ई. में कंधार पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। परंतु उसके लिए भी यह सफलता स्थायी सफलता नहीं बन पायी। उसके साम्राज्य से कंधार 1649 ई. में फिर से ईरानियों के अधिकार में चला गया। शाहजहाँ ने कंधार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपने शासनकाल में एक 1649 ईस्वी में तो दो 1652 ई. में कुल तीन सैनिक अभियान चलाए। जिससे कि वह इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर सके, परंतु उसे हर सैनिक अभियान में असफलता ही प्राप्त हुई।
1638 ई. में ईरानी अधिकारी अली मरदान खान के हाथों कंधार मुगलों को प्राप्त हुआ था। अली मरदान ने उस समय दुर्ग में शाहजहाँ के नाम का खुतबा भी पढ़वा दिया था। शाहजहाँ ने भी अली मरदान को तुरंत ही 6 हजारी मनसब बख्शा और उसे कश्मीर का सूबेदार भी नियुक्त कर दिया। उस समय कंधार का मुगल सूबेदार कुलिज खान था। उसके नेतृत्व में मुगल सैनिकों ने ईरानियों को वहाँ से भगा दिया और कंधार का सारा का सारा वह क्षेत्र अपने नियंत्रण में ले लिया, जिसे इससे पूर्व ईरान का शाह जीत चुका था।
1642 ई. में ईरान के शाह सफी का देहांत हो गया। तब शाह अब्बास द्वितीय ईरान की गद्दी का उत्तराधिकारी बना। जो उस समय 11 वर्ष का नाबालिग बच्चा था। 1648 ई. में जब वह बालिग हुआ तो सबसे पहले उसने कंधार को ही जीतने के लिए तैयारी करनी आरंभ की। उसकी योजनाओं से यद्यपि शाहजहाँ भी सजग और सावधान हो गया था, परंतु शाहजहाँ को यह विश्वास था कि शरद ऋतु में ईरान का शाह कंधार पर कोई आक्रमण नहीं करेगा। जब शाह ईरान को इस बात का पता चला तो उसने शरद ऋतु में अर्थात् 16 दिसंबर, 1648 ई. को कंधार पर आक्रमण कर दिया। 11 फरवरी, 1649 ई. को कंधार के मुगल शासक दौलत खान ने शाह ईरान की सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार कंधार को शाह ईरान अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते फिर से प्राप्त करने में सफल हो गया। इसके पश्चात् शाहजहाँ ने एक मई 1649 ई. में और दूसरा 1652 में और तीसरा सैन्य अभियान कंधार को फिर से प्राप्त करने के बारे में चलाए, वह सब असफल रहे।
औरंगजेब – औरंगजेब को यह भली प्रकार ज्ञात था कि ईरान के शाह और मध्य एशिया की जातियों की सैनिक क्षमता मुगलों से किसी भी प्रकार से कम नहीं है। दूसरी बात यह भी थी कि औरंगजेब को दक्षिण में शिवाजी जैसे हिंदूवादी शासक ने बहुत बुरी तरीके से युद्ध में उलझा रखा था, जिससे उसकी सैनिक शक्ति का क्षरण दक्षिण में होता रहा। फलस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा की ओर औरंगजेब अपने शासनकाल में उतना ध्यान नहीं दे पाया जितना कि उसे देना चाहिए था। उसने अपने समय की परिस्थितियों के अनुसार उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में ईरानी और मध्य एशियाई जातियों के साथ समन्वय बनाए रखकर अपने लिए रक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाने में ही अपना भला देखा। 1677 ई. में औरंगजेब ने आमिर खान नामक अपने विश्वस्त सरदार को काबुल का सूबेदार नियुक्त किया था। मसाइझे आलमगीर के अनुसार आमिर खान की मृत्यु 1698 ई. में हुई तो उसके पश्चात् औरंगजेब ने अपने बड़े बेटे शाह आलम को यह उत्तरदायित्व प्रदान किया। औरंगजेब ने अपने बेटे शाह आलम का नायक नासिर खान को बनाया। इन दोनों के समन्वय से कुछ समय के लिए काबुल के क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित हो गई। इस समय में औरंगजेब स्वयं भी इस सीमांत प्रांत का ध्यान रखता था। उसकी सावधानी का ही परिणाम था कि सीता अपना शहजादा अकबर जो इस क्षेत्र में विद्रोह करने पर उतारू होकर भी विद्रोह करने में सफल नहीं हो पाया था।
औरंगजेब की मृत्यु 1707 ई. में हुई तत्पश्चात् उसका उत्तराधिकारी बहादुर शाह बना जिसने अपने शासनकाल में अली मरदान खान के लड़के इब्राहिम खान को काबुल का सूबेदार नियुक्त किया यद्यपि इब्राहिम खान उतना सुयोग्य शासक नहीं था जितने सुयोग्य शासक की इस सीमावर्ती क्षेत्र के लिए आवश्यकता थी। जब उसकी अयोग्यता की जानकारी बहादुर शाह जफर को हुई तो उसने उसको सूबेदारी के पद से हटा दिया। नासिर खान को फिर से उसी पद पर नियुक्त कर दिया गया। नासिर खान की माँ अफगान थी और यही कारण था कि उसके अपनों के साथ मधुर संबंध थे। ‘मआशिर उल उमरा’ से हमें पता चलता है कि नासिर खान की माँ ने काबुल प्रदेश की ठीक प्रकार से व्यवस्था की और दरों को सुरक्षित रखा।
कामवर का कहना है कि सैयद अब्दुल्ला खान के परामर्श से 1719 ई. में नासिर खान के स्थान पर सर बुलंद खान को काबुल का सूबेदार नियुक्त किया गया। बुलंद खान का लड़का आजम खान जब अपने सैनिक अभियान के पश्चात् काबुल से पेशांवर लौट रहा था तो कबायली लोगों ने उस पर धावा बोल दिया, उन्होंने उसकी संपूर्ण सामग्री लूट ली और उसके बहुत से सैनिक मार डाले। सैय्यदों के पतन के पश्चात् नासिर खान द्वितीय को पुनः काबुल का सूबेदार नियुक्त किया गया। बहादुरशाह ने अपने शासनकाल में मीर वैस को अली मरदान की उपाधि दी और उसे 6000 की मनसब प्रदान की। मीर वैस वही व्यक्ति था जिसने 1709 ई. में विद्रोह कर दिया था और कंधार के किले तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया था।
1715 ई. में जब मीर वैस की मृत्यु हुई तो उसके भाई ने उसके उत्तराधिकारी के रूप में मुगल अधीनता स्वीकार कर ली। जबकि इसी समय मीर वैस के पुत्र महमूद ने अपने चाचा को विस्थापित तथा सफविद राज्य पर जोरदार हमला बोल दिया। लंबे घेरे के पश्चात् 22 अक्टूबर, 1722 ई. को उसने ईरानी राजधानी पर अपना अधिकार जमा लिया और सढ़वी शाह सुल्तान हुसैन को गद्दी छोड़ने पर बाध्य करके अपने को बादशाह घोषित कर लिया।
जब नादिर शाह का उत्थान हुआ तो उसने 19 जून, 1738 ई. को काबुल को जीत लिया। इस प्रकार अफगानिस्तान पर 19 जून, 1738 ई. को नादिरशाह का अधिकार हो गया। 13 फरवरी, 1739 ई. के करनाल के युद्ध में उसने मोहम्मद शाह रंगीला को पराजित कर दिया। उसके पश्चात् 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने मुगल सत्ता पर करारी चोट करते हुए उसे सदा-सदा के लिए अफगानिस्तान से विदा कर दिया। अफगानिस्तान के हाथों से निकलते ही मुगल साम्राज्य का जर्जर भवन भरभरा कर गिर पड़ा। इसके पश्चात् कभी अफगानिस्तान ने अपने आपको भारत का अंग नहीं माना। यद्यपि वह 26 मई, 1876 ई. तक भारत का अंग बना रहा। 1876 ई. में ब्रिटिश भारत और रूस के बीच गंडामक की संधि हुई जिसमें अफगानिस्तान को एक बफर स्टेट की मान्यता प्रदान कर दी गई।
इस प्रकार गंडामक की इस संधि के माध्यम से वह अफगानिस्तान जो कभी भारत का एक अभिन्न अंग हुआ करता था, धर्मांतरण की भेंट चढ़कर धीरे-धीरे भारत से दूर होते-होते उस स्थिति में आ गया, जब उसने अपने लिए एक अलग देश की मान्यता प्राप्त कर ली। जब 1947 ई. में सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ तो भारत के किसी भी कांग्रेसी नेता का यह कहने का साहस नहीं हुआ कि अफगानिस्तान कभी हमारा ही था, इसलिए हम सांप्रदायिक आधार पर देश का विभाजन नहीं होने देंगे और भारत को आजाद कराने के लिए अफगानिस्तान को भी अपने साथ सम्मिलित कर अपनी सीमाएँ ईरान तक मानेंगे। सांप्रदायिक आधार पर भारत से दूरी बनाते-बनाते अफगानिस्तान एक अलग देश बन चुका था तो उसकी प्रेरणा से ही यदि पाकिस्तान माँगने वालों ने पाकिस्तान की माँग आगे बढ़ाई हो तो इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।… साथ ही यदि अभी तक कश्मीर में अलगाववाद अपने चरम पर रहा है तो उसके बारे में भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वह पाकिस्तान से प्रेरणा ले रहा है कि जैसे पाकिस्तान लड़ते-लड़ते एक दिन अलग देश बन गया वैसे ही हम भी एक दिन एक अलग देश ले ही लेंगे। भारत को सचमुच अपने अतीत से बहुत कुछ सीखना होगा और देश की एकता और अखंडता के लिए मजबूत नीतियों को अपनाना होगा।
क्रमशः