आसक्ति-अहंकार को,
जिसने लिया जीत ।
उद्वेगों से दूर मन,
हो गया त्रिगुणातीत॥2708॥
तत्त्वार्थ :- यह दृश्यमान प्रकृति परम पिता परमात्मा की सुन्दरतम रचना है। ‘प्र’ से अभिप्राय प्रमुख, विशिष्ट अर्थात् सुन्दरतम और कृति से अभिप्राय है रचना यानि कि परम पिता परमात्मा की सुन्दर रचना,यदि आप प्रकृति तात्विक विवेचन करेंगे तो पायेंगे यह दृश्यमान प्रकृति अथवा संसार त्रिगुणात्म है। जिसमें रज, तम ,सत तीनों गुणो का समवेश है । फलस्वरूप हमारा तन और मन भी त्रिगुणात्मक है, यहाँ तक की हमारी सोच भी त्रिगुणात्मक है। अन्न, औषधि और पदार्थ जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे सूक्ष्म,शरीर,मन,बुद्धि,चित्त, अहंकार अर्थात् अन्तःकरण चतुष्ट्य पर निरन्तर पड़ता रहता है जो हमारे कर्माशय और प्रारब्ध पर गहरा प्रभाव छोड़ते है। अब प्रश्न पैदा होता है कि प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वभाव से कैसे त्रिगुणातीत हुआ जाय? ताकि हमारा कर्माशय और प्रारब्ध अति उत्तम बने।
वस्तुतः प्रलय और मोक्ष में ही त्रिगुणातीत हुआ जा सकता किन्त हमारे ऋषियों ने मनीषियों ने योगियों ने इसका निदान बताया है।
1 – जब हमारे चित्त में सत्त्व गुण की प्रधानता होती है तो ज्ञान में वृद्धि स्वतः होती है किन्त साधक को चाहिए कि वह निरन्तर सतर्क रहे और अपने ज्ञान के आगार पर कभी अभिमान न करे जैसे महात्मा गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई किन्तु वे सदा अहंकार शून्य रहे और तप, त्याग आनन्द- और शान्ति की मूर्ति कहलाये ।
क्रमशः