तलाशनी ही पड़ेंगी किसान आंदोलन के समाधान की राहें
ललित गर्ग:-
गाजियाबाद (ब्यूरो डेस्क ) मोदी सरकार 3.0 के पहले बजट में वित्त मंत्री ने सरकार की जिन 9 प्राथमिक्ताओं का जिक्र किया उसमें विकसित भारत लिये रोजगार, महंगाई नियंत्रण, कृषि, महिला-युवा विकास के साथ-साथ मध्यम वर्ग के लिये पहली बार सकारात्मक सोच सामने आयी है। बावजूद इसके विपक्षी दल किसी न किसी बहाने उसका विरोध करते हुए संसद में हंगामा बरपा रहे हैं। सभी क्षेत्रों के लिये न्यायसंगत एवं विकास योजनाओं के बावजूद विरोध होना अतिश्योक्तिपूर्ण है। विपक्षी दल इस आरोप के सहारे बजट का विरोध कर रहे हैं कि उसमें अन्य राज्यों के साथ भेदभाव किया गया है। इस विरोध का आधार बिहार और आंध्र प्रदेश की विभिन्न विकास योजनाओं के लिए विशेष घोषणाएं के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की वैधानिक गारंटी और अन्य मांगों को लेकर किसी तरह की घोषणा न करने के मुद्दे हैं। विपक्षी दल किसान आन्दोलन को उग्र करने के प्रयास करेंगे। ऐसा इसलिये भी लग रहा है कि बुधवार को ही नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से नई दिल्ली में मुलाकात करने के बाद किसान नेताओं ने साफ भी कर दिया है कि दिल्ली मार्च का उनका कार्यक्रम जारी रहेगा। संसद सत्र जारी है, ऐसे में किसान आंदोलन को लेकर प्रतिपक्ष सरकार पर हमलावर होगा, एक बार फिर किसान आन्दोलन के उग्र से उग्रतर होने की संभावनाएं हैं, जिससे आम जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने किसान-आन्दोलन से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए पंजाब-हरियाणा से सटे शंभू बॉर्डर पर यथास्थिति बनाए रखने का औचित्यपूर्ण आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी अहम है कि एक ‘तटस्थ मध्यस्थ’ की आवश्यकता है जो सरकार और किसानों के बीच विश्वास कायम कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाने का प्रस्ताव भी दिया है। प्रश्न है कि कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल न्यायालय के इस महत्वपूर्ण सुझाव को आकार देने की बजाय किसान-आन्दोलन को उग्र करने की मंशा रखते हुए अराजक माहौल ही क्यों बनाना चाहते है? क्यों अव्यवस्था फैलाने चाहते हैं? निश्चित ही शंभू बॉर्डर खोले जाने पर कानून-व्यवस्था को लेकर संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। यह बात सही है कि शंभू बॉर्डर खोले जाने से आंदोलनरत किसानों के दिल्ली कूच की राह खुल सकती है। आंदोलनरत किसान संगठन पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि जब भी सीमाएं खुलेंगी, किसान ट्रैक्टर ट्रोलियों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ेंगे। शीर्ष अदालत हरियाणा सरकार की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई है जिसमें उसे एक सप्ताह के भीतर अंबाला के पास शंभू सीमा पर बैरिकेड्स हटाने के लिए कहा गया था जहां किसान 13 फरवरी से डेरा डाले हुए हैं।
केन्द्र सरकार एवं विपक्षी दलों को मिलकर इस विकट समस्या का समाधान निकालने के लिये कोई सार्थक प्रयास करने चाहिए। किसानों के भरोसे को जीतने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन नेशनल हाई-वे पर जेसीबी और बख्तरबंद ट्रैक्टर ट्रॉली की इजाजत तो इस समस्या का समाधान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की समिति के जरिए बातचीत का जो प्रस्ताव दिया है उस पर सरकार की प्रतिक्रिया आनी बाकी है। लेकिन दोनों पक्षों को ही आंदोलन खत्म करने के लिए बातचीत के माध्यम से समाधान का रास्ता निकालने की पहल करनी होगी। किसान आंदोलन के उग्र रूप को भी यह देश देख चुका है, भारी नुकसान भी हुआ है। किसानों की समस्याएं अपनी जगह हैं और इनकी आड़ में होने वाली राजनीति अपनी जगह। वैसे भी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी और कर्ज माफी जैसे मुद्दों पर समिति के गठन का प्रस्ताव केन्द्र सरकार पहले ही दे चुकी है। यह बड़ा सच है कि बात करने से ही बात बनती है। बातचीत की हर संभावना का स्वागत किया जाना चाहिए। किसी भी आंदोलन का लंबे वक्त तक जारी रहना सचमुच चिंताजनक है। ऐसे आन्दोलन को उग्र करने की विपक्षी दलों की मानसिकता भी संदेहों एवं अविश्वासों से घिरी है। अच्छा हो कि विपक्षी दल एवं नेता प्रचार पाने के लिए विरोध की बेतुकी रस्म निभाने के बजाय बजट में कृषि क्षेत्र के लिये किये गये बड़े ऐलानों पर गौर करें। सरकार ने एग्रीकल्चर सेक्टर के लिए कई बड़े ऐलान किए हैं। इनमें कृषि उत्पादकता को बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए मौसम में बदलाव को बरदाश्त कर सकने वाली फसलों की प्रजातियों को विकसित करने पर जोर दिया गया है। इसके लिए एग्रीकल्चर रिसर्च के बजट को भी बढ़ाया गया है।
विपक्षी पार्टियां लगातार किसानों एवं कृषि को लेकर सरकार को घेरने का प्रयास कर रही हैं। कोई न कोई बहाना चाहिए विरोध का, अब किसान-आन्दोलन के सहारे अपनी राजनीति चमकाने की जुगत में देश का कितना नुकसान होगा, कहा नहीं जा सकता। जबकि भाजपा सरकार द्वारा भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वृद्धि और विकास में कृषि की भूमिका को ध्यान में रखते हुए, इस बजट में कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान दिया गया है। कृषि में उत्पादकता, किसानों के हितों एवं कृषि की सुदृढ़ता को बढ़ाना बजट द्वारा निर्धारित शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक है। उल्लेखनीय है कि बजट में जो नौ प्राथमिकताएं शामिल है, उनमें कृषि एवं संबंधित क्षेत्रों के लिए करीब 1.52 लाख करोड़ रुपये के आवंटन से खेती-किसानी की दशा-दिशा सुधरने की आस बढ़ी है। विभिन्न फसलों की प्रस्तावित 109 किस्मों से भी उत्पादकता में बढ़ोतरी की उम्मीद है। ये किस्में जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ रही प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं के विरुद्ध कवच का काम करेंगी। दलहन-तिलहन को प्राथमिकता, डिजिटल क्राप सर्वे के अतिरिक्त किसान उत्पादक संघों यानी एफपीओ एवं भंडारण और आपूर्ति शृंखला पर ध्यान देने जैसे उपाय उपज को पहुंचने वाले नुकसान को घटाने एवं कीमतों में स्थायित्व सुनिश्चित करेंगे। ग्रामीण विकास के लिए 2.66 लाख करोड़ की बड़ी राशि आवंटित की गई है। भले ही सरकार ने सीधे तौर पर बजट में किसानों की आय बढ़ाने और एमएसपी पर खरीद सुनिश्चित न किए जाने से किसानों को निराशा हुई हो लेकिन बजट में तिलहन में आत्मनिर्भरता, सब्जी उत्पादन केन्द्र विकसित करने और खेती के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की बात कही गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक इस बजट से आने वाले समय में एग्रीकल्चर सेक्टर की विकास की रफ्तार बढ़ाने में मदद मिलेगी जो सीधे तौर पर किसानों की आय भी बढ़ायेगा एवं उन्नत कृषि को प्रोत्साहन भी देगा।
असल में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की वैधानिक गारंटी और अन्य मांगें राजनीतिक मुद्दे बन गये हैं, जिनके चलते हो रहा आन्दोलन न केवल किसानों के बल्कि आम जनता के लिये भी परेशानी का सबब है। जबकि सरकार ने धान का उत्पादन करने वाले किसानों के लिए एमएसपी को बढ़ा कर 2300 कर दिया है जो स्वागत योग्य कदम है। उम्मीद थी की सरकार एमएसपी पर खरीद को सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम उठाएगी। लेकिन बजट में इस तरह का कोई प्रावधान न होने से काफी निराशा हुई है। दुनिया भर के विकसित देश अनिवार्य रूप से किसानों की उपज को एमएसपी पर खरीदते हैं। लेकिन भारत में किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाता। विपक्षी दल किसानों के हित में आन्दोलन की बजाय बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़े। स्तरीय विरोध हो, किसानों को गुमराह करने एवं उनका मनोबल कमजोर करने के लिये विपक्षी दल उजालों पर कालिख न पोते, इससे उन्हीं के हाथ काले होने की संभावनाएं है।