मानव जीवन को सफल बनाने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य के अंदर उच्च प्रकार की आस्तिकता उसके हृदय में ईश्वर के प्रति भरी हुई होनी चाहिए। आस्तिकता को अपने अंदर भरने के लिए मनुष्य ईश्वर को परिछिन्न अर्थात एक- देसी अथवा किसी एक स्थान पर रहने वाला न मानकर उसको विभु अर्थात सर्वत्र विद्यमान रहने वाला माने। इसको एक उदाहरण से समझ लेते हैं ।
जैसे आकाश में प्रत्येक वस्तु स्थित है और प्रत्येक वस्तु के भीतर भी आकाश है, ऐसे ही वह परमात्मा इस जगत में सर्वत्र ओत- प्रोत हो रहा है ।कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो ईश्वर में न हो और कोई वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें ईश्वर न हो। ऐसा मानकर ,तथा ऐसा अपने व्यवहार में और आचरण में लाने से मनुष्य का हृदय पवित्र और नम्र हो जाता है। संसार की प्रत्येक दूसरी वस्तु और जीवधारी के प्रति ऐसे मनुष्य का आचरण और व्यवहार बदल जाता है ।तथा वह प्रत्येक वस्तु में और प्रत्येक जीवधारी में ईश्वर का दर्शन करता है। ऐसा मनुष्य निष्पाप हो जाता है। एवं दूसरे मनुष्य के साथ अधिक प्रेम का व्यवहार करने लगता है ।परंतु इसमें प्राथमिक शर्त यही है कि एक मनुष्य को अपने जीवन को सफल बनाने के लिए सर्वप्रथम ईश्वर को सर्वव्यापक मानना और समझना होगा।
ऐसा मनुष्य एकांत में पाप करने की भावना से विमुक्त हो जाता है। उसको यह हमेशा स्मरण में रहता है कि ईश्वर यहां भी मुझे देख रहा है और दूसरी जगह जाकर के पाप करूंगा तो वहां भी देखेगा।
इसको दूसरे शब्दों में ऐसे कह सकते हैं कि मनुष्य के हृदय में नास्तिकता नहीं आनी चाहिए जब तक उसके हृदय में नास्तिकता नहीं आएगी तब तक वह पाप नहीं कर सकता। नास्तिकता आती ही तब है जब ऐसा मनुष्य ईश्वर को सर्व व्यापक नहीं मानता। अर्थात नास्तिकता का अर्थ हुआ कि प्रभु को सर्वत्र नहीं मानना। जबकि वह विभु है।
उर्दू के शायर ने कितना सुंदर लिखा है।
“जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर।
या वह जगह बता कि जहां पर खुदा न हो।”
इस प्रकार खुदा सब जगह है।
वही सर्वमान्य सर्वोपरि सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। तो वह मंदिर में भी है, वह मस्जिद में भी है, वह गुरुद्वारे में भी और वह चर्च में भी है।
यदि हम ऐसा स्वीकार कर लें तो मनुष्य द्वारिका ,काशी, मथुरा, हरिद्वार, रामेश्वरम, कामाख्या, हिंगलाज, वैष्णो देवी ,काबा, कर्बला ,मक्का, अमृतसर आदि स्थान पर उस सार्वभौम सत्ता को खोजने के लिए भागते नहीं फिरेंगे।
इसलिए यह व्यर्थ के झगड़े धर्म के आधार पर लिंग के आधार पर, भाषा के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर नास्तिकता के कारण ही हैं। इसीलिए जगत में अशांति है। इसीलिए मारपीट है, इसीलिए हिंसा है लेकिन केवल एक ईश्वर को सर्वोपरि मान लेने और सर्वव्यापक मान लेने पर ये झगड़े नष्ट हो जाएंगे। तथा सर्वत्र प्रेम सौहार्द भाव की स्थापना हो जाएगी।
ऐसा मान लेने पर दूसरे के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न होता है। प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगता है। किसी भी मनुष्य को व्यक्ति अछूत नहीं मानता है , किसी को छोटा बड़ा अथवा अन्य भेदभाव नहीं करता।बल्कि वह सभी को ईश्वर का बनाया हुआ मानकर सभी के प्रति करुणा ,मैत्री और सहाय भाव रखेगा । यदि नास्तिकता का भाव हृदय में उत्पन्न होगा तो मनुष्य के हृदय में घृणा का वास होगा। घृणा से ही समस्त हिंसक भाव उत्पन्न होते हैं।नास्तिकता मनुष्य के अंदर छाती ही तब है जबकि वह दूसरे के अंदर ईश्वर की सत्ता का अभाव स्वीकार करेगा ।लेकिन निष्पापता और प्रेम से मनुष्य के हृदय में कठोरता का अभाव हुआ करता है । तथा विनम्र भाव व्याप्त होता है। यह तभी उत्पन्न होगा जबकि ईश्वर के व्यापकत्व पर विश्वास हो जाएगा। ईशोपनिषदनिषद में कितना सुंदर कहा गया है ।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
अर्थात वह ईश्वर इस जग के कण कण में विद्यमान है।
(ईशोपनिषद के आधार पर)
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,ग्रेटर नोएडा
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