हिंदुत्व आरएसएस और कम्युनिस्ट
साम्यवाद की विचारधारा क्या भारतीय संस्कृति के अनुकूल है? या साम्यवाद का भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास से भी कोई संबंध है? यदि इन जैसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाऐं तो ज्ञात होता है कि वास्तविक साम्यवाद भारतीय संस्कृति में ही है। संसार का कम्युनिस्ट समाज भारतीय साम्यवाद को समझ नहीं पाया है और ना ही समझ पाएगा। क्योंकि कम्युनिस्ट चिंतन में उतनी गहराई और गंभीरता नहीं है, जितनी भारतीय संस्कृति को समझने के लिए अपेक्षित है। कम्युनिस्ट चिंतन जैसे-जैसे भारतीय संस्कृति के विशाल सागर की गहराई नापने के लिए नीचे उतरता जाता है तो एक समय आता है कि वह नीचे उतरता-उतरता अचानक रूक जाता है, थक जाता है और हांफने लगता है। तब कई चिंतक पूर्वाग्रही होकर भारतीय संस्कृति के विषय में अपने दुराग्रही निष्कर्ष प्रस्तुत कर चलते बनते हैं।अब हम थोड़ा सा अपने चिंतन को आगे बढ़ाते हैं। वर्तमान कम्युनिस्टों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में भोजन, वस्त्र और आवास को स्वीकार किया है। उनका चिंतन पिछले सौ वर्ष से इन तीनों चीजों के चारों ओर ही सिमटा पड़ा है। इससे आगे वह बढ़ा ही नहीं। जबकि मानव की मूलभूत आवश्यकता कुछ और भी है। भोजन, वस्त्र और आवास की आवश्यकता से आगे भी कुछ है। वैदिक संस्कृति में भोजन, वस्त्र और आवास से पहले मानव को मानव बनना पड़ता है। क्योंकि भोजन, वस्त्र और आवास ये मानव की मूलभूत आवश्यकता मानी गयी हंै। इसलिए जब मानव को केन्द्रित करके कोई चिंतन किया जा रहा हो तो उस समय यह भी देखना पड़ेगा कि वह मानव वास्तव में ही मानव है भी या नहीं। मनुष्य दो रूपों में जीवन जीता है एक जंगली रूप में दूसरा प्राकृतिक रूप में। जंगली रूप में जीवन जीना और प्राकृतिक रूप में (कुदरती तौर पर) जीवन जीना दोनों ही मानव की विभिन्न अवस्थायें हैं। विपरीत अवस्थाएं हैं। उसका जंगली रूप उसकी दानवता है, और प्राकृतिक रूप उसकी मानवता है। उसकी दानवता में अराजकता है, असभ्यता है, अपसंस्कृति है, अभद्रता है, अशोभनीयता है और चिंतन की निम्नता है। जबकि उसकी मानवता में एक व्यवस्था है, सभ्यता है, संस्कृति है, भद्रता है, चिंतन की उदात्त अवस्था है।वेद मानव को मानव बनने की सीख देता है और कहता है कि संसार में उच्च मानवीय समाज की संरचना करना तेरे जीवन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। इसलिए वेद की आज्ञा है-मनुर्भव: जनया दैव्यं जनम। अर्थात हे मनुष्य तू मानव बन और दिव्य संतति को उत्पन्न कर।वेद की बात स्पष्ट है कि मानव समाज की उच्चता को स्थापित करने के लिए मनुष्य मनुष्य बने और दिव्य सन्तति को उत्पन्न करे। मनुष्य मनुष्य कब बनेगा? वेद कहता है-मत्वा मयि सीव्यति अर्थात तू मननशील होकर विचारपूर्वक कार्य कर। जब मनुष्य मननशील होकर विचारपूर्वक कार्य करता है, तभी वह मनुष्य कहलाता है। अब बात आती है कि मनुष्य विचार पूर्वक कार्य कब करेगा? स्वाभाविक है कि जब धर्म की शिक्षा से प्रेरित होगा, अनुशासित होगा। कम्युनिस्टों की सुविधा के लिए हम यह भी स्पष्ट करते चलें कि धर्म की शिक्षा और मजहबी तालीम में उतना ही अंतर है जितना कि मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था और जंगली अवस्था में अंतर है। मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था उसका धर्म है तो जंगली अवस्थ उसका मजहब है।ऊपरी वर्णन से एक बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य के लिए भोजन, वस्त्र और आवास से पूर्व उसका ज्ञानवान सुसंस्कृत और धार्मिक होना आवश्यक है। उसके लिए एक व्यवस्था है कि बच्चा (कम्युनिस्टों के बच्चों सहित) अपनी शिक्षा प्राप्ति की अवस्था में भोजन, वस्त्र और आवास की समस्या से मुक्त रहता है। घर में माता-पिता और बड़े-बुजुर्ग उसे मनुष्य बनाने के लिए चिंतित रहते हैं और कहते हैं कि पहले काबिल बनो फिर किसी बात की चिंता करना। कम्युनिष्ट लोग मनुष्य के निर्माण के इस जमीनी सच को नजरअंदाज करके चलते हैं। वो पहले दिन से ही बच्चे को भोजन, वस्त्र और आवास के लिए भटकते प्राणी की अवस्था में रखकर चलते हैं। जबकि वैदिक संस्कृति उस बच्चे के लिए एक व्यवस्था देती है और फिर उस व्यवस्था में ढालकर उसे पहले एक सच्चा मानव बनाती है, इसे ही सारी व्यवस्था उस बच्चे की पहली मूलभूत आवश्यकता घोषित करती है।हमने कहा कि भोजन, वस्त्र और आवास से आगे भी हमारी कुछ आवश्यकता है। निश्चित रूप से वो आवश्यकता भी हमारी मूलभूत आवश्यकता में ही सम्मिलित है। कम्युनिस्ट लोग भी उस आवश्यकता से अछूते नहीं हैं, और यह हमारा दावा भी हैै कि वो उस आवश्यकता से अछूते रह भी नहीं सकते। वह आवश्यकता है गृहस्थ की सामग्री की। भोजन और वस्त्र की मूलभूत आवश्यकताएं भी अधूरी रह जाएंगीं, यदि मनुष्य के ग्रहस्थ में उचित और आवश्यक सामग्री का अभाव होगा तो। संसार में आज हम जिस तंगहाली को देख रहे हैं उसके दो ही कारण हैं, एक अशिक्षा का दूसरा गृहस्थ के लिए आवश्यक सामग्री के अभाव का। यदि ये दो चीज मनुष्य के पास हों तो तभी भोजन, वस्त्र और आवास की समस्या का समाधान हो सकता है, अन्यथा बिना भोजन, बिना वस्त्र और बिना आवास के रहकर मरना मनुष्य की विवशता हो जाएगी।कम्युनिस्ट आंदोलन ने इस ओर कभी ध्यान नही दिया।वैदिक संस्कृति में अपेक्षा से अधिक संचय को अनुचित माना गया है। ईश उपनिषद में आया है-मा गृध: कस्य स्विद्घनम्-अर्थात हे मनुष्य तू लालच मत कर क्योंकि जिस धन को संचय करने का तू लालच कर रहा है, यह अंत समय में किसी का भी नहीं हो पाता है। इसलिए अपरिग्रहवादी (अपेक्षा से अधिक न जोडऩे वाला) बन। प्रत्येक प्राणी उस ईश्वर की संतान है इसलिए ईश्वर की संपत्ति पर सभी का समान अधिकार है, तू एकाधिकार वादी मत बन। परिग्रहवादी मत बन। ईश्वर की संपत्ति पर सबका समान अधिकार मानकर चल, इसलिए अपने लिए जोड़ता जोड़ता मत चल अपितु सबके लिए इदन्न मम स्वाहा कहकर छोड़ता छोड़ता चल। भारतीय संस्कृति की इस उदात्त भावना के मर्म को कम्युनिस्टों ने अपने चिंतन में कभी यथेष्ट स्थान नही दिया। इसे क्या कहेंगे उनके चिंतन की संकीर्णता या भारतीय संस्कृति के प्रति घृणा का दूषित भाव? मनुष्य की भद्रता की पराकाष्ठा भारतीय वैदिक संस्कृति में साम्यवाद का पहला लक्षण है। हमें वेदमंत्र आज्ञा देता है-यद भद्रं तन्नासुव: अर्थात जो भद्र है – हे ईश्वर! वही हमें प्राप्त करा। क्या है वो भद्र जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं? वो भद्र है संसार में रहकर चक्रवर्ती राज्य की स्थापना करना और मोक्ष की प्राप्ति करना। इसका अभिप्राय है कि भद्र इहलोक और परलोक की गति के लिए प्रयुक्त होने वाला साधन है। जिसके साधने से या साधने से मनुष्य को अभ्युदय की प्राप्ति और नि:श्रेयस की सिद्घि होती है।आर्य वैदिक संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् जीवन का एक परमादर्श माना गया है। वसुधैव कुटुम्बकम् आर्यों का वह आदर्श है जो चक्रवर्ती राज्य की स्थापना करके विश्व को ही एक परिवार मानने और बनाने की ओर मनुष्य को लेकर चलता है। आर्यों के चक्रवर्ती राज्य की स्थापना में स्टालिनवादियों की हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है और वसुधैव कुटुम्बकम् संयुक्त राष्ट्र जैसी किसी वैश्विक संस्था का नाम नहीं है। चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने का अर्थ है कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम् विश्व को आर्य बनाना, श्रेष्ठ लोगों का, विश्व मानस के धनी लोगों का निर्माण करना और उन्हें एक विश्व, एक राजा, एक सोच और एक आदर्श के प्रति समर्पित करना। संयुक्त राष्ट्र में राष्ट्रों को स्थान दिया गया है, लेकिन सारे संसार को एक विश्व संस्था के रूप में शासित करके चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने की भावना में इसके लिए कोई स्थान नही है। यहां व्यष्टि से समष्टि की ओर दृष्टिपात करना है। समष्टि में प्राणिमात्र का भला करना है। अपने विचार में बाधक लोगों को सही रास्ते पर लाना होता है। जहां आर्यत्व या श्रेष्ठतत्व के मार्ग में अवरोध बनकर दुष्ट लोग खड़े हो जायें वहां युद्घ एक अंतिम विकल्प के रूप में अपनाया जाता है। जबकि स्टालिनवादी युद्घ को पहला और सर्वोत्तम उपाय अपने लिए मानते हैं। पिछले सौ वर्ष के इतिहास में ही कम्युनिस्टों ने 1917 की रूसी क्रांति से लेकर आज तक करोड़ों लोगों की हत्या कर डाली है। जबकि भारत की वैदिक संस्कृति का साम्यवाद करोड़ों वर्ष में भी ऐसा नहीं कर पाया। यही कारण है कि हिंदुत्व अर्थात आर्यत्व को लोग आज भी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं जबकि कम्युनिस्ट आंदोलन जिस गति से बढ़ा है उस गति को वह बनाये नहीं रख पाया और उससे बहुत से देशों ने तौबा कर ली।भारतीय ऋषियों ने समाज में शांति स्थापित करने के लिए तथा मानवमात्र को उसकी प्रत्येक प्रकार की उन्नति का मार्ग उपलब्ध कराने के लिए राज्य की खोज की। हमारी मान्यता में असामाजिक लोगों से भद्र पुरूषों के सम्मान की रक्षा कराने के लिए राज्य की उत्पत्ति हुई। अन्यथा प्रारंभ में नैतिक और धार्मिक व्यवस्था के अनुसार मानव समाज का संचालन होता था। लेकिन जब असामाजिक तत्वों ने उस व्यवस्था में बाधा पहुंचानी आरंभ की तो ऋषियों ने राज्य की स्थापना की।कम्युनिस्टों की मान्यता है कि राज्य मनुष्य के विकास में बाधक है। इसलिए उनका मानना है कि अराजकतावाद की स्थिति ही मनुष्य के लिए उपयोगी है। पर वे संक्रान्ति काल के लिए राज्य की उपयोगिता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं। वह राज्य की शक्ति को, कम्युनिस्ट व्यवस्था को स्थापित करने के लिए एक साधन के रूप में प्रयोग करने के पक्ष में है। कम्युनिस्टों का यह चिंतन भी लगभग एक शताब्दी पुराना है। सौ वर्ष कम्युनिस्टों को संक्रान्ति काल से गुजरते हुए हो गये हैं। लेकिन उनका संक्रांति काल पूर्ण होने को नहीं आता है। हमारा मानना है कि आएगा भी नही। अराजकतावाद की जिस अवस्था को कम्युनिस्ट मनुष्य के लिए उत्तमोत्तम स्वीकार करते हैं, वह मनुष्य के लिए ही नही अपितु प्राणिमात्र के लिए भी घातक है। क्योंकि उस अवस्था में नैतिक व्यवस्था का सर्वथा लोप होता है। जैसा कि हम आज देख भी रहे हैं। हम कानून के शासन में जी रहे हैं, लेकिन कानून के रहते हुए भी कानून की ही धज्जियां उड़ रही हैं। पशुवध निषेध कानून है लेकिन पशुवध निषेध कानून के रहते हुए भी पशुवध कैसे किया जा सकता है, समाज के दुष्ट लोग इसी चिंतन में लगे रहते हैं और जन साधारण को बताते रहते हैं कि तुम अवैध कार्य कैसे कर सकते हो? हर कानून के विषय में यही स्थिति है। फलस्वरूप अराजकतावाद को बढ़ावा मिल रहा है। जिससे समाज की स्थिति बड़ी ही दयनीय होती जा रही है। इस दयनीय अवस्था में हम जितना फंसते जा रहे हैं उतनी ही हमें राज्य की आवश्यकता अनुभव हो रही है। कम्युनिस्टों का मानना है कि आर्थिक उत्पादन के सब साधनों पर किसी व्यक्ति का स्वत्व न होकर समाज का स्वत्व होना चाहिए। जमीन कल कारखाने आदि उत्पादन के विविध साधन व्यक्तियों की मिल्कियत में न रहें अपितु समाज उनका स्वामी हो। लगता है कि घूम फिरकर कम्युनिस्ट राज्य को व्यक्ति के लिए अनंत काल तक के लिए एक अनिवार्यता मानते हैं। क्योंकि जिसे वह समाज कहते हैं। वह समाज मानव की दानवता को नियंत्रित करने के लिए ही अस्तित्व में आता है। वही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी कहा जा सकता है जो दानवता का परित्याग कर चुका हो। दानवी वृत्ति बनाये रखने वाले किसी भी व्यक्ति को आप कभी भी सामाजिक नहीं कह सकते हैं, लेकिन एक ओर अराजकतावाद को व्यक्ति के लिए आदर्श मानना और दूसरी ओर समाज की उपयोगिता को स्वीकार करना दोनों ऐसी बातें हैं जो कम्युनिस्ट विचारधारा में व्याप्त द्वंद्व भाव को स्पष्टत: परिलक्षित करतीं हैं।भारत के ऋषियों ने अपरिग्रहवादी विचारधारा को मानव समाज को शासित और शासक या शोषित और शोषक में विभाजित करने से रोकने के लिए एक अमोघ शस्त्र के रूप में खोजा था। इस अवस्था में यदि समाज को ढाल दिया जाए तो समाज में नैतिक व्यवस्था लागू हो जाएगी और समाज में लूट, हत्या और डकैती आदि के अपराधों में अप्रत्याशित कमी आ जाएगी। इस अवस्था तक पहुंचने के लिए भारत के ऋषियों ने योग मार्ग की खोज की थी। उन्होंने मन नाम के महाव्याघ्र को नियंत्रित करने के लिए व्यक्ति को आत्मविजयी से विश्व विजयी बनने की ओर अग्रसरित किया था। इसके लिए महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग आज भी संसार के लिए एक महौषधि के रूप में उपलब्ध है। जहां-जहां तक इस महौषधि का प्रभाव हमारे बाबा रामदेव जैसी दिव्य विभूतियों के प्रयास से होता जा रहा है वहीं से रोग शोक और भोग मिटता जा रहा है लेकिन कम्युनिस्टों के पास ऐसी कोई औषधि नहीं है जो संसार में व्याप्त कलह, कटुता, ईष्र्या और द्वेष की अग्नि में जलते मानव का उपचार करने में समर्थ हो सकें। संसार में युद्घों का कारण हिंदुत्व की दृष्टि में उन लोगों की मानसिकता है, अथवा सोच है या उनकी गतिविधियां या कार्य हैं जो मनुष्य समाज की मुख्यधारा में बाधा डालते हैं और लोगों को अपने झंडे तले लाने का अनुचित प्रयास करते हैं। ये अराजकतावादी लोग आतंकवादी होते हैं। इनका कार्य समाज में आतंक फेेलाना होता है। वैदिक संस्कृति में इन आतंकियों का सफाया करना राज्य का प्रमुख कार्य है, जबकि कम्युनिस्ट स्वयं ही आतंक फेेलाने की बात कहते हैं। एंजल्स के अनुसार क्रांति में जो पक्ष विजयी होता है, उसे अपने शासन को कायम रखने के लिए आतंक का प्रयोग करना पड़ता है और उसके अस्त्र शस्त्र प्रतिक्रियावादियों के हृदय में आतंक उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में युद्घ को आपद्घर्म माना गया है। यहां आर्यों की सभ्यता में ब्रहमचर्य, सादगी पशुपालन, जंगलों की रक्षा, यज्ञ, सार्वभौमिक राज्य, युद्घ तथा धर्मप्रचार नामक आठ अंगों को स्वीकार किया गया है। आपद्घर्म युद्घ पर विचार करते हुए पं. रघुनंदन शर्मा लिखते हैं-जिस प्रकार अन्य आपत्तियों के समय अन्य आपद्वर्म की योजना होती है, उसी प्रकार असभ्य बर्बरों को शिक्षित करने के लिए युद्घ का प्रयोग भी स्वीकार किया गया है। युद्घ के द्वारा आर्यों ने सदैव आततायी बर्बरों को वश में किया है। यही कारण है कि आर्यसभ्यता में युद्घ निपुण योद्घा का बड़ा मान रहा है।अब हम भारत की सामाजिक व्यवस्था पर आते हैं। भारत की सामाजिक व्यवस्था आश्रम व्यवस्था तथा वर्ण व्यवस्था पर आधारित है। कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भारत की व्यवस्था को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। उन्होंने भारतीय होकर भी अभारतीयता का परिचय दिया है। उनका इतिहास बोध भारत के संदर्भ में संकीर्ण और पूर्वाग्रह ग्रस्त रहा है। उन्हें भारत के विषय में जानकारी अपने विदेशी आकाओं से मिली हैं, इसलिए भारत को और भारत की परंपराओं को इन्होंने उसी दृष्टिकोण से देखने समझने और जानने का प्रयास किया है। जबकि आर.एस.एस. ने भारत की महान ऐतिहासिक परंपराओं को वर्तमान का गौरव और भविष्य की उज्जवल संभावनाओं से परिपूर्ण एक गौरवगाथा के रूप में प्रस्तुत करने का वंदनीय और अभिनंदनीय कार्य किया है।भारत की आश्रम व्यवस्था वास्तविक साम्यवाद की उद्घोषिका है। आश्रम चार हैं-पहला ब्रहमचर्याश्रम, दूसरा ग्रहस्थाश्रम, तीसरा वानप्रस्थाश्रम तथा चौथा संन्यासाश्रम। पहला आश्रम शक्ति के संचय का, ज्ञानार्जन का और व्यक्तित्व के परिष्कार का आश्रम है।ब्रहमचर्याश्रम में ज्ञानार्जन की अनिवार्यता है। जिससे सिद्घ होता है कि भारत के प्राचीन समाज में शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। क्योंकि वह जीवन की मूलभूत आवश्यकता थी। दूसरा आश्रम ग्रहस्थाश्रम है, जिसमें शक्ति का अपव्यय होता है। गृहस्थ एक व्यावहारिक आश्रम है। अत: वहां गलतियां भी हो सकती हैं। इसलिए गृहस्थी के लिए अनिवार्य किया गया कि वो ब्रहमचर्याश्रम वालों का पालन पोषण वृद्घि और विकास तो करेंगे ही साथ ही वानप्रस्थी और संन्यासी भी उन्हीं के ऊपर निर्भर रहेंगे। गुरूकुलों में नियुक्त आचार्यों के लिए हमारे यहां वेतन नहीं होता था। उनकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति ग्रहस्थी लोग तथा राजा दानादि देकर करते थे। यह दानादि की व्यवस्था राजा को जहां नागरिक विषयों में कम से कम हस्तक्षेप करने की ओर प्रेरित करती थी वहीं नागरिकों को कत्र्तव्यों के प्रति समर्पित करती थी। उससे एक बहुत ही सुरूचिपूर्ण परिवेश समाज में विनिर्मित होता था। आधुनिक काल में कम्युनिस्टों ने नागरिकों की कत्र्तव्य भावना को मारकर उसे अधिकार समर्थक बनाया है। कम्युनिस्ट विचार धारा ने लोगों के साथ इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए गाना सिखाया है कि हमारी मांगें पूरी करो, हमारी मांगें पूरी करो। उसने व्यक्ति को अधिकार प्रेमी को बनाया पर कहीं येे नहीं बताया कि हमें अपने ये ये कर्तव्य पूरे करने दो। इसका परिणाम ये आया है कि भारत में भी लोगों ने श्रमदान की वास्तविक साम्यवादी भावना को विस्मृत कर दिया है। अब सारे कार्यों के लिए लोग राज्य की ओर टकटकी लगाये रहकर देखते रहते हैं। अधिकार परस्त लोग निकम्मे होते हैं और कम्युनिस्टों ने ऐसे ही समाज का निर्माण किया है।जबकि भारत की आश्रम व्यवस्था का तो शाब्दिक अर्थ भी आ+श्रम=श्रम से परिपूर्ण है। ब्रहम चर्यश्रम में विद्याध्ययन का श्रम है, गृहस्थ में गृहस्थी को चलाने का श्रम है, वानप्रस्थ में पुन: खोयी हुई शक्ति को हासिल करने का श्रम है तो संन्यास आश्रम में अर्जित ज्ञान को पुन: समाज के लिए बांटने का श्रम है। निकम्मा कोई नहीं है। इसीलिए वेद ने कहा कि-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समा नर:।अर्थात मनुष्य को कर्मशील और कर्तव्यशील बने रहकर ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। नागरिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम तभी होगा जब नागरिक स्वभावत: कत्र्तव्य परायण होंगे, कर्मशील होंगे और एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रखते होंगे।वानप्रस्थाश्रम में व्यक्ति पुन: सद्शास्त्रों का अध्ययन वनों में जाकर तपस्यादि करता था ताकि गृहस्थ में रहते हुए यदि कहीं कोई गलती हो गयी हो तो उसे सुधारा जा सके। आजकल भी हम यज्ञ करते समय स्विष्टकृताहुति देते हैं। जिसे हम प्रायश्चित आहुति भी कहते हैं। यज्ञ के बीचों बीच आहुति देने का प्रयोजन भी भारत के वानप्रस्थाश्रम की परंपरा का पावन स्मरण करना ही है। समय रहते हुए गलतियों का शोधन कर लेना, या प्रायश्चित कर लेना ही उत्तम है, चलते समय गलतियों को स्वीकार करने से कुछ नहीं होगा। घर में भी समय रहते गलतियां स्वीकार करने की परंपरा से ही घर का परिवेश अच्छा रह पाता है, इससे संसार में अपरिग्रह का समन्वयवादी परिवेश स्थापित होता है। भारत के साम्यवाद की इस अनूठी और महान परंपरा को कम्युनिस्ट तनिक भी नहीं समझ पाए हैं। अब भारत के संन्यासाश्रम की ओर आते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं- यह भावना अभी तक हमने ब्रहमचर्याश्रम में देखी, ग्रहस्थ आश्रम में देखी, वानप्रस्थ में देखी । अब इसी भावना को हम संन्यास में देखते हैं इस आश्रम में लगा शब्द न्यास अंग्रेजी के ट्रस्ट का पर्यायवाची है। स्पष्ट है कि संन्यासी व्यक्ति एक ट्रस्टी है वह संसार को और संसार के पदार्थों को अब एक ट्रस्टी के रूप में ही देखता है। वह उनमें रमता नहीं है। वह पूर्णत: अपरिग्रहवादी हो चुका है। संसार के पदार्थों को वह संसार के लिए छोड़ रहा है। ट्रस्ट का एक अभिप्राय विश्वास भी है। इसलिए संन्यासी व्यक्ति का सभी विश्वास करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई संन्यासी व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को और अध्यात्म के अनुभवों को समाज में बांट रहा है, तो वह जो कुछ भी बता रहा है, उसे लोग मानते हैं। स्वीकार करते हैं। सोचते हैं कि वह जो कुछ भी कह रहा है या बता रहा है वह हमारे भले के लिए बता रहा है।इस प्रकार भारत की प्राचीन आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण लोकल्याण पर आधारित थी और लोककल्याण ही भारत का साम्यवाद था। हर व्यक्ति हर स्थान पर खड़ा होकर मानो लोक कल्याण की माला भजता था। सोचता था कि इस लोककल्याण के महान यज्ञ में मेरी आहुति या उपयोगिता क्या हो सकती है?यही स्थिति भारत की वर्ण व्यवस्था की थी। वर्ण व्यवस्था में भी व्यक्ति लोककल्याण के लिए समर्पित रहता था। भारत ने व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की तो खोज की ही, साथ ही समाज के मूलभूत शत्रुओं की भी खोज की। समाज के मूलभूत शत्रुओं में सम्मिलित हैं-अज्ञान, अन्याय और अभाव। यदि ज्ञानवर्धन करना व्यक्ति की पहली मूलभूत आवश्यकता है तो अज्ञान भी व्यक्ति का पहला शत्रु हो जाना स्वाभाविक ही है। इस वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत चार वर्णों में मानव समाज को बांटा गया था जैसी जिसकी प्रतिभा और जैसी जिसकी योग्यता वैसा ही उसका वर्ण हो जाता था। अज्ञान अंधकार को मिटाने वाले लोग और समाज को अपने ज्ञानबल से मार्गदर्शन देने वाले लोग ब्राहमण कहलाते थे। ये व्यक्ति के अज्ञान रूपी शत्रु से लडऩे वाले योद्घा होते थे। इनका पूरा समाज मानव समाज से अज्ञान को मिटाने के लिए संघर्ष करता था।दूसरा शत्रु अन्याय था। समाज में सबल निर्बल का शोषण करता है, उस पर अन्याय करता है। जिससे समाज की गति क्षरणावस्था को प्राप्त होने लगती है। उस क्षरण की अवस्था से त्राण करता था क्षत्रिय समाज। इसीलिए उसे क्षत्रिय कहते हैं। समाज में कहीं भी अन्याय ना हो शोषण ना हो, अत्याचार ना हो, इस पूरी की पूरी व्यवस्था को देखता था क्षत्रिय वर्ग, पूरी तरह सावधान और सजग रहकर वह समाज का पहरा देता था।अब आते हैं हम तीसरे शत्रु अभाव पर। भोजन वस्त्र और आवास की सुविधा देना और उसके सारे संसाधन विकसित करना फिर उनका उचित वितरण करना:-ये सारी व्यवस्था देखता था समाज का वैश्यवर्ग। इस वर्ग के द्वारा भी बहुत बड़ी सेवा की जाती थी अब जो लोग स्वयं को अज्ञान, अन्याय और अभाव तीनों में से किसी से भी लडऩे में अक्षम और असमर्थ पाते थे या समझते थे उनका काम समाज की सेवा करना होता था। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था। कर्म परिवर्तन से वर्ण परिवर्तन स्वयं हो जाता था। शूद्र का बच्चा कर्म से ब्राहमण और ब्राहमण का बच्चा कर्म से शूद्र हो सकता था। समाज की व्यवस्था में जो जहां खड़ा होकर सेवा कर सकता था, या जो जहां के लिए उपयुक्त था वो उसी वर्ण का व्यक्ति कहलाता था। आरक्षण का पचड़ा नहीं था। सबका लक्ष्य सामूहिक उत्कर्ष था। किसी को पीछे छोडऩा उद्देश्य नहीं था। यही था वास्तविक साम्यवाद। आज भी हम इसी वर्ण व्यवस्था को देखते हैं सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी शूद्र ही हैं। व्यवस्था तो भारत की अपना रखी है और गुण विदेशों के गाते हैं-यह कैसी राष्ट्रभक्ति है?उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि हिंदुत्व (आर्यत्व) एक जीवन व्यवस्था है। इस जीवन व्यवस्था या जीवन प्रणाली को हिन्दूवादी संगठन अपनाकर चलते हैं, या उसे भारत की वर्तमान समस्याओं का एक मात्र समाधान मानते हंै तो इसमें साम्प्रदायिकता कहां से आ घुसी? इसी जीवन व्यवस्था को अपना जीवनादर्श घोषित कर आगे बढऩे के लिए वेद ने मानव समाज को आदेशित किया कि- सं गच्छध्वं सं वद ध्वं सं वो मनांसि जानताम्।अर्थात तुम्हारी चाल एक जैसी हो, तुम्हारी वाणी एक जैसी हो तथा तुम्हारे मन एक जैसे हों। मन का अभिप्राय यहां संकल्पों से है। कहने का अभिप्राय है कि लोक कल्याण की उत्कृष्ट भावना से व्यक्ति-व्यक्ति रोमांचित हो उठे, उससे झूम उठे तो सारी वसुधा को आर्य बनाने में तथा एक परिवार बनाने में देर नहीं लगेगी। कम्युनिस्टों के लिए आवश्यक है कि वो भारत को समझें तथा भारत की संस्कृति को अपनाकर संसार को सुसंस्कृत बनाने का प्रयास करें। उनका साम्यवाद मर चुका है, परंतु आर.एस.एस. का साम्यवाद तो अमर है, उस अमर साम्यवाद की ओर कम्युनिस्ट बढ़ें। मरे हुए बच्चे को लेकर बंदरिया की तरह घूमने से बेहतर है किसी अच्छाई को अपना लेना। लोक कल्याण का महारास भारत की महान संस्कृति में छिपा है। विदेशों की जूठन खाने में नहीं। व्यष्टि से समष्टितत्व की ओर बढऩा केवल और केवल हिंदुत्व की उच्च भावना में निहित है। इसे कम्युनिस्ट जितनी जल्दी समझ लेंगे उतना ही अच्छा है। जो लोग कल्याण के इस महारास में कहीं भी और किसी भी प्रकार से बाधक है, समझो वहीं मानवता के शत्रु हैं। वही दानव है और वही आतंकवादी है।आर.एस.एस. की देशभक्ति और राष्ट्र के मूल्यों के प्रति समर्पण का उसका भाव असंदिग्ध है। उन पर कहीं किसी प्रकार की कोई उंगली नहीं उठाई जा सकती। वह हिंदुत्व रूपी जीवन प्रणाली के लोक कल्याण के महारास में विघ्न डालने वाली शक्तियों को यदि अनुचित बताता है तो यह उसका अपराध नहीं अपितु राष्ट्र पर उसका एक उपकार है। कम्युनिस्ट अपराध और उपकार में अंतर करना सीखें। उनके लिए हमारी यही नेक सलाह है।
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत