जब सुभाष के मार्गदर्शक बने वीर सावरकर
जब क्रांतिवीर सावरकर ने 26 फरवरी 1966 को अपना नाशवान शरीर त्यागा तो उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा था-‘‘सावरकर जी की मृत्यु से विद्यमान भारत के एक महान व्यक्ति को हमने खो दिया।’’ बात स्पष्ट है कि इंदिराजी की दृष्टि में सावरकरजी महान थे, पर अब उनके पौत्र राहुल गांधी की दृष्टि में वह ‘गद्दार’ हो गये हैं। इसका कारण केवल एक ही है कि राहुल गांधी को इतिहासबोध नही है और साथ ही उन्हें भारत की संस्कृति के उस प्राणतत्व का भी बोध नही है-जिसमें अपने इतिहास नायकों का सम्मान करना हम सबका दायित्व और कत्र्तव्य होता है। क्रांति महानायक वीर सावरकर को उनकी मृत्यु के समय साम्यवादी नेता हिरेन मुकर्जी तथा जनसंघ के श्री द्विवेदी ने लोकसभा में उसी प्रकार श्रद्घांजलि देने की मांग की थी जिस प्रकार किसी देश के एक महानायक को दी जाया करती है। इस पर श्रीमती इंदिरा गांधी भी सहमत हो गयीं, परंतु लोकसभा का सदस्य न होने के कारण (संसदीय नियमावली का पालन करते हुए) उनके लिए सदन उस प्रकार श्रद्घांजलि नही दे पाया था, परंतु इस प्रकार के प्रस्ताव का साम्यवादी और जनसंघी जैसे दो धुर-विरोधी राजनीतिक दलों की ओर से आना और उस पर सत्ताधारी दल सहित सभी दलों की सहमति मिल जाना यह बताता है कि उस क्रांतिवीर के प्रति सारे सदन की भावनाएं कितनी विनम्र थीं। जिनके चलते उन्हें श्रद्घांजलि न दी जाकर भी श्रद्घांजलि दे दी गयी थी। सदन ने अपनी विनम्र भावनाओं से वीर सावरकर के परिजनों को भी अवगत कराया था। निश्चय ही यह सब किसी ‘गद्दार’ के लिए तो किया नही जा सकता था।
जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने तो 11 फरवरी 1979 को वह अंदमान गये थे, जहां उन्होंने वीर सावरकर की स्मृतियों को ‘सैलुलर जेल’ जाकर नमन किया था। इतना ही नही मोरारजी भाई ने उस क्रांतिवीर की स्मृति में उस कारागृह को ‘राष्ट्रीय स्मारक’ बनाने की भी घोषणा की थी। मोरारजी देसाई मूलरूप से कांग्रेसी थे-पर वीर सावरकर के प्रति उनकी भावनाएं पवित्र थीं। उनकी सरकार शीघ्र ही गिर गयी, जिस कारण ‘सैलुलर जेल’ को ‘राष्ट्रीय स्मारक’बनाने की उनकी घोषणा तो सिरे नही चढ़ सकी, पर उन्होंने एक प्रधानमंत्री के रूप में मां भारती के उस शेरपुत्र वीर सावरकर को अपनी ओर से सम्मान प्रदान करके यह तो स्पष्ट कर ही दिया था कि सारा देश उनका कितना सम्मान करता है?
जिस क्रांतिपुत्र नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति कांग्रेसी दुव्र्यवहार को आज सारा देश जान गया है, उन्हीं नेताजी ने अपनी एक अंतरिम सरकार की घोषणा की थी। उस सरकार में भारत के राष्ट्रपति नेताजी स्वयं थे। 30 दिसंबर 1943 को नेताजी भारत की अंतरिम सरकार के राष्ट्रपति के रूप में अण्डमान को अंग्रेजों से मुक्त कराने में सफल हो गये थे। तब उस क्रांतिनायक ने अपने ‘महानायक’ सावरकर के प्रति श्रद्घा व्यक्त करते हुए इस द्वीप को ‘शहीद द्वीप’ का नाम दिया था। यह भी बहुत बड़ा सम्मान था।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस और वीर सावरकर जी दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। सुभाष वीर सावरकर से छोटे थे, इसलिए उनके प्रति अत्यंत श्रद्घाभाव रखते थे। बात 1936 की है। तब तक सुभाष बाबू की हिटलर से भेंट हो चुकी थी। सुभाष बाबू ने जर्मनी के तत्कालीन विदेशमंत्री रिबेन्ट्राप से पूछ लिया था-‘‘आप ब्रिटेन से कब युद्घ आरंभ करेंगे?’’ उत्तर मिला-‘‘अभी नही, अन्यथा ब्रिटेन से हम अकेले ही लड़ेंगे। वह हमारा परंपरागत शत्रु है।’’
1937 में वीर सावरकर हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे। उन्होंने इस संगठन की क्रांतिकारी भावना से प्रेरित होकर ही इसे अपनी सेवाएं देकर कृतार्थ किया था। सारे देश के क्रांतिकारी उन दिनों हिंदू महासभा भवन को राष्ट्रमंदिर के रूप में मान्यता दे चुके थे। वहां से जिसको आशीर्वाद या मार्गदर्शन मिल जाता था। वहीं अपने आपको धन्यभाग मानने लगता था। इसलिए सुभाष बाबू के लिए यह संभव ही नही था कि वीर सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष हों और नेताजी उनसे मिलने न जायें? फलस्वरूप वीर सावरकर भवन में नेताजी क्रांतिवीर से 1940 मिलने जाते हैं। पर जब यह भेंट हुई तो उस समय नेताजी भी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। कहने का अभिप्राय है कि भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के दोनों शिखर पुरूष उन दिनों अपने-अपने दलों के भी शिखर पुरूष थे। यह बड़ा अद्भुत संयोग था कि कांग्रेस और हिंदू महासभा जैसी धुर-विरोधी राजनीतिक पार्टियों के नेता उस समय एक ही ‘मिशन’ के लिए समर्पित थे और उसके लिए मिलकर काम करने की ओर बढ़ रहे थे । नेहरू-गांधी को इन दोनों का मिलन जंचता नही था। गांधीजी क्रांतिकारियों से असहमत और असंतुष्ट रहते थे, इसलिए नेताजी कांग्रेस का अपहरण कर उसे वीर सावरकर जी की गोद में डाल दें-और उससे गांधी-नेहरू के भाग्य का सूर्य ही अस्त हो जाए-यह भला गांधीजी को कैसे स्वीकार हो सकता था? अत: सुभाष को कांग्रेस से चलता करने का ‘षडय़ंत्र’ गांधी-नेहरू के स्तर पर प्रारंभ हो गया था।
वीर सावरकर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस दोनों की ही अटल मान्यता थी कि सशस्त्र क्रांति ही स्वाधीनता का साधन है। इन दोनों ने यह निश्चय कर लिया था कि स्वतंत्रता के उपरांत देश के शासन प्रशासन का ढांचा कैसा और किस प्रकार का होगा? नेताजी सुभाष चंद्र बोस यूरोप में जहां भी अपना भाषण करते थे वहां वीर सावरकर का नाम अवश्य लेते थे और भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वोत्तम संस्कृति कहना भी नही भूलते थे। उन्हें सावरकर की ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक पुस्तक बड़ी पसंद थी। ये दोनों ही महानायक अपने लिए ‘शिवाजी’ को आदर्श मानते थे। ‘भारतवर्ष’ जनवरी 1936 के अंक में लेखक विजयरत्न मजूमदार ने ऐसा लिखा था।
22 जून 1940 को नेताजी मुंबई में जिन्नाह से मिले। जिन्नाह ने उनकी बात पर ध्यान नही दिया और उनके साथ उपेक्षित व्यवहार किया। कारण यही था कि जिन्नाह नेताजी को भली प्रकार जानता था कि वे उसके द्विराष्ट्रवाद के सिद्घांत से कतई सहमत नही होंगे। तब नेताजी ‘सावरकर सदन’ पहुंचे। 23जून 1940 को इन दोनों नेताओं की इस बैठक की सूचना का समाचार ‘नवांकाल’ ने दिया था। तब तक नेताजी कलकत्ता से हॉलवेल का पुतला उखाडऩे का निर्णय ले चुके थे। इस पर सावरकरजी ने उन्हें समझाया कि हमसे कोई लक्ष्य नही साधा जा सकता। आप जैसे ही ऐसा कार्य करोगे तुम्हें अंग्रेज उठा लेंगे और जेलों में सड़ा देंगे। स्वयं बंदी न बनकर शत्रु को बंदी बनाने की तैयारी करो। अपनी गोपनीयता बनाये रखकर कार्य करो, अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बचते हुए क्रांतिकारी अभियान को आगे बढ़ाओ। मैं भी ‘हिंदुओं के सैनिकीकरण’ का अभियान किसी विशेष लक्ष्य को देखकर ही चला रहा हूं। यद्यपि कई लोग मेरे इस मिशन को यह कहकर हल्का कर देते हैं कि मैं ब्रिटिशों को प्रशिक्षित लोग उपलब्ध करा रहा हूं-पर मेरे वास्तविक लक्ष्य पर ध्यान दीजिए।
पाठकवृंद! हमने यह प्रसंग यहां पर इसलिए प्रस्तुत किया है कि कई लोगों को यह भी भ्रांति रहती है कि सावरकरजी ने ‘हिंदुओं का सैनिकीकरण’ अभियान अंग्रेजों को ही हिंदू सैनिक उपलब्ध कराने के लिए चलाया था। पर वास्तविकता को यह प्रसंग स्पष्ट करता है कि सावरकर जी का लक्ष्य कुछ और था?जिसे नेताजी ने समझ लिया और वह यद्यपि उनके पास जिन्नाह के उपेक्षित व्यवहार की शिकायत करने आये थे-पर आज एक नया संदेश उन्हें सावरकर जी से मिल गया, और अब उन्होंने क्रांति की नई मसाल जलाने का निर्णय ले लिया। बाद का सुभाष सावरकर की प्रेरणा से बना सुभाष था। यह था उस क्रांतिवीर की प्रेरणा का चमत्कार।
नेताजी और वीर सावरकर जी की प्रेरणा के स्रोत शिवाजी थे-इसलिए दोनों ने ही शिवाजी के जीवन से प्रेरणा ली। अत: नेताजी वैसे ही देश छोड़ गये जैसे शिवाजी औरंगजेब की जेल से भाग गये थे। इधर वीर सावरकर जी ने भी बड़ी सावधानी से ‘हिंदुओं का सैनिकीकरण’ अभियान चलाकर उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देना आरंभ कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्घ में ये प्रशिक्षित हिंदू अंग्रेजों की सेना में भी गये पर जब द्वितीय विश्वयुद्घ समाप्त हुआ तो हमारे बहुत से सैनिक अंग्रेजों ने स्वार्थ पूर्ण होते ही सेना से निकाल दिये। इतिहास बताता है कि तब पहले से ही अंग्रेजों के विरूद्घ इन प्रशिक्षित भारतीयों ने अंग्रेजों के विरूद्घ क्रांति का बिगुल फूंक दिया। उधर आजाद हिंद फौज के अनेकों सैनिक भी इस समय अनाथ हो गये थे-क्योंकि कांग्रेसियों की मिली भगत से नेताजी को मृत घोषित करा दिया गया था। फलस्वरूप आजाद हिंद सेना के सैनिक और वीर सावरकर द्वारा प्रशिक्षित भारतीय सेना के ये सैनिक जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी सेना से निकाल दिया था-अब अंग्रेजों के विरूद्घ अपने देश की सेना से मिलने लगे। उनके प्रति हमारी सेना की स्वाभाविक सहानुभूति उत्पन्न हुई,जिससे भारत की सेना में अंग्रेजों के विरूद्घ विद्रोह उत्पन्न होने लगा। इसी विद्रोह से डरकर अंग्रेजों ने भारत छोड़ा। गांधी के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का उन पर कोई प्रभाव नही था। जिस दिन इतिहास की भाषा में हमारा युवा इस सच को समझ जाएगा उस दिन ‘राहुल’ को बता दिया जाएगा कि उनका स्थान क्या है और वीर सावरकर का स्थान क्या है?