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मनुष्य का जन्म आत्मा की उन्नति के लिये होता है। आत्मा की उन्नति में गौण रूप से शारीरिक उन्नति भी सम्मिलित है। यदि शरीर पुष्ट और बलवान न हो तो आत्मा की उन्नति नहीं हो सकती। आत्मा के अन्तःकरण में मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार यह चार अवयव व उपकरण होते हैं। इनकी उन्नति भी आत्मा की उन्नति के लिये आवश्यक है। समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर निष्कर्ष निकलता है कि वेदज्ञान से मनुष्य ईश्वर, आत्मा व सांसारिक ज्ञान को प्राप्त होकर तथा तदनुकूल आचरण करने से उसकी शारीरकि, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। श्री कृष्ण जी सच्चे वेदानुयायी एवं ईश्वरभक्त थे। वह सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ नहीं थे अपितु माता-पिता से जन्म होने तथा शरीर छोड़ने के कारण वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार उनका श्रेष्ठ व ऋषियों के समान जीवात्मा होना ही निश्चित होता है। श्री कृष्ण जी का जीवन संसार के सभी लोगों के लिये प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। उनके जीवन, कार्यों एवं शिक्षाओं का अध्ययन करने एवं उनके अनुरूप स्वयं को बनाने से मनुष्य जीवन सहित देश व समाज की रक्षा, उन्नति व उत्कर्ष हो सकता है। महाभारत के बाद श्री कृष्ण जी से मिलते जुलते गुणों वाले कुछ अन्य महापुरुष हुए हैं जिनमें हम आचार्य शंकर, आचार्य चाणक्य एवं ऋषि दयानन्द को सम्मिलित कर सकते हैं। यह तीनों महापुरुष भी ईश्वरभक्त, वेदभक्त, योगी तथा आदर्श देशभक्ति व उसके लिये बलिदान की भावना से सराबोर थे। योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने अपने काल में अधर्म, अन्याय तथा अविद्या के विरुद्ध आन्दोलन किया था। आचार्य शंकर ने अपने समय में नास्तिकता को समाप्त करने सहित उसके प्रसार को रोककर वेद व वेदान्त की शिक्षाओं को कुछ वेद विपरीत मान्यताओं सहित स्थापित किया था। आचार्य चाणक्य एवं ऋषि दयानन्द जी ने भी अपने अपने समय में देश व धर्म रक्षा के महत्वपूर्ण कार्यों को किया। वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा व इसका संवर्धन तभी हो सकता है कि जब हम इन सभी महापुरुषों सहित मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा अपने समस्त ऋषियों मुनियों व वेद एवं धर्म प्रेमी सत्पुरुषों की बतायी शिक्षाओं एवं सद्गुणों का अनुकरण करें। हमें यह भी ध्यान रखना है कि हमें वेदानुकूल मान्यताओं एवं शिक्षाओं से युक्त वैदिक ज्ञान को ही ग्रहण करना है और वेदविरुद्ध मान्यताओं का तिरस्कार करना है भले ही वह किसी महापुरुष या ऋषि तुल्य किसी व्यक्ति ने ही कही हों।
योगेश्वर कृष्ण जी का बड़ी विषम पारिवारिक एवं देश की राजनैतिक परिस्थितियों में जन्म हुआ था। उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता देवकी और वसुदेव जी को अकारण ही जेल में डाल दिया था। आर्य विद्वान पं. चमूपति जी इस घटना को महाभारत के विपरीत पाते हैं और अनुमान करते हैं कि यह पुराणकालीन काल्पनिक घटना है। अपनी माता व पिता से उनका लालन व पालन भी न होकर मथुरा से ढाई मील दूर यमुना के दूसरी पार के गांव गोकुल में भाई बलराम एवं बहिन सुभद्रा के साथ हुआ। उनकी शिक्षा वैदिक गुरुकुलीय पद्धति से हुई थी। निर्धन सुदामा आपके सहपाठी एवं मित्र थे। आपकी मित्रता भी इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। कृष्ण जी द्वारिका के राजा बने थे। उन्होंने अधर्मी राजाओं का विरोध किया था तथा अपने मामा कंस सहित अनेक दुष्ट अधर्मी राजाओं को अपने बुद्धिबल, शक्ति एवं नीतिनिमित्ता के आधार पर अपने मित्रों व सहयोगियों के द्वारा समाप्त किया। महाभारत से पूर्व आर्यावत्र्त राज्य के उत्तराधिकारी पाण्डव पुत्रों के राज्य में अनेक प्रकार की बाधायें उत्पन्न की र्गइं। राज्य के लोभ से छल पूर्वक पाण्डवों को द्यूत क्रीड़ा के लिये प्रेरित किया गया था और कौरव पक्ष के धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने उनके समस्त राज्य सहित युधिष्ठिर की पत्नी द्रोपदी पर भी अधिकार कर उसका भरी सभा में अपमान किया था। यदि कृष्ण जी द्यूत क्रीड़ा व द्रोपदी अपमान के अवसर पर आस पास होते तो निश्चय ही वहां पहुंच कर इन कार्यों को कदापि न होने देते। बाद में पता चलने पर वह पाण्डवों से मिले और उन्हें धर्म पालन तथा राज्य की पुनः प्राप्ति के लिये धर्मपूर्वक प्रयत्न करने में सहयोग किया और प्रतिपक्ष द्वारा धर्म, कर्तव्य व उनके वचनों का पालन न करने पर महाभारत युद्ध की योजना भी पाण्डव पक्ष के साथ मिलकर तैयार की थी। इस युद्ध में अनेक राज्यों के राजाओं व उनकी सेनाओं ने भाग लिया था। दोनों ओर बड़े बड़े वीर योद्धा थे। कृष्ण और पांच पाण्डवों को छोड़कर अधिकांश योद्धा इस महायुद्ध में काल के गाल में समा गये थे। पाण्डव, उनके मित्र व अर्जुन के सारथी कृष्ण का पक्ष सत्य व धर्म पर आधारित था जिसकी अन्त में विजय हुई। पाण्डवों की इस विजय में श्री कृष्ण जी का प्रमुख योगदान था। यदि वह न होते तो न युद्ध होता, न ही धर्म की जय होती। ऐसी स्थिति में इतिहास कुछ और होता जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अधर्म का विरोध और धर्म के पक्ष में सहयोग करने की शिक्षा हम श्री कृष्ण जी की महाभारत में भूमिका से मिलती है। हमें भी जीवन में अधर्म छोड़ कर धर्म पर ही अडिग व अकम्पायमान रहना चाहिये। ऐसा होने पर ही वर्तमान एवं भविष्य में वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हो सकती है।
श्री कृष्ण जी ईश्वरभक्त, वेदभक्त, योगी एवं ब्रह्मचर्य व्रत के आदर्श पालक थे। श्री कृष्ण जी ने विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी जी से पूर्ण युवावस्था में विवाह किया था। विवाह के बाद दोनों पति-पत्नी में संवाद हुआ कि विवाह का अर्थ क्या है। विवाह सन्तान के लिये किया जाता है। इस पर सहमति होने पर श्री कृष्ण जी ने रुक्मणी जी से पूछा कि तुम कैसी सन्तान चाहती हो? इसका उत्तर मिला कि श्री कृष्ण जी जैसी सन्तान चाहिये। इस पर श्री कृष्ण ने रुक्मणी जी को उनके साथ रहकर तपश्चर्या एवं ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा की जिस पर दोनों सहमत हुए। इसके बाद श्री कृष्ण एवं माता रुक्मणी जी ने उत्तराखण्ड के वनों व पर्वतों में 12 वर्ष रहकर ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन व्यतीत किया। अवधि पूरी होने पर उन्होंने प्रद्युम्न नाम के पुत्र को प्राप्त दिया। महाभारत में लिखा है कि जब प्रद्युम्न सायं अपने पिता कृष्ण जी के साथ अपने राजमहल में आते थे तो रुक्मणी जी कृष्ण व प्रद्युम्न दोनों की एक समान आकृति व गुणों की समानता को देखकर कौन उनका पति और कौन पुत्र है, इसे पहचानने में कठिनाई अनुभव करती थी। ब्रह्मचर्य की यह महिमा श्री कृष्ण जी और माता रुक्मणी ने अपने जीवन में स्थापित की थी। यह ब्रह्मचर्य व्रत भी आर्यों व वैदिक धर्मियों के लिये शिक्षा व प्रेरणा ग्रहण करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह भी बता दें कि महाभारत युद्ध के समय कृष्ण व अर्जुन लगभग 120 वर्ष की आयु के थे। यह बात महाभारत में लिखी है। आज पूरे विश्व में इस आयु का व्यक्ति मिलना असम्भव है। यह वैदिक धर्म एवं संस्कृति की विशेषता है। इसे श्री कृष्ण जी के जीवन की विशेषता भी कह सकते हैं। श्री कृष्ण जी का यदि हम अनुकरण करेंगे तो हममें भी ब्रह्मचर्य के सेवन से दीर्घायु प्राप्त होने की सम्भावना बनती है।
कौरव सेना में प्रमुख योद्धाओं में भीष्म पितामह, राजा कर्ण, आचार्य द्रोणाचार्य और दुर्याेधन आदि प्रमुख बलवान योद्धा थे। किसी शत्रु द्वारा इन पर विजय पाना कठिन व असम्भव-प्रायः था। यदि कृष्ण जी द्वारा राजनीति व युद्धनीति का आश्रय न लिया होता तो उन्होंने महाभारत में जो भूमिका निभाई वह न निभाई होती और पाण्डवों को युद्ध में विजय मिलनी कठिन व असम्भव थी। अतः देश एवं धर्म की रक्षा के हित में योगेश्वर श्री कृष्ण ने पाण्डवों व अर्जुन को उचित व आवश्यक सुझाव दिये और उनसे इनका पालन कराया जिसका परिणाम था कि अविजेय योद्धा भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन और कर्ण आदि पराजित किये जा सके। इस प्रकार से महाभारत युद्ध की विजय का अधिकांश श्रेय श्री कृष्ण जी को जाता है। युद्ध में विजय प्राप्ति धर्म के साथ नीतिमत्ता का पालन करने से होती है। यह शिक्षा श्री कृष्ण जी के जीवन से ज्ञात होती है।
महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण जी की प्रेरणा से पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। इस यज्ञ में श्री युधिष्ठिर जी को चक्रवर्ती सम्राट बनाया गया था। इस राजसूय यज्ञ में पूरे विश्व के राजा आये थे और उन्होंने महाराज युधिष्ठिर को वस्तुओं व स्वर्ण आदि के रूप में योग्य भेंटे दी थी व उन्हें अपना सम्राट स्वीकार किया था। इतिहास में ऐसा राजसूय यज्ञ इसके बाद पूरे विश्व में कहीं देखने को नहीं मिला। ईश्वर करे कि हमारा देश श्री राम व श्री कृष्ण सहित वेद, आचार्य चाणक्य तथा ऋषि दयानन्द जी की शिक्षाओं के आधार पर आगे बढ़े। इसी में वैदिक धर्म एवं देश का गौरव एवं रक्षा सम्भव है।
महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में श्री कृष्ण जी के गुणों व चरित्र की भूरि भूरि प्रशंसा की है। श्री कृष्ण जी के महाभारत में उपलब्ध सत्य इतिहास पर आधारित अनेक आर्य विद्वानों के लिखे जीवन चरित्र मिलते हैं जिनमें पं. चमूपित, डा. भवानीलाल भारतीय, लाला लालजपत राय आदि प्रमुख है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती द्वारा सम्पादित महाभारत एवं पं. सन्तराम जी द्वारा प्रणीत संक्षिप्त महाभारत भी अत्यन्त सराहनीय एवं पठनीय ग्रन्थ है। अन्य अनेक विद्वानों के ग्रन्थ भी पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। इससे सभी पाठकों को लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य