आर्य समाज के बारे में आज भी पौराणिक साधु संन्यासी उल्टी सीधी धारणाएं बनाने या अफवाह फैलाने का प्रयास करते रहते हैं। कारण कि ऐसा करने से उनका व्यापार फलता फूलता है।रामभद्राचार्य जी के द्वारा यह कहना कि स्वामी दयानंद जी महाराज राम, रामायण ,कृष्ण और गीता को काल्पनिक मानते थे, इसी प्रकार की काल्पनिक धारणाओं के अंतर्गत आने वाला बयान है। यह सच है कि स्वामी रामभद्राचार्य जी स्वयं विद्वान नहीं हैं। परंपरागत ढंग से पौराणिक जगत में उन्हें विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसी का लाभ उन्हें मिल रहा है।
वास्तव में पौराणिक जगत के साधू – संन्यासियों ,मठाधीशों को स्वामी दयानंद जी के संसार से चले जाने के लगभग 140 वर्ष पश्चात भी उनका धर्म चिंतन और वेद चिंतन रास नहीं आ रहा है। ये सनातनी पौराणिक लोगों को विज्ञान के आधुनिक युग में भी जड़तावादी बनाए रखना चाहते हैं। इनका कठमुल्लावाद अतीत में भी हिंदू समाज के लिए खतरनाक रहा है और आज भी बना हुआ है।
स्वामी दयानंद जी महाराज प्रत्येक प्रकार की ठग-विद्या पाखंड और अंधविश्वास का कड़ा विरोध करते थे। जिन्हें पौराणिक साधु संन्यासी आज भी अपनाकर चल रहे हैं। यह अत्यंत दु:ख का विषय है कि 21वीं सदी में भी बड़ी संख्या में लोग कई छली ,कपटी ,पाखंडी, साधु सन्यासियों या धर्म गुरुओं के पाखंड में फंसते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे लोगों को उनके धर्म गुरु जो कुछ भी बता दें, वही उनके लिए ” ब्रह्मवाक्य ” हो जाता है।
जहां तक रामचंद्र जी के विषय में स्वामी दयानंद जी के विचारों का प्रश्न है तो उन्होंने ना तो राम को काल्पनिक माना है और ना रामायण को काल्पनिक माना है। स्वामी जी महाराज की स्पष्ट मान्यता थी कि यदि किसी मनुष्य को धर्म का साक्षात् स्वरुप देखना हो तो उसे वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करना चाहिये। जिसमें कदम कदम पर धर्म की मर्यादा का पालन करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रयास करते दिखाई देते हैं। स्वामी दयानंद जी महाराज ने रामचंद्र जी के नाम के पहले मर्यादा पुरुषोत्तम और आप्त पुरुष जैसे विशेषण लगाकर यह बताने का प्रयास किया कि रामचंद्र जी ने धर्म की मर्यादा को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास किया। स्वामी दयानंद जी महाराज कदाचित इसीलिए रामचंद्र जी के जीवन को एक धर्मात्मा का जीवन चरित्र मानते थे। स्वामी दयानंद जी ने जब आर्य समाज की स्थापना की तो उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी के शासनकाल में प्रचलित धर्म व संस्कृति को ही वर्तमान समय में स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार महात्मा गांधी से भी पहले स्वामी दयानंद जी महाराज ने राम राज्य की स्थापना की परिकल्पना की थी। यद्यपि गांधी जी ने भी रामराज्य की स्थापना का संकल्प लिया था , परन्तु उनका वह रामराज्य उनके अपने चरित्र के अनुरूप दोगला ही था। जबकि स्वामी दयानंद जी महाराज रामचंद्र जी के चारित्रिक स्तर पर मजबूत और वास्तविक वीरतापूर्ण कृत्यों को हमारे राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। जबकि स्वामी दयानंद जी का राम कहीं से भी दोगला नहीं है, उनकी दृष्टि में राम हमारी शारीरिक, आत्मिक,आध्यात्मिक , सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उन्नति का प्रतीक हैं । सर्वत्र हमारे लिए वंदनीय हैं। इसीलिए प्रत्येक आर्य समाज में आज भी यज्ञ हवन के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और योगीराज श्री कृष्ण जी की जय बोली जाती है।
महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” में वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयनार्थ बालक-बालिकाओं वा विद्यार्थियों के लिए जो पाठविधि दी है, उसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण को भी सम्मिलित किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे–अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यता प्राप्त हो, को काव्यरीति से अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें।’
स्वामी जी महाराज की इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि वह न तो रामचंद्र जी को काल्पनिक मानते हैं और न ही रामायण, कृष्ण और महाभारत को काल्पनिक मानते हैं। उनकी दृष्टि से यदि देखा जाए तो धर्मद्रोही, राष्ट्रद्रोही ,समाजद्रोही तत्वों के विनाश के लिए वह रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन को भारत के राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। उनकी यही सोच थी कि भारत का बच्चा-बच्चा राम बन जाए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस कविता के माध्यम से भारत के बच्चे-बच्चे को राम के रूप में देखने के अपने दिव्य संकल्प को दोहराता है, वह वास्तव में स्वामी दयानन्द जी महाराज का ही चिंतन है। स्वामी जी महाराज के राम संबंधी चिंतन से प्रेरित होकर ही
रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है :-
ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है,
जब पहरे पर स्वयं, धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
आर्य विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के विषय में लिखा है कि ‘इस समय भारत के श्रृंखलाबद्ध इतिहास की अप्राप्यता में यदि भारतीय अपना मस्तक समुन्नत जातियों के समक्ष ऊंचा उठा कर चल सकते हैं, तो महात्मा राम के आदर्श चरित की विद्यमानता है। यदि प्राचीनतम ऐतिहासिक जाति होने का गौरव उनको प्राप्त है तो सूर्य कुल-कमल-दिवाकर राम की अनुकरणीय पावनी जीवनी की प्रस्तुति से। यदि भारताभिजनों को धर्मिक सत्यवक्ता, सत्यसन्ध, सभ्य और दृढ़व्रत होने का अभिमान है तो प्राचीन भारत के धर्म प्राण तथा गौरवसर्वस्व श्री राम के पवित्र चरित्र की विराजमानता से।’ पं. भवानी दयाल जी आगे लिखते हैं ‘यदि पूर्ण परिश्रम से संसार के समस्त स्मरणाीय जनों की जीवननियां एकत्र की जायें तो हम को उन में से किसी एक जीवनी में वह सर्वगुणराशि एकत्र न मिल सकेगी, जिस से सर्वगुणागार श्रीराम का जीवन भरपूर है। आज हमारे पास भगवान् रामचन्द्र का ही एक ऐसा आदर्श चरित्र उपस्थित है जो अन्य महात्माओं के बचे बचाये उपलब्ध चरित्रों से सर्वश्रेष्ठ और सब से बढ़कर शिक्षाप्रद है। वस्तुतः श्रीराम का जीवन सर्वमर्यादाओं का ऐसा उत्तम आदर्श है कि मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि केवल उन के लिए रूढ़ हो गई है। जब किसी को सुराज्य का उदाहरण देना होता है तो ‘‘रामराज्य” का प्रयोग किया जाता है।’
यही चिंतन स्वामी जी का योगीराज श्रीकृष्ण जी के बारे में रहा है। उन्होंने कृष्ण जी को भी भारतीय क्षत्रिय धर्म परंपरा का सर्वोत्तम महापुरुष माना है। इसके विपरीत पौराणिक लोगों ने श्री कृष्ण जी को बहुत ही अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे उनका वास्तविक पराक्रमी स्वरूप धूमिल सा हो गया है। इन लोगों ने रामचंद्र जी के साथ भी कम अन्याय नहीं किया है।
आज रामभद्राचार्य जी जिस प्रकार की बात कर रहे हैं, वह समय के अनुकूल नहीं है। क्योंकि आज सनातन में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को साथ आकर काम करने की आवश्यकता है। अन्यथा विधर्मियों का कुचक्र हम सबको दलकर रख देगा। जिस समाज के सम्मानित लोग इस प्रकार का आचरण करते हैं, उसमें सामाजिक एकता और समरसता का भाव कभी पैदा नहीं हो सकता । जबकि सामाजिक एकता और समरसता का भाव पैदा करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। आर्य समाज की ओर से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज जैसे संन्यासी इसी प्रकार का वंदनीय कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य सभी सनातनियों को एक मंच पर लाना है। ऐसी वंदनीय प्रयासों के मध्य रामभद्राचार्य जी के वक्तव्य से सारा आर्य जगत आहत है।
अच्छी बात यही होगी कि रामभद्राचार्य यथाशीघ्र स्वामी दयानंद जी के प्रति किए गए अपने पाप पूर्ण आचरण पर प्रायश्चित करें , जिससे आर्य समाज और पौराणिक लोगों के बीच किसी प्रकार का वैमनस्य उत्पन्न न हो। यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो फिर उन्हें आर्य जगत के विद्वानों की ओर से दी गई चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
हमारी मान्यता है कि हमारी सांझा शक्ति उन राष्ट्रद्रोहियों के विरुद्ध खर्च होनी चाहिए जो सनातन को मिटा देना चाहते हैं। यदि उससे अलग हमारी शक्ति आपस में लड़ने झगड़ने, आरोप प्रत्यारोप लगाने में खर्च होती है तो माना जाएगा कि हमने इतिहास से शिक्षा नहीं ली है। इसके सबसे बड़े दोषी रामभद्राचार्य जी जैसे लोग ही होंगे। अच्छी बात यही होगी कि स्वामी दयानंद जी महाराज के सर्व समावेशी विशाल व्यक्तित्व को पौराणिक समाज समझे और सनातन के प्रति आर्य समाज की वास्तविक चिंतनधारा के साथ अपने आपको जोड़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे।
ध्यान रहे कि आर्य समाज पौराणिक जगत का धर्मबंधु ही नहीं है बल्कि भारत की वीर परंपरा का संवाहक होने के कारण उसका रक्षक भी है। अपने इसी पवित्र दायित्व का निर्वाह करते हुए आर्य समाज ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सबसे अधिक बलिदान देकर यह सिद्ध किया कि वह राम और कृष्ण का सच्चा अनुयाई है। आर्य समाज के लोगों को यह ऊर्जा अथवा शक्ति तभी प्राप्त हुई थी, जब उन्होंने इन दोनों महापुरुषों के चित्र की पूजा न करके चरित्र की पूजा की थी। इसके विपरीत जो लोग राम और कृष्ण को कमतर करके आंकते रहे, वह कितने ही मोर्चों पर कायरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए।
समय सच को सच के रूप में प्रतिस्थापित करने का है। समय सामने खड़े संकट को देखने का भी है और उन अनेक षडयंत्रों का भंडाफोड़ करने का भी है जो हमको आपस में लड़ाने की युक्तियां खोज रहे हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि जिम्मेदार लोग अपनी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए आगे आएंगे और जो कुछ हो चुका है , उसे सुधारने संवारने का काम करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )