(हरिश्चन्द्र व्यास – विनायक फीचर्स)
प्रत्येक राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करता है। इन्हीं पाठशालाओं द्वारा समुदाय की समस्याओं का समाधान और उक्त समाधानों की युक्तियां समाज को प्राप्त होती है। भारतीय समाज विशेष रूप से विद्यालयों से आशा करता है कि वे भावी नागरिकों में उच्चादर्शों की स्थापना करके देश को स्वस्थ नागरिक दे सकेंगे।
प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय समाज की समस्याओं का निदान ऐसी शिक्षण संस्थाओं से संभव है? जहां सही ढंग से पोषण एवं प्रदूषण के बंधनों से मुक्त होने का ज्ञान देना तो दूर, स्वयं संस्थाएं ही मानसिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक रूप से प्रदूषित है, केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदाय कर निकले हुए बालकों से क्या राष्ट्रीय ज्योति प्रज्वलित किए जाने की आशा की जा सकती है?
विद्यालय बालकों में अपने मानसिक या भौतिक परिवेश के क्रिया कलापों की ग्रहण या संप्रेषित करने के लिए बुद्धि एवं हृदय की शैली की ऐसी रहस्यमय वृत्तियां आयोजित करता है जिससे उसकी शारीरिक, मानसिक एवं समस्त क्रियाओं को सुचालित करने में वह सफल सिद्ध हो सके। लेकिन यह सब ऐसे विद्यालयों में ही संभव हो सकता है जहां सामाजिक शैक्षिक एवं प्राकृतिक वातावरण प्रदूषित नहीं है वहीं छात्रों में परस्पर सक्रिय सहयोग एवं रचनात्मक क्रियाशीलता का विकास संभव है। जब हम शिक्षण संस्थाओं से भावी समाज हेतु उपादेय नागरिक तैयार करने की आकांक्षा करते हैं तो क्या हम जानते हैं कि वे शैक्षित एवं प्राकृतिक प्रदूषण से बची हुई है? निश्चय रूप से इसका उत्तर हमें नकारात्मक मिलेगा। शिक्षण संस्थाओं में तापमान व्यवस्था, प्रकाश व्यवस्था, प्राकृतिक प्रकाश के अधिकाधिक उपयोग हेतु करणीय उपाय ध्वनि, प्रदूषण एवं जल व्यवस्था पर ध्यान तक नहीं दिया जाता।
भारतीय शिक्षण संस्थाओं में छात्रों को झुलसने वाली गर्मी में अध्ययन हेतु मजबूर किया जाता है। स्वाभाविक है कि गर्म वातावरण में कार्यक्षमता एवं एकाग्रता का बना रहना मुश्किल है। अध्ययनरत छात्र शीघ्र थकान महसूस करने लगते हैं। गर्मी सामान्य से अधिक होने पर छात्रों की एकाग्रता और अध्ययन मनन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आज शिक्षण संस्थाओं में, प्राकृतिक प्रकाश का अभाव देखा जा सकता है, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में। शहरी क्षेत्रों तो विद्यालय अध्ययनरत छात्रों को एकाग्रता प्रदान करने में प्राय: असमर्थ हैं। श्रव्य प्रदूषण एकाग्रता को तो भंग करता ही है तंत्रिका तंत्र पर भी बोझ डालता है और बालक अपनी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करने में अपेक्षाकृत कम दक्षता प्रदर्शित कर पाता है।
शिक्षण संस्थाओं द्वारा बालकों की शारीरिक वृद्धि में सहायक होने की बजाय शारीरिक व स्थैतिकीय समस्याओं तथा पीठ व कमर की पीड़ा, पैरों की पीड़ा, सिर दर्द, गर्दन की पीड़ा, कमर झुकना या रीढ की हड्डी के तिरछेपन से पीडि़त होने के बारे में सूचनाएं प्राप्त होती रहती हैं क्योंकि विद्यालयों में फर्नीचर छात्रों के उपयोग हेतु उपयुक्त नहीं होते। जब बालकों के स्वास्थ्य के प्रति समाज व संस्थाएं अनभिज्ञ सी है तो आने वाली पीढ़ी शारीरिक रूप से कैसे स्वस्थ होंगी? इसी से उसके मानसिक रूप से स्वस्थ होने की आशा करना एक कल्पना मात्र रह जाएगी।
आज आने वाली पीढ़ी को न तो संस्कार, न उद्देश्यनिष्ठ शिक्षा न पौष्टिक भोजन और न ही शुद्ध पर्यावरण मिल रहा है। ऐसी स्थिति में शिक्षण संस्थाओं को मृत्यु मात्र समझें तो अतिश्योक्ति न होगी। प्रश्न गंभीरता से उठता है क्या अनादिकाल से सतत् ज्ञान प्रदान करने वाली संस्थाएं मर सकती है? नि:संदेह विद्यालय नहीं मर सकते। परन्तु इन्हें मतृप्राय: उस समय कह सकते हैं जब विद्यालय एक प्रकार से संस्कारहीन व शारीरिक मानसिक रूप से कमजोर पीढ़ी समाज को हस्तांतरित करती है। एक मृत विद्यालय बालकों की जिन्दगी से खिलवाड़ करता है और बालकों को मजबूर होकर अपनी शिक्षा समाप्त करने से पूर्व ही उसे छोडऩा पड़ता है या अस्पताल में विभिन्न बीमारियों से ग्रसित होकर इलाज करवाने को मजबूर होना पड़ता है।
आम आदमी की दृष्टि में एक विद्यालय को जब निर्जीव हो जाना मानते हैं जब उससे अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया ही समाप्त हो जाती है। परन्तु एक विद्यालय में जहां अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया का संगठन एवं संचालन तो सम्पन्न हो रहा है उसे फिर मृत विद्यालय कहना कहां तक न्यायोचित है?
अध्ययन प्रक्रिया का प्रतिफल आकांक्षाओं के अनुकूल राष्ट्र को प्राप्त न हो रहे हों, अपने प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य से भटकते जा रहे हैं। जहां न तो शैक्षिक न सामाजिक और न ही पर्यावरणीय शुद्धता हो और विभिन्न प्रकार की विकृतियों से ग्रसित हों, जहां केवल बुद्धि परीक्षण हेतु परम्परागत परीक्षा प्रणाली हो जो सर्जनात्मक और उत्प्रेरक सम्भावनाओं को नहीं बढ़ाती हो ऐसे विद्यालयों को मृत जैसी क्षति में ही कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्रदूषित नदी, जिसे मृत की संज्ञा दी जा सकती है, वह नदी किस प्रकार हमारी जिन्दगी को हर लेती है और हमें असमय ही मृत्यु की ओर ले जाती है? क्योंकि गन्दगी मिलने पर वह और गन्दी हो जाती है।
वास्तव में किसी नदी की प्राकृतिक सफाई प्रणाली का नाश हो जाना ही नदी की मृत्यु का प्रतीक है। ठीक इसी प्रकार विद्यालय द्वारा उद्देश्यों की पूर्ति न करने की असमर्थतता एवं प्रदूषित वातावरध ही विद्यालय की मृत्यु का प्रतीक है।
शरीर से श्वास निकलने के उपरान्त उसे मृत घोषित कर दिया जाता है जबकि उसके पार्थक शरीर के अंग सभी मौजूद रहते हैं, लुप्त होती है तो केवल श्वास प्रक्रिया। ठीक इसी प्रकार किसी शिक्षण संस्था का शैक्षिक एवं प्राकृतिक वातावरण जो राष्ट्रीय दर्शन एवं आकांक्षाओं के अनुरूप उपादेय नागरिक तैयार करने में असमर्थ है विद्यालय की मृत्यु का प्रतीक है। चाहे संस्थाएं कहने को नियमित रूप से क्रियाशील ही क्यों न हो। कई शालाएं बालकों को जहर पिला रही है क्योंकि प्रदूषित पानी को शुद्ध करने की व्यवस्था नहीं है। बच्चों में जल से उत्पन्न व फैलने वाली बीमारियों की जानकारी तक विद्यालयों को नहीं है। विद्यालय स्तर पर न्यून संख्या में ऐसी व्यवस्था शायद होगी जहां आदर्श कुआं हैण्ड पंप अथवा जल वितरण के अन्य आदर्श साधनों का उपयोग हो रहा है। ग्रामीण विद्यालयों में आज भी अधिकतर तालाबों, कुओं या हैण्डपंपों से प्रदूषित जल पीने को प्राप्त होता है। पीने के पानी की व्यवस्था जो स्रोत, शुद्धिकरण संग्रह एवं वितरण पर बिल्कुल ध्यान न देने के फलस्वरूप यकृत, शोथ, पोलियो अतिसार, पेचिश, मियादी बुखार, मोतीझरा व कृत्रिम रोग संस्थाओं द्वारा परितोषिक के रूप में दिया जा रहा है।
शालाएं कार्बन डाई ऑक्साइड की उत्पत्ति केन्द्र के रूप में साबित हो रही है जहां प्रकाश, शुद्ध वायु का प्रवेश प्रचुर मात्रा में नहीं होता। विद्यालयों की नालियों, प्रयोगशालाओं द्वारा निकले व्यर्थ पदार्थ, पीने के पानी के स्थान पर इकट्ठा पानी मच्छर पैदा करते हैं जिससे संग्रामित कर अस्वस्थ कर देते हैं। अक्सर कैंसर रोग का कारण यह प्रदूषित वायु ही है। शिक्षण संस्थाओं के समीप सिनेमाघर, मदिरालय एवं वेश्यालय आदि का होना आश्चर्य की बात नहीं। छात्र, अध्यापक, प्रशासन एवं कर्मचारियों का परस्पर सामंजस्य न होने से सामाजिक आदर्श वातावरण उपस्थित करने में अक्षम होते जा रहे हैं ये विद्यालय।
आज बहुत से ऐसे कम विद्यालय हैं जहां वाटिका एवं क्रीड़ांगन, व्यायामशाला, तरणताल की व्यवस्था हो। जबकि ये विद्यालय के सौंदर्य संवर्धन, स्वास्थ्य, अनुशासन, सह अस्तित्व एवं निष्कपट प्रतिस्पर्धा की भाव के विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है। शिक्षण संस्थाओं का प्राकृतिक वातावरण प्रदूषित हो चुका है जहां ये बालकों को परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से जहर पिला रही हैं, कार्बन-डाइ-आक्साइड की उत्पत्ति केन्द्र बन रही हैं तो दूसरी ओर प्रदूषण से छात्रों को बहरा बनाती जा रही है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से छात्र बीमार होकर काल के गाल में चले जाते हैं या जीवन पर्यन्त बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं।
आज संपूर्ण समाज इस तथ्य को जानता है कि विद्यालय अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्राय: असमर्थ हो रहे हैं। देश का भावी आधार (पीढ़ी) जहां तैयार हो रहा है, जिन्हें पवित्र व पूज्य स्थल माना जाता था उन विद्यालयों की विकृतियों से बचाया जा सकता था परन्तु अत्याधिक प्रशासनिक एवं शैक्षिक हस्तक्षेप ने विद्यालयों को असामान्य स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। वैसे भी यह कहा जा सकता है कि अभी भी समय है पूरे समाज को उठने का सावधान होने का। (विनायक फीचर्स)
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