रथ का निर्माता किसके लिए रथ का निर्माण करता है?

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हमें अपना जीवन किसके लिए बनाना चाहिए?
‘पाओ और फैलाओ’ से क्या अभिप्राय है?
वैदिक विवेक का अनुसरण न करने की क्या हानियाँ हैं?

अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय।
गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.61.4 (कुल मन्त्र 698)

(अस्मै इत् उ) निश्चय से यह उसके लिए है (परमात्मा के लिए) (स्तोमम) परमात्मा की महिमाएं (सम् हिनोमि) समान रूप से फैले हुए और बढ़े हुए (रथम) रथ (न) जैसे (तष्टेव) रथ के निर्माता (तत्सिनाय) रथ के स्वामी के लिए (गिरः) वैदिक विवेक की वाणियाँ (च) और (गिर्वाहसे) वैदिक विवेक की वाणियां को धारण करने वाले (सुवृक्ति) बुराईयों का त्याग करके उत्तम लक्षण (इन्द्राय) सर्वोच्च इन्द्र के लिए (विश्वमिन्वम) सर्वत्र व्यापक आहुतियाँ, ज्ञान (मेधिराय) ज्ञान के स्रोत की अनुभूति।

व्याख्या:-
रथ का निर्माता किसके लिए रथ का निर्माण करता है?
हमें अपना जीवन किसके लिए बनाना चाहिए?

मैं परमात्मा की महिमाओं को प्राप्त करता हूँ और धारण करता हूँ, निश्चित रूप से उसकी अनुभूति के लिए और उन महिमाओं को समान रूप से फैलाने के लिए और उनके संवर्द्धन के लिए जिस प्रकार एक रथ का निर्माण करने वाला उस रथ को उसके स्वामी के लिए समर्पित कर देता है। वैदिक विवेक की वाणियाँ सर्वोच्च इन्द्र के लिए हैं जिससे उन वाणियों को धारण करने वाले बुराईयों का त्याग करके उत्तम लक्षण पैदा कर सकें और उन्हें धारण कर सकें। हमारी आहुतियाँ और ज्ञान सर्वत्र व्याप्त हो जाता है और हमें उस ज्ञान और आहुतियों के स्रोत की अनुभूति प्राप्त करने में सहायक होता है।

जीवन में सार्थकता: –
‘पाओ और फैलाओ’ से क्या अभिप्राय है?
वैदिक विवेक का अनुसरण न करने की क्या हानियाँ हैं?

हमें अपना यह शरीर रथ अर्थात् अपना जीवन किस प्रकार से तैयार और बनाकर रखना चाहिए जो इसके स्वामी को सृष्टि चलाने में सहायता कर सके। हमें अपने ज्ञान और आहुतियाँ सबके कल्याण के लिए फैला देनी चाहिए। वैदिक विवेक का यही सार है। ‘इसे पाओ और इसे फैलाओ’, चाहे वह भौतिक हो या मानसिक। इस प्रकार हम इस सृष्टि का उपयोग समुचित प्रकार से कर पायेंगे और इसके निर्माता की अनुभूति प्राप्त कर सकेंगे।
पदार्थों और ज्ञान को केवल स्वार्थ के लिए प्रयोग करना, अपने जीवन पर या अपने परिवार पर या एक वर्ग पर केन्द्रित रहना विवादों और युद्धों को जन्म देता है। मनुष्यों के बीच सद्भाव तथा मनुष्यों और प्रकृति के बीच सद्भाव असंतुलित हो जायेगा। चारों तरफ सद्भाव बिगड़ने पर मानसिक असंतुलन, प्रकृति का असंतुलन और संक्षिप्त में कलियुग का वर्तमान दृश्य पैदा होता है। अतः कलियुग की समस्याओं का एक मात्र समाधान है कि हम वैदिक विवेक का अनुसरण करें – ‘पाना और फैलाना।’

सूक्ति:-
(विश्वमिन्वम् मेधिराय) हमारी आहुतियाँ और ज्ञान सर्वत्र व्याप्त हो जाता है और हमें उस ज्ञान और आहुतियों के स्रोत की अनुभूति प्राप्त करने में सहायक होता है।


अपने आध्यात्मिक दायित्व को समझें

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