ललित गर्ग-
केंद्र की राजग सरकार ने एक महत्वपूर्ण एवं साहसिक आदेश के जरिये सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी रोक को हटा कर लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक भावना एवं मूल्यों का जीवंत किया है। भले ही इस आदेश को लेकर विपक्षी राजनीतिक दलों की तल्ख प्रतिक्रिया सामने आ रही है। वहीं संघ ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि तत्कालीन सरकार ने निराधार ही शासकीय कर्मियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगायी थी। निश्चित ही वर्तमान सरकार का यह निर्णय लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक गैर-राजनीतिक संगठन है, गत 99 वर्षों से सतत राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में संलग्न संघ एक रचनात्मक, सृजनात्मक एवं सांस्कृतिक संगठन है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय में संघ के योगदान की विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के नेताओं एवं दलों ने प्रशंसा भी की है। इस नये आदेश को लेकर इंडी गठबंधन के दलों में खलबली एवं बौखलाहट का सामने आना स्वाभाविक है, क्योंकि इस आदेश से संघ की ताकत बढ़ेगी, जो इन विपक्षी दलों की चिन्ता का बड़ा कारण है।
दरअसल, आरोप है कि पूर्व की कांग्रेस सरकारों ने समय-समय पर सरकारी कर्मचारियों की संघ के कार्यक्रमों में शामिल होने पर रोक लगा दी थी। संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर कर्मचारियों को कड़ी सजा देने तक का प्रावधान लागू किया गया था। सेवानिवृत होने के बाद पेंशन लाभ इत्यादि को ध्यान में रखते हुए भी अनेक सरकारी कर्मचारी चाहते हुए भी संघ की गतिविधियों में शामिल होने से बचते थे। हालांकि, इस बीच मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारों ने इस आदेश को निरस्त कर दिया था, लेकिन इसके बाद भी केंद्र सरकार के स्तर पर यह वैध बना हुआ था। इस मामले में एक वाद इंदौर की अदालत में चल रहा था, जिस पर अदालत ने केंद्र सरकार से सफाई मांगी थी। इसी पर कार्रवाई करते हुए केंद्र सरकार ने नौ जुलाई को एक ऑर्डर जारी करते हुए उक्त प्रतिबंधों को समाप्त करने की घोषणा कर दी। निश्चित ही यह आदेश संघ से जुड़े एवं राष्ट्रीय विचारधारा वाले सरकारी कर्मचारियों के लिये एक नयी किरण है।
आपातकाल में इंदिरा गांधी सरकार की तानाशाही खुलकर सामने दिखी थी, लेकिन उससे पहले भी तानाशाही कदम उठाए जाते रहे थे। दरअसल, 7 नवंबर 1966 को संसद के सामने गोहत्या के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था। 30 नवंबर 1966 को संघ-जनसंघ के प्रभाव से हिलकर इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों के संघ में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि संघ व जनसंघ के प्रयासों से लाखों लोग जुटे थे और पुलिस के साथ टकराव में कई लोगों की जान गई थी। गोलीबारी में सैंकड़ों निर्दोष साधु-संत मारे गये थे। इस जघन्य हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने अपना त्यागपत्र दे दिया था। कांग्रेस पार्टी ने 58 साल पहले वर्ष 1966 में संघ पर लगाये गए प्रतिबंध को हटाने के औचित्य पर सवाल उठाए हैं। कहा जा रहा है कि जनसंघ, वाजपेयी सरकार और मोदी सरकार की पिछली एक दशक की सरकार के दौरान भी यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया था, फिर अभी हटाने के पीछे गहरी राजनीतिक चाल है। वहीं संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील अंबेकर का कहना है कि संघ पिछले 99 साल से राष्ट्र के सतत निर्माण व समाज सेवा में संलग्न रहा है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते तत्कालीन सरकार ने शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने हेतु निराधार प्रतिबंधित किया था।
क्रांति का फलित है व्यापक स्तर पर होने वाला कोई बड़ा परिवर्तन। व्यक्ति जिस समाज में जीता है, उसकी व्यवस्थाओं, नीतियों और परम्पराओं में जब घुटन का अनुभव करता है जो वह किसी नए मार्ग का अनुसरण करता है। आज आजादी के बाद की राजनीतिक विसंगतियों से पनपी ऐसी ही घुटन से बाहर निकालने के प्रयत्न वर्तमान सरकार द्वारा हो रहे हैं। ऐसा ही एक विशिष्ट उपक्रम है सरकारी कर्मचारियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर लगा प्रतिबंध का हटना। इसको लेकर भी विपक्षी दलों द्वारा जनता को गुमराह किया जा रहा है, राष्ट्र की एकता को विखंडित करने के प्रयास हो रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार ने संघ की गतिविधियों में कर्मचारियों के शामिल होने पर लगे प्रतिबंध को हटाकर नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा की है। निःसंदेह, सरकार का यह निर्णय लोकतंत्र और संविधान की भावना को मजबूत करनेवाला है। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह विविध सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संगठनों में शामिल हो सके। एक सामान्य नागरिक की भांति यह अधिकार कर्मचारियों को भी प्राप्त है कि अपने कार्यालयीन समय के बाद सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा हो सकते हैं। परंतु, लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देनेवाली कांग्रेस की सरकार ने तानाशाहीपूर्ण तरीके से संघ की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था, जो एक प्रकार से राष्ट्रीय विचार के प्रति झुकाव रखनेवाले लोगों को हतोत्साहित करने का प्रयास ही था। कांग्रेस की नीयत को समझिए कि उसने ऐसा कोई प्रतिबंध इस्लामिक, ईसाई, कम्युनिस्ट और अन्य प्रकार के संगठनों की गतिविधियों में शामिल होने पर नहीं लगाया था। यानी कर्मचारी इस्लामिक एवं ईसाई संगठनों से जुड़ सकता था लेकिन हिन्दू संगठन की गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकता था। कांग्रेस की इस तानाशाही एवं द्वेष का उत्तर संघ ने तो कभी नहीं दिया लेकिन समाज ने अवश्य ही कांग्रेस को आईना दिखाने का कार्य किया।
कांग्रेस लगातार आठ दशकों में हिन्दू-संस्कृति को कमजोर करने की राजनीतिक चालें चलती रही है। जबकि हिन्दू धर्म नहीं, विचार है, संस्कृति है। हिन्दू राष्ट्र होने का अर्थ धर्म से न होकर हिन्दू संस्कृति के सर्वग्राही भाव से है। हिन्दू संस्कृति उदारता का अन्तर्निहित शंखनाद है क्योंकि पूरे विश्व में यह अकेली संस्कृति है जो बहुविचारवाद यानी सभी धर्म, विचार एवं संस्कृतियों को स्वयं में समेटे हैं। हमारे ऋषियों ने हमें यह उपदेश दिया कि ‘सत्यं बूर्यात न बूर्यात सत्यं अप्रियं’ अर्थात सच बोलो मगर कड़वा सच मत बोलो। हिन्दू संस्कृति की यही महानता और विशेषता रही है कि प्रिय सत्य की वकालत तो करती है मगर इसके कटु होने पर निषेध करने को भी कहती है। यह हिन्दू संस्कृति अहिंसा की संस्कृति है पर जरूरत पड़ने पर शस्त्र उठाकर स्व-रक्षा की बात भी कहती है। हिन्दू शब्द से ही स्वराष्ट्र का बोध होता है जो कि हिन्दू संस्कृति के वृहद स्वरूप का ही सौपान है। लेकिन राजनीतिक कारणों से कांग्रेस एवं अन्य ताकतों ने हिन्दू संस्कृति को निस्तेज करने, संघ को दबाने एवं समाप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न किए। इस आदेश के अतिरिक्त तीन बार संघ पर पूर्ण प्रतिबंध भी लगाया। संघ की छवि खराब करने के लिए बड़े-बड़े नेताओं की ओर से मिथ्या प्रचार भी किया गया। अपने समर्थक बुद्धिजीवियों से पुस्तकें भी लिखवायी गईं। लेकिन निस्वार्थ भाव से देश और समाज के लिए कार्य करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोई रोक नहीं सका।
अपनी 99 वर्ष की यात्रा में संघ ने लगातार प्रगति एवं विस्तार ही किया है। अपने विचार, आचरण एवं सेवाकार्यों से संघ ने समाज का विश्वास जीता, जिसके कारण समाज सदैव संघ के साथ खड़ा रहा। कांग्रेस सरकार का तात्कालिक आदेश भी सरकारी कर्मचारियों को संघ कार्य में सहभागी होने से रोक नहीं सका। कई ऐसे उहाहरण हैं, जिनमें संघ गतिविधि में शामिल होने पर कांग्रेस की सरकारों ने सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की। लेकिन वे सभी मामले न्यायालय में टिक नहीं सके। संघ के स्वयंसेवक न्यायालय से जीतकर आए। उनकी छोटी-छोटी जीतों की श्रृंखला ने भी यह साबित किया कि संघ की गतिविधियों में शामिल होने से रोकने के लिए लगाया गया कांग्रेस सरकार का आदेश निरर्थक और संविधान एवं मौलिक अधिकारों की मूल भावना के विरुद्ध था।