हनुमान जी कूटनीति में बहुत निपुण थे। सीता जी से वार्तालाप करने के पश्चात वह अब राम जी के पास लौटने का मनोरथ बना चुके थे, पर तभी उनके मस्तिष्क में एक नया विचार आया। उन्होंने सोचा कि किसी प्रकार रावण से भी भेंट होनी चाहिए । जिससे कि उसके बल की भी जानकारी मिल सके। उसके दरबार के लोग ,सेनापति ,मंत्री आदि उसके इस अनैतिक कार्य से कितने सहमत हैं ? इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए। जिससे कि लंका पर चढ़ाई करने से पहले समुचित तैयारी की जा सके। इसके लिए उन्होंने अशोक वाटिका में उत्पात मचाना आरंभ कर दिया। उनके इस उत्पात को कई लोगों ने केवल बंदर की उछल कूद तक सीमित करके देखा है। जबकि वह एक महाबुद्धिमान और कूटनीतिज्ञ मनुष्य थे। उन्होंने उत्पात मचाया, उसके बाद रावण के कई अधिकारियों सेनापतियों को यमलोकपुरी भेजा । यह सब उन्होंने सुनियोजित योजना के अंतर्गत किया। क्योंकि उन्हें यह भली प्रकार जानकारी थी कि पूरा उत्पात करने के पश्चात अंत में उन्हें बांधकर या पकड़ कर रावण के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। हम सभी जानते हैं कि ऐसा ही हुआ भी । अंत में उन्होंने रावण के समक्ष उपस्थित होते हुए भी अपने बौद्धिक चातुर्य का परिचय दिया। जब उनसे पूछा गया कि वह कौन हैं , तो उन्होंने अपने आप को पवन पुत्र हनुमान तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह राम के दूत हैं । राम एक राजा थे और राजा के दूत को मारना पूर्णतया विधि विरुद्ध था। जब रावण ने उन्हें उनके उत्पात के कारण मारने की सजा सुनाई तो रावण के दरबारियो ने ही इसका विरोध किया और कहा कि किसी दूत को मारा नहीं जा सकता। इस प्रकार अपने बौद्धिक चातुर्य से हनुमान जी ने अपने प्राणों की रक्षा अपने आप कर ली।
मचा दिया हनुमान ने, तभी वहां उत्पात।
कूटनीति में थे निपुण , पवन पुत्र उदात्त ।।
पलक झपकते कर दिया, बहुत बड़ा विध्वंस।
सैन्य दल का संहार कर, यज्ञशाला विध्वंस।।
जम्बुमाली को किया , पूर्णतया निष्प्राण।
मंत्री पुत्र आगे बढ़े , हर लिए उनके प्राण।।
सेनापति भी मारकर , भेज दिए यमलोक।
संख्या उनकी पांच थी , पड़ा लंका में शोक।।
अक्षय को मरना पड़ा , बनता था बड़ा वीर।
सिद्ध किया हनुमान ने, सचमुच वही महावीर।।
रावण पुत्र को अंत में , लेनी पड़ी कमान।
रणनीति सोची हुई , कैद हुए हनुमान।।
प्रस्तुत हुए लंकेश के , समक्ष वीर हनुमान।
राम का मैं दूत हूं, यही परिचय पहचान।।
सुना दिया लंकेश ने , उत्पातों का दंड।
जो कुछ भी इसने किया, दे दो मृत्यु दंड।।
विभीषण जी कहने लगे, दंड यह प्रतिकूल।
दूत का वध होता नहीं , राजधर्म अनुकूल।।
रावण बोला – ठीक है , विभीषण जी की बात।
निंद्य कर्म है , दूत को पहुंचाना आघात।।
इसके संग इतना करो, जला दीजिए पूंछ।
सभी तरफ से घेर लो , कर ना पाए कूच।।
( वाल्मीकि जी ने पूंछ ना लिखकर लांगूल शब्द का प्रयोग किया है। जिसे स्वामी जगदीश्वरानंद जी महाराज ने बाल्मीकीय रामायण का भाष्य करते हुए वानर जाति का राष्ट्रीय चिन्ह घोषित किया है, कदाचित यही व्याख्या उचित है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )
मुख्य संपादक, उगता भारत