देश में बढ़ रही कुतर्क की राजनीति
सुरेश हिंदुस्तानी
राजनीति में सकारात्मक दिशा के अभाव में देश को जो नुकसान उठाना पड़ता है, वह भले ही प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं दे, लेकिन उससे समाज पर प्रभाव अवश्य ही होता है। अगर यह प्रभाव नकारात्मक चिंतन की धारा के प्रवाह को गति देने वाला होगा तो देश को भी अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ता है। वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, उसे भटकाव पैदा करने वाली राजनीति कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इतना ही नहीं, जो विषय राजनीति के नहीं होने चाहिए, उनको भी राजनीतिक दल राजनीति के दल दल में ले जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार के किसी भी निर्णय का अपने हिसाब से परिभाषित करना राजनीति का प्रिय विषय बनता जा रहा है। इससे प्रायः मूल विषय बहुत पीछे छूट जाता है और बहस कहीं और चली जाती है।
आज के राजनीतिक वातावरण का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने एजेंडे हैं। कोई भी किसी दूसरे की बात को ऐसे तर्क देकर उसका प्रक्षालन करते हैं, जैसे केवल उनकी ही बात सही है और बाकी सब गलत बयानी कर रहे हैं। हालांकि यह बात सही है कि कमी सभी जगह होती है, लेकिन कुछ अच्छे काम भी होते हैं, आज इन अच्छे कामों की चर्चा कहीं भी नहीं हो रही है। सब एक दूसरे की गलतियां निकालने में ही राजनीति का मुख्य उद्देश्य बनता जा रहा है। यह राजनीति की सकारात्मक दिशा तो कतई नहीं मानी जा सकती। हाँ… इसे नकारात्मक राजनीति अवश्य कहा जा सकता है। ऐसी राजनीति आम जनता में भटकाव पैदा करती है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि जो जनता सरकार के विरोध का विचार रखती है, वह विपक्ष की हर बात को सही मानकर ही व्यवहार करेगी और जो विपक्ष की बातों पर भरोसा नहीं करती, उसे सत्ता पक्ष की बात मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वास्तव में ऐसी राजनीति के बजाय देश हित की राजनीति करने की ओर सभी दलों को आगे आना चाहिए। लेकिन आज के वातावरण में ऐसा होना संभव नहीं लगता। क्या यह सही नहीं है कि देश में भाजपा के नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनी है, लेकिन विपक्ष इस बहुमत वाली सरकार को पराजित सरकार कहकर लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहा है। हालांकि यह मानने में कोई अतिरेक नहीं है कि विपक्ष पहले से मजबूत हुआ है, लेकिन वह विपक्ष में ही है। इसको भी खुले मन से स्वीकार करने की मानसिकता बनानी होगी, तभी हम कह सकते हैं कि राजनीति देश को सही दिशा में ले जाने की हो रही है।
आजकल समाचार के विभिन्न माध्यमों पर सामयिक विषयों पर चर्चा होती है, लेकिन इन चर्चाओं में सभी तरफ से पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्तियों को ही शामिल करने का चलन हो गया है। दूसरे की बात को नकारना ही इन चर्चाओं का एकमेव सिद्धांत बनता जा रहा है। इतना ही नहीं, कोई एंकर अपनी ओर से भारत के चिंतन पर आधारित कोई तथ्य रखता है तो उस एंकर को भी किसी राजनीतिक दल का समर्थक बताने में कोताही नहीं की जाती। हो सकता है कि कोई पत्रकार विचारधारा से किसी राजनीतिक दल की बात को सही ठहराने की वकालत कर रहा हो। क्योंकि आज के समय में अधिकांश पत्रकार और समाचार पत्र किसी न किसी राजनीतिक दल का खुल कर समर्थन करता है तो कोई विरोध की शैली ही अपनाता है। ऐसी पत्रकारिता भी ठीक नहीं कही जा सकती, लेकिन कई समाचार चैनल ऐसे भी हैं जो निष्पक्ष तरीके से बहस कराते हैं। यह एंकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से ही सवाल करते हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की ओर से एंकर को सवालों के घेरे में खड़े करना ठीक नहीं कहा जा सकता। आजकल जो डिबेट चल रही हैं, उनमें विपक्ष की ओर से ऐसा व्यवहार किया जा रहा है, जैसे उन्होंने भाजपा को हरा दिया है। इसके लिए अगर कोई एंकर विजयी सांसदों की संख्या बताता है तो तर्क वितर्क प्रारंभ हो जाता है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन ज़ब यह तर्क वितर्क से आगे बढ़कर कुतर्क की शैली में आ जाता है तो विवाद होने लगता है। राजनेताओं को राजनीतिक लड़ाई केवल दलीय आधार पर करना चाहिए, लेकिन यहां पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर अपने तरकस से तीर निकालने का प्रयास किया जाता है। अगर भाजपा का कोई प्रवक्ता तीसरी बार सरकार बनाने की बात को लोकतंत्र की विजय निरुपित करता है तो इसमें गलत क्या है। इसे विपक्ष को खुले मन से स्वीकार करने में हिचक क्यों हो रही है। एक कहावत है कि सच बहुत कड़वा होता है, जिसने सच को स्वीकार करना सीख लिया, वह कुतर्क करने की चेष्टा नहीं कर सकता।
लोकतंत्र क्या है? इसकी परिभाषा या तो राजनेता जानते नहीं हैं या फिर जानते हुए भी नहीं जानने का नाटक करने का प्रयास कर रहे हैं। लोकतंत्र की परिभाषा “जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है। राजनेता तो मात्र जनता के प्रतिनिधि ही हैं। लेकिन वर्तमान में राजनेता जनता से ऊपर मानने की ओर प्रवृत हो चुके हैं। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि भारत की जनता ने लोकसभा के चुनाव में सबसे ज्यादा सीट भाजपा को दी हैं। इसे सीधे अर्थों में प्रदर्शित किया जाए तो यही कहना उचित होगा कि भाजपा ही जनता की पहली पसंद है। उसे जनता ने 240 सीट दी है। बाकी का कोई भी दल तीन अंकों की संख्या तक भी नहीं पहुँच सका है। ऐसे में क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि मिलकर चुनाव लड़ने के बाद भी विपक्ष सरकार बनाने में सफल नहीं हो सका। इसे हार ही कहा जाएगा, लेकिन विपक्ष इसी हार को ऐसे प्रचारित कर रहा है, जैसे यह उसकी बहुत बड़ी जीत है। कांग्रेस ने भले ही अपनी स्थिति में सुधार करते हुए प्रदर्शन किया हो, लेकिन इसे बड़ी जीत नहीं कहा जा सकता। सत्य यह भी है कि कांग्रेस ने जो प्रदर्शन किया है, वह उसके अपने परिश्रम का परिणाम नहीं है। उत्तरप्रदेश में अगर सपा का समर्थन नहीं होता तो कांग्रेस किस स्थिति में होती, यह अनुमान लगाया जा सकता है। यहां एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल सपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है, कांग्रेस राष्ट्रीय दल होने के बाद भी सपा से बहुत पीछे है। इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। यही लोकतंत्र की जीत है। तर्क वितर्क और कुतर्क करने की राजनीति से भ्रम की स्थिति बनती है। इस प्रकार की राजनीति का कोई ठोस आधार नहीं होता।
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सुरेश हिंदुस्तानी, वरिष्ठ पत्रकार