(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं)
प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’)
गतांक से आगे …
मो क्ष से सम्बन्ध रखनेवाले इन उपर्युक्त समस्त मौलिक सिद्धांतों का सुनना और उन पर ध्यान से विचार करन आर्यसभ्यता का सबसे प्रधान लक्षण है। यही कारण है कि एक आर्यबालक आचार्यकुल में जाकर यज्ञोपवीत के दिन से ही सन्ध्योपासन के समय ‘सूर्याचन्द्रमसौ पाता यथापूर्व मकल्पयत्’ का पाठ नित्य पढ़ता है और गुरुमुख से नित्य इसका अर्थ सुनता है कि इस सूर्यचन्द्रादि सृष्टि को परमात्मा ने उसी तरह बनाया है, जिस तरह इस के पूर्व भी वह अनेकों बार बना चुका था। इस नित्य के श्रवणाध्ययन से भीरे धीरे विद्यार्थी को सृष्टि के कारणों और उसके उत्पत्तिक्रमों का ज्ञान होने लगता है और हमने गतपृष्टों में जिस वैदिक, आार्ष और आर्य रीति से सृष्टि के कारणों और उसके उत्पत्ति- क्रमों का वर्णन किया है, उस रीति से सृष्टि का रहस्य खुल जाता है और उसके हृदय में तीन बातें निर्भान्तरूप से अपना घर कर लेती हैं। पहली बात तो उसके मन में यह जम जाती है कि इस सृष्टि को अनियमित, अस्वाभाविक और शुभित करनेवाला केवल मनुष्य ही है। जब तक मनुष्य उत्पन्न नहीं होता तब तक सृष्टि में कुछ अस्वाभाविकता अथवा पाप नहीं होता । प्रत्युत सब प्राणी सृष्टि के नियमों में बंधे हुए अपना अपना नियमित काम करते हैं और कोई किसी को दुःख नहीं देता। किन्तु मनुष्य के उत्पन्न होते ही संसार में अस्वाभाविकता आ जाती है।
इसका कारण मनुष्य का ज्ञानस्वातंत्र्य ही है। यह अपने ज्ञानस्वातंत्र्य से सृष्टि के नियमों का भंग करता है और समस्त प्राणियों को दुःखी कर देता है। दूसरी बात उसके मन में यह बैठ जाती है कि मनुष्य के अतिरिक्त जितने प्राणी हैं सब पूर्वजन्म के मनुष्य ही हैं। मनुष्यों ने अपने ज्ञानस्वातंत्र्य से जो सृष्टिनियमों के विरुद्ध कर्म किया है, उसी के फलभोगार्थ उनको ये शरीर मिले हैं। क्योंकि इन प्राणियों के शरीरों की बनावट बिलकुल ही मनुष्य के शरीरों के साथ मिलती जुलती है। अन्तर केवल इतना ही है कि इन्होंने जिस जिस अङ्ग का दुरुपयोग किया है वह वह अङ्ग मन्द हो गया है और अब ये लड़े शरीरवाले न रहकर आाढ़े और उलटे शरीरवाले हो गये हैं। तीसरी बात उसके मन में यह स्थिर हो जाती है कि जब मनुष्य ही अपने दुष्कर्मों के कारण पशु, पक्षी और वृक्ष होकर नाना प्रकार के कष्ट भोगता है, तो अब ऐसे कर्म न करना चाहिये, जिससे पशु अथवा वृक्ष होना पड़े, किन्तु ऐसे कर्म करना चाहिये कि जिससे इन पशुओं और वृक्षों के मूल कारण मनुष्य शरीर ही को घारण न करना पड़े।
इसके सिवा मनुष्यशरीर में भी तो सब दुःख ही दुःख भरा है। रोग, दोष, हानि, बिछोह, भय, चिन्ता और जरामरण आदि अनिवार्य कष्टों से छुटकारा इसमें भी तो नहीं है। इसमें भी तो राजा और सुष्टिशासन की अनिवार्य परतन्त्रता भोगनी पड़ती है। इसलिए अब इन शरीरों के फेर से ही निकल जाना चाहिए और आज से अब ऐसे कर्म करना चाहिये, जिनसे भविष्य में न तो स्वयं शरीर धारण करना पड़े और न अन्य प्राणियों को ही कष्ट हो, प्रत्युत एक ऐसा मोक्षमार्ग बन जाय कि जिसके द्वारा हम को भी मोक्ष मिल जाय और ये प्राणी भी मनुष्यशरीर में आकर मोक्षमार्गी बन जायें। किन्तु प्रायः लोगों की ओर से इस कर्मयोनि और भोगयोनि के पुनर्जन्मसम्बन्धी सिद्धान्त पर यह आपत्ति की जाती है कि जब मनुष्य ही कर्मयोनि है और वही कर्मवश कर्मफल भोगने के लिए अन्य भोगयोनियों में आता है और जब वही एक छोटे से मलिन पानी के कुण्ड में कृमिरूप से इतनी अधिक संख्या में मौजूद है, जो संख्या वर्तमान पौने दो अर्व मनुष्यों से भी अधिक है तो क्या यह संभव है कि इतने अधिक मनुष्य कभी रहे हों, जिनकी संख्या वर्तमान समस्त भोगयोनियों से भी अधिक रही हो और ये समस्त भोगयोनियाँ मनुष्य ही रही हों ? इस आपत्ति का उत्तर बहुत ही सरल है।
- गोयथ (Goeth) भी कहता है कि ‘All the prospect pleases, only man is vile’ अर्थात् समस्त मुराइयों की जड़ मनुष्य ही है।
क्रमशः