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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत: दिल्ली सल्तनत और अफगानिस्तान

दिल्ली सल्तनत और अफगानिस्तान

भा रत के वीर पराक्रमी शासकों, सेनानायकों और सैनिकों के सैकड़ों वर्ष के प्रतिशोध के पश्चात् तुर्क इस्लामिक आक्रामक भारत की राजधानी दिल्ली तक पहुँचने में सफल हो गए। 712 ई. से लेकर 12 जून, 1206 ई. तक हमारे कितने ही वीर बलिदानियों ने अपने बलिदान दे-देकर माँ भारती की सेवा और सुरक्षा की, परंतु इस्लाम का अंधड़ जून 1206 में दिल्ली में प्रवेश पाने में सफल हो ही गया। 12 जून, 1206 ईस्वी को भारतवर्ष में जिस गुलाम वंश की स्थापना की गई, उससे लेकर 21 अप्रैल, 1526 ई. तक यहाँ पर कुल 5 राजवंशों ने शासन किया। इन पाँचों वंशों के शासकों की कुल अवधि को ‘दिल्ली सल्तनत’ के नाम से इतिहास में स्थान दिया जाता है। यहाँ पर हम इस काल का संक्षिप्त वर्णन केवल इसलिए कर रहे हैं कि इस काल के सारे के सारे शासक उस अफगानिस्तान की देन थे, जो कभी हिंदू-बौद्ध और उन दोनों से पहले आर्य संस्कृति का ध्वजवाहक हुआ करता था। अब समय और परिस्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी थीं तो अब यही अफगानिस्तान भारत के लिए अपने यहाँ से आक्रमणकारियों को भेजने लगा और कालान्तर में भारत पर अपने आक्रमणकारियों के माध्यम से शासन करने की स्थिति में आ गया।

  भारत पर अब जिन पाँच राजवंशों ने अलग-अलग शासन किया, उनके नाम इस प्रकार हैं-गुलाम वंश 1206 से 1290 ई. तक, खिलजी वंश 1290 से 1320 ई. तक, तुगलक वंश 1320 से 1414 ई. तक, सैयद वंश 1414 से 1451 ई. तक, लोदी वंश 1451 से 1526 ई. तक।

लगभग सवा 300 वर्ष तक के शासनकाल में सल्तनत काल के जितने भी मुस्लिम शासक हुए उन सबका अंतिम उद्देश्य भारत का सांस्कृतिक विनाश करना था। उन्होंने इस देश को जीभर कर लूटा और कभी भी इस देश को अपना देश नहीं माना। उनका अंतिम उद्देश्य इस प्राचीन देश का सांस्कृतिक नाश कर इस्लामीकरण करना था जिसमें वह पूर्णतया सफल नहीं हुए। इसका कारण यही था कि भारत का पराक्रम और भारत का शौर्य इन विदेशी आक्रामक शासकों का सदैव प्रतिरोध करता रहा।

इनमें से चार वंश मूलतः तुर्क थे जबकि अंतिम वंश अफगान था। सारे सल्तनतकाल में अफ़गानिस्तान अपने द्वारा निर्यातित इन शासकों को इस दृष्टिकोण से देखता रहा कि वह भारत पर कितनी दूर तक और कितनी देर तक शासन करते हैं? यह विदेशी आक्रमणकारी अफगानिस्तान की ओर से ही भारत में प्रविष्ट हुए और अफगानिस्तान की भूमि को अपने लिए एक शिविर के रूप में प्रयुक्त करते रहे। जिस पवित्र अफगान भूमि से कभी इन लोगों को चुनौती मिला करती थी, वह चुनौती अब शांत हो गई थी और न केवल शांत हो गई थी, अपितु इनके लिए उर्वरा भूमि के रूप में भी काम कर रही थी।

    गुलाम वंश का पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गौरी का गुलाम था। इस गुलाम ने उत्तर भारत के बड़े भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इसके पश्चात् खिलजी वंश ने भारत के मध्य भाग तक जाने का पहली बार साहस किया। यद्यपि भारत की पराक्रमी शक्ति ने इन सभी शासकों का भरपूर प्रतिरोध किया, परंतु यह भी मानना पड़ेगा कि इस काल में भारतवर्ष को क्षति भी काफी उठानी पड़ी। धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत को उजाड़ने का सारे सल्तनतकालीन सुल्तानों ने प्राणपण से प्रयास किया। उन्होंने अनेकों मंदिरों को लूटा, उनका विध्वंस किया और अपने इस कार्य में बाधा बनने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष, आबाल वृद्ध का नरसंहार करने में कोई संकोच नहीं किया। रक्त बहाने के कीर्तिमान स्थापित करने में हर शासक ने एक से बढ़कर एक अत्याचार करने का प्रयास किया। ऐसे-ऐसे अत्याचार इस काल में किए गए, जिनके वर्णन करने तक से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    कुछ लोगों ने भारत पर इस्लाम के इस आक्रमण और आक्रमणकारियों को इस प्रकार देखने का प्रयास किया है कि जैसे इनके आने पर भारत में एक नई वास्तुकला का उदय और उद्भव हुआ। जबकि यह भी इतिहास की एक भ्रांत धारणा है। इससे पूर्व भारत में वास्तुकला अपने उत्कर्ष पर थी। दूसरी बात यह भी है कि जो कला अपने आप में पूर्ण हो वह किसी अर्द्धविकसित या अल्पविकसित कला को साथ लेकर नहीं चल सकती, क्योंकि वह उस अर्द्धविकसित या अल्पविकसित कला से कुछ ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होती, अपितु इसके उलट उसे कुछ देने की स्थिति में होती है। यह देखा जाता है कि जो अल्पविकसित या अर्द्धविकसित कला होती है, वह पूर्ण विकसित कला में समाविष्ट हो जाती है या उसकी नकल करते हुए कुछ करने का प्रयास करती है।

  अतः यह कहना ही उचित होगा कि अफगानिस्तान के रास्ते भारत में प्रविष्ट हुई तथाकथित इस्लामिक वास्तुकला ने भारत से सब कुछ सीखा। इससे भी अधिक सत्यतापूर्ण तथ्य यह है कि जब इस्लामिक आक्रामक भारत में प्रविष्ट हुए तो उनके पास वास्तुकला के संबंध में कोई ज्ञान था ही नहीं। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, भारत में आकर ही सीखा। जहाँ से वह चले थे वहाँ पर वास्तुकला का कोई भी ऐसा उत्कृष्ट नमूना आज भी हम नहीं देख पाते हैं जिससे यह कहा जा सके कि वह अपने देश से ही वास्तुकला को लेकर चले थे, उन्होंने यहीं पर आकर के हमारे कुशल कारीगरों से या लोगों से वह सब कुछ सीखा जिस पर उन्होंने अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया है।

पृष्ठभूमि -हम पूर्व के अध्यायों में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि 962 ईस्वी में दक्षिण एशिया के हिन्दू और बौद्ध साम्राज्यों के ऊपर मुस्लिम सेना द्वारा, जो कि फारस और मध्य एशिया से आए थे, व्यापक स्तर पर हमले होने लगे। इनमें से महमूद गजनवी ने सिंधु नदी के पूर्व में तथा यमुना नदी के पश्चिम में बसे साम्राज्यों को 997 ई. से 1030 ई. तक 17 बार लूटा। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार और भारत के मंदिरों को समाप्त कर यहाँ पर इस्लामिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना, इन सारे लुटेरे आक्रमणकारियों या दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों का सामूहिक उद्देश्य था। अपने इसी सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह सदियों से भारत की सीमाओं को तोड़ने और अंदर प्रविष्ट होने का प्रयास कर रहे थे। उनकी सोच थी कि बहुत दिनों के संघर्ष के पश्चात् भारत भूमि को लूटने-पाटने और यहाँ के धर्म व संस्कृति को मिटाने का अवसर मिला है। अतः इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया जाए। जबकि भारत के पराक्रमी लोगों का मानना था कि हमारे पूर्वज जिस अफगानिस्तान के हिन्दू लोगों के धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपने बलिदान देते रहे और इस पवित्र भारत भूमि की रक्षा के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे, उनके उस पराक्रमी भाव और संस्कार को बलवती करके रखना उनका जीवन व्रत है।

महमूद गजनवी ने 17 बार के अपने आक्रमणों में भारत में पर्याप्त लूटपाट की। कितने ही लोगों को असामयिक काल का ग्रास बनाने में भी उसने संकोच नहीं किया, परन्तु इतना सब कुछ करने के उपरांत भी वह अपने साम्राज्य को पश्चिम पंजाब तक ही बढ़ा सका। महमूद गजनवी के बारे में प्रोफ़ेसर हबीब का कहना है- "महमूद असीम संपत्ति में लोटता था। भारतीय उसके धर्म से घृणा करने लगे। लुटे हुए लोग कभी भी इस्लाम को अच्छी दृष्टि से नहीं देखेंगे। ... जबकि उसने अपने पीछे लूटे मंदिर, बर्बाद शहर और कुचली लाशों की सदा जीवित रखने रहने वाली कहानी को ही छोड़ा है। इससे धर्म के रूप में इस्लाम का नैतिक पतन ही हुआ है। नैतिक स्तर उठने की बात तो दूर रही, उसकी लूट 30,00,000 दिहरम आँकी गई है।"

 30 अप्रैल 1030 ई. को महमूद गजनवी का देहांत हो गया। उस समय उसकी अवस्था 63 वर्ष थी। उसकी मृत्यु के उपरांत भी अफगानिस्तान में उसके छोड़े गए लुटेरे सरदार व दस्यु दल के सदस्य लूटपाट, हत्या, डकैती, बलात्कार आदि करते रहे। परंतु वे भारत में स्थायी इस्लामिक शासन स्थापित नहीं कर सके। जितने क्षेत्र पर उसके लोगों ने अपना आधिपत्य स्थापित किया था, उसे भारतीय पराक्रम ने शीघ्र ही समाप्त कर दिया।

       महमूद गजनवी के आक्रमण के पश्चात् बहुत देर तक अफगानिस्तान और भारत के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति बनी रही। इसके बहुत देर पश्चात् जाकर गोर वंश के सुल्तान मोहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर योजनाबद्ध ढंग से हमले करना आरम्भ किया। उसने अपने उद्देश्य के अंतर्गत इस्लामिक शासन को विस्तार देना आरंभ किया। गौरी एक सुन्नी मुसलमान था, जिसने अपने साम्राज्य को पूर्वी सिंधु नदी तक बढ़ाया और सल्तनत काल की नींव डाली। तत्कालीन अफगानिस्तान के हिंदू और बौद्ध धर्म के मानने वाले लोगों पर इसने बहुत अधिक अत्याचार किये थे। अपने अफगानिस्तानी भाइयों के साथ हुए इन अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए भारत की आत्मा मचल रही थी। यही कारण था कि 1206 ई. में गौरी की हत्या शिया मुसलमानों की शह पर हिन्दू खोखरों द्वारा कर दी गई। इसकी हत्या के उपरांत भारत का इतिहास नई दिशा में आगे बढ़ा। अभी तक किसी भी मुस्लिम शासक का भारत में अपना राज्य स्थापित करने का साहस नहीं हुआ था। अब पहली बार ऐसा हुआ कि गौरी के एक तुर्क गुलाम या ममलूक कुतुब-उद-दीन ऐबक ने सत्ता संभाली और दिल्ली का पहला सुल्तान बना।

ममलूक या गुलाम वंश (1206-1290 ई.) तक

  जैसा कि हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गौरी का एक गुलाम था। जिसने भारत में मोहम्मद गौरी के पश्चात् गुलाम वंश की स्थापना की। इसका शासनकाल मात्र 4 वर्ष का रहा, परंतु इतने समय में भी इसने भारत में हिंदुओं का जितना अहित किया जा सकता था, उतना करने का हरसंभव प्रयास किया। कुतुबुद्दीन ऐबक मूल रूप से तुर्क था। उसके गुलाम होने के कारण ही इस वंश का

नाम गुलाम वंश पड़ा। उसकी मृत्यु 1210 ई. में हो गई थी। उसके पश्चात् दिल्ली की सल्तनत का स्वामी आरामशाह बना। परन्तु उसकी हत्या सत्ता प्राप्त करने के लालच में इल्तुतमिश ने 1211 ई. में कर दी। इल्तुतमिश के गद्दी संभालते ही भारत में सुल्तानों की सल्तनत में सत्ता का घृणित खेल आरंभ हो गया। जितने भर भी डकैत मुस्लिम अमीर उसके दरबार में या राज्य में प्रभावी स्थिति रखते थे, उन सबने उसकी सत्ता को चुनौती देना आरंभ कर दिया। इन सारे सुल्तानों या मुस्लिम नवाबों और बादशाहों के समय में जितने भर भी सत्ता संघर्ष हमें होते हुए दिखाई देते हैं, उन सबका एकमात्र कारण यह है कि सत्ता को चुनौती देने वाले ये लोग मूल रूप में या तो दस्यु दल के सदस्य रहे थे या दस्यु संस्कृति में इनका पूर्ण विश्वास था। यही कारण था कि समय आने पर इनके दस्यु भाव उभर आते थे और यह अपने ही स्वामी के विरुद्ध एक चुनौती बनकर के खड़े हो जाते थे। यही कारण था कि इल्तुतमिश के अपने ही सरदार उसके लिए भी सत्ता के लिए एक चुनौती बन कर खड़े हो गए। कुछ कुतुबी अमीरों ने उसका साथ भी दिया। उसने इन विद्रोही सरदारों में से अनेकों सरदारों का क्रूरतापूर्वक दमन कर दिया। इल्तुतमिश ने मुस्लिम शासकों से युद्ध करके मुल्तान और बंगाल पर नियंत्रण स्थापित किया, जबकि रणथम्भौर और शिवालिक की पहाड़ियों को हिन्दू शासकों से प्राप्त किया। इस प्रकार अफगानिस्तान की ओर से भारत में प्रविष्ट हुई यह संक्रमण की बीमारी अब भारत के भीतर तक पाँव फैलाने का प्रयास करने लगी। इल्तुतमिश ने 1236 ई. तक शासन किया।

       इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् उसके राज्य सिंहासन की उत्तराधिकारी उसकी पुत्री रजिया सुल्ताना बनी। रजिया सुल्ताना के बारे में कई इतिहासकारों की मान्यता है कि वह एक दुर्बल चरित्र की महिला थी। इस वंश में एक प्रमुख सुल्तान गयासुद्दीन बलबन हुआ जिसने 1266 से 1287 ई. तक शासन किया था। बलबन की मृत्यु के उपरांत कैकुबाद ने सत्ता संभाली। उसने जलाल-उद-दीन फिरोज शाह खिलजी को अपना सेनापति बनाया। खिलजी ने कैकुबाद की हत्या कर सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार कैकुबाद की हत्या के पश्चात् ही गुलाम वंश भी भारत से समाप्त हो गया।

खिलजी वंश (1290-1320 ई.) तक - जब गुलाम वंश अपने अंतिम दिनों में था तब कैकुबाद के विरुद्ध अफगानिस्तान के उसके सरदारों ने भी षड्यंत्र रचा था और उन षड्यंत्रों का परिणाम यह हुआ था कि उसके हाथों से सत्ता खिसककर खिलजी वंश के शासक जलालुद्दीन खिलजी के हाथों में चली गई। जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में सत्ता प्राप्त की। उसको सत्ता के इस शीर्ष तक पहुँचाने में अफ़गानिस्तान के अमीरों के साथ-साथ तुर्क और फारस के अमीरों का भी हाथ रहा था। इस प्रकार भारत में दस्यु सुल्तानों के साम्राज्य के विस्तार करने या उन्हें अपने संकेतों पर नचाने का काम अफगानिस्तान से भी हो रहा था।

 जलालुद्दीन खिलजी मूल रूप में अफगानिस्तान से जुड़ा हुआ था। उसके भीतर भी वही संस्कार थे जो अब अफगानिस्तान की मिट्टी पर पुष्पित और पल्लवित हो रहे थे अर्थात् दस्यु लोगों के माध्यम से दूसरे संप्रदायों को कैसे समाप्त कराया जाए और कैसे उनकी संस्कृति और धर्म का विनाश किया जाए? वह संस्कार इस सुल्तान के भीतर भी भरे हुए थे।

  कहते हैं कि किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं जाता, उसका फल अवश्य ही मिलता है। जिस प्रकार कैकुबाद की हत्या करके जलालुद्दीन खिलजी ने सत्ता प्राप्त की थी, मात्र 6 वर्ष पश्चात् ही उसके लिए भी वह घड़ी आ गई जब उसकी हत्या करके उसके राज्यसिंहासन को उसी के भतीजे और दामाद अलाउद्दीन खिलजी ने प्राप्त कर लिया। उस समय अलाउद्दीन खिलजी का नाम जूना खान था और वह कड़ा का सूबेदार था। अपनी इस जागीरदारी के काल में उसने 1292 ई. में मालवा पर और 1294 ई. में देवगिरी पर आक्रमण किया और वहाँ पर बहुत बड़ी संख्या में लोगों की हत्या करके लूटपाट की। इस प्रकार अफगानिस्तान की भूमि से निकला यह कुसंस्कार भारत में अब व्यापक उत्पात मचा रहा था। खिलजी ने सुल्तान रहते हुए दक्षिण भारत में अपने कई सैन्य अभियान चलाए। उसने गुजरात, मालवा, रणथम्भौर और चित्तौड़ को अपने राज्य में शामिल कर यहाँ के अनेकों हिंदू मंदिरों का विनाश किया और बहुत बड़ी संख्या में हिंदू लोगों की हत्या की। उसकी इस जीत के रंग में भंग मंगोलों ने किया, जिन्होंने उसके शासनकाल में देश की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर उत्पात मचाना आरंभ किया। तुर्क लोग अपने लिए भारत को सुरक्षित जागीर के रूप में देख रहे थे, परंतु उनकी देखा-देखी मंगोलों ने भी उसी रास्ते से भारत में प्रवेश करने का प्रयास किया, जिस रास्ते से यह तुर्क लोग भारत में प्रविष्ट हुए थे। दस्यु प्रवृत्ति के लोगों की यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह जिस रास्ते से किसी अपने पूर्ववर्ती को किसी घर, समुदाय, देश या समाज में प्रविष्ट होते हुए देखते हैं, उन्हीं उपायों को अपनाते हुए उसी रास्ते से यह भी उसमें प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। स्पष्ट है कि जब यह मंगोल लोग पश्चिमी सीमा से भारत में प्रवेश कर रहे थे तो उस समय अफगानिस्तान के लोगों को भी इनके आक्रमणों से क्षति उठानी पड़ी। ये मंगोल लोग लूटमार के पश्चात् लौट गए और छापे मारने भी बंद कर दिए।

       भारत में प्रविष्ट हुए इन मुस्लिम आक्रमणों ने जहाँ-जहाँ पर भी अपना साम्राज्य स्थापित किया वहीं-वहीं पर लूटपाट, हत्या और डकैती जैसे जघन्य अपराधों में ही अपना वक्त बिताया। मंगोलों के वापस लौटने के पश्चात् अलाउद्दीन ने अपने सेनापति मलिक काफूर और खुसरो खान की मदद से दक्षिण भारत की ओर साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ कर दिया और भारी मात्रा में लूट का सामान एकत्र किया। उसके सेनापतियों ने लूट के सामान एकत्र किये और उस पर घनिमा अर्थात्, युद्ध की लूट पर कर चुकाया, जिससे खिलजी साम्राज्य को मजबूती मिली। इन लूटों में उसे वारंगल की लूट में अब तक के मानव इतिहास का सबसे बड़ा हीरा कोहिनूर भी मिला।

      अलाउद्दीन खिलजी पूर्णरूपेण एक निरंकुश और अत्याचारी शासक था। उसने हिंदुओं के साथ अत्यंत क्रूरता और दमन का व्यवहार किया। उसने हिंदुओं के कृषि उत्पादन तक पर अतिरिक्त कर लगाया। इसके अतिरिक्त हिंदुओं पर जजिया कर लगा कर भी उन्हें उत्पीड़ित करने का प्रयास किया।

भारत में इन तुर्क, सुल्तानों का एकमात्र उद्देश्य यह था कि यहीं से लूटो और यहीं पर सेना तैयार कर अपना साम्राज्य विस्तार करो। कहने का अभिप्राय है कि तुर्क सुल्तानों के द्वारा जो कर वसूल किए जाते थे, उनका उद्देश्य जनहित के विकास कार्य करना नहीं था, अपितु भारत की संस्कृति और धर्म का विनाश करना इनका उद्देश्य था। यहीं के धन को लूट कर यहीं सेना तैयार कर यहीं पर विनाश किया जाए-शासन का सारा उद्देश्य केवल इस पर केंद्रित होकर रह गया था।

    यही कारण रहा कि हिंदू समाज ने इन तुर्क शासकों का पहले दिन से विरोध करना आरंभ किया।

  उसने सहाना-ए-मंडी नाम से कई मंडियाँ भी बनवाई। अलाउद्दीन खिलजी ने यह मंडियाँ केवल मुसलमान व्यापारियों को विशेष लाभ प्रदान करने के लिए बनवाई थीं। अलाउद्दीन खिलजी की क्रूरता और निर्दयता का इस बात से ही पता चल जाता है कि वह अपने विरुद्ध किए जा रहे षड्यंत्र का पता लगने पर उस षड्यंत्र में सम्मिलित रहने वाले लोगों का परिवार सहित नाश कर डालता था। हिन्दू लोग उसके साम्राज्य में बहुत अधिक आतंकित रहते थे। कहा जाता है कि 1298 में, उसके आतंक के कारण दिल्ली के समीप एक दिन में 15,000 से 30,000 लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।

      अलाउद्दीन खिलजी के राजदरबार में अफगानिस्तान के सरदारों का विशेष सम्मानपूर्ण स्थान था। अतः राजदरबार की गतिविधियों में और शासन पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए बहुत अधिक हस्तक्षेप करने लगे थे। जब अलाउद्दीन खिलजी का 1316 ई. में देहांत हुआ तो उसके पश्चात् सत्ता किसके हाथों में जाए ? इसका निर्णय करने के लिए भी अफगानी सरदार विशेष रूप से सक्रिय हो गए थे। यह सरदार लोग उसी व्यक्ति को शासक बनाते थे या उसका ही समर्थन करते थे जो उनके अनुसार चलता था। अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर पूर्व में हिन्दू था, परंतु बाद में वह इस्लाम ग्रहण कर मुसलमान बन गया था। उसके मूल रूप में हिंदू होने के कारण अफगानी सरदारों ने उसका साथ सत्ता प्राप्त करने में नहीं दिया। मलिक काफूर मारा गया। इसके पश्चात् अलाउद्दीन खिलजी के बेटे कुतुबुद्दीन मुबारक शाह ने अफगानिस्तानी सरदारों के सहयोग से सत्ता प्राप्त की, परंतु वह भी खुसरो शाह के हाथों मारा गया। इस खुसरो शाह को भी कुछ महीने पश्चात् ही गयासुद्दीन तुगलक नाम के व्यक्ति द्वारा मार दिया गया। इस प्रकार गयासुद्दीन तुगलक ने 1320 ई. में नए राजवंश की स्थापना की, जो कि इतिहास में तुगलक वंश के नाम से जाना जाता है।

तुगलक वंश- तुगलक वंश ने 1320 से 1414 ई. तक शासन किया। गयासुद्दीन तुगलक ने 1320 से 1325 ई. तक शासन किया। जबकि मुहम्मद बिन तुगलक ने 1325 से 1351 ई. तक और फिर फिरोजशाह तुगलक ने 1351 से 1387 ई. तक शासन किया। इसके पश्चात् के तुगलकी शासक दुर्बल शासक माने जाते हैं। 1398 ई. में तैमूर लंग ने इसी वंश के शासनकाल में भारत पर आक्रमण किया था। उसके पश्चात् भारत में तुगलक वंश की नींव हिल गई थी और जैसे-तैसे लड़खड़ाते हुए इस वंश ने 1414 ई. तक शासन किया। उसके पश्चात् सैयद वंश ने सत्ता संभाली।

  तुगलक वंश हो चाहे, फिर उससे पूर्व के या पश्चात् के सल्तनत काल के अन्य वंश हों, उन सबके समय में हिंदू प्रतिकार और प्रतिशोध सोया नहीं था, अपितु वह अपने पूर्ण पराक्रम के साथ इन विदेशी शासकों का केवल इसलिए विरोध व प्रतिशोध कर रहा था कि ये लोग भारत के धर्म और संस्कृति को मिटाने पर उतारू थे। अतः हिंदू विरोधी पूर्ण पराक्रम के साथ सल्तनत काल में चलता रहा। भारत के लोग नहीं चाहते थे कि जिस प्रकार ईरान और अफगानिस्तान में हिंदू या तो अल्पसंख्यक हो चुका था या मिट चुका था, वही कहानी भारत में भी यह तुर्क आक्रामक या विदेशी शासक दोहरा दें?

सैयद वंश- दिल्ली सल्तनत के चौथे राजवंश के रूप में सैयद वंश का नाम उल्लेखित किया जाता है। जिसका शासनकाल 1414 से 1451 ई. तक रहा। मोहम्मद साहब के वंशज होने के कारण यह वंश सैयद वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसने केवल 37 वर्ष तक शासन किया। इन 37 वर्षों में इस वंश के चार शासक हुए। इस वंश की स्थापना खिजखान ने की थी। यह वही खिजखान था जिसे तैमूर ने मुल्तान का राज्यपाल नियुक्त किया था। इस खिजखान ने 28 मई, 1414 ई. को सैयद वंश की स्थापना तो की, परंतु वह अपने आपको सुल्तान घोषित नहीं कर सका। इसका कारण यही था कि वह अपने आपको तैमूर के प्रति कृतज्ञ होने के कारण उसका अधीनस्थ समझता था। यही कारण रहा कि तैमूर और उसके उत्तराधिकारी शाहरुख मिर्जा के प्रति कृतज्ञता का भाव ज्ञापित करते हुए खिज्रखान ने स्वयं को जागीरदार के रूप में ही स्थापित किया। खिज्रखान की मृत्यु के उपरांत 20 मई, 1421 ई. को उसके पुत्र मुबारक ने सत्ता प्राप्त की। मुबारक खान ने अपने आपको सिक्कों पर मोइजुद्दीन मुबारक शाह के रूप में लिखवाया है। मुबारक शाह के पश्चात् उसका दत्तक पुत्र मोहम्मद खान सत्तारूढ़ हुआ जिसने स्वयं को सुल्तान मुहम्मद शाह के रूप में स्थापित किया। इसका उत्तराधिकारी अलाउद्दीन था जिसने 19 अप्रैल, 1451 ई. को अपनी गद्दी स्वेच्छा से बहलोल लोदी के लिए छोड़ दी और बदायूँ चला गया। इसके पश्चात् दिल्ली पर लोदी वंश शासन करने लगा।

लोदी वंश- लोदी वंश के बारे में कहा जाता है कि यह वंश खिलजी अफगान लोगों की पश्तून जाति से बना था। इस वंश ने भारतवर्ष पर 1451 से 1526 ई. तक शासन किया। यह दिल्ली का प्रथम अफगान शासक परिवार था। इस प्रकार वह अफगानिस्तान जिस पर कभी भारत के वैदिक ऋषियों का सीधा प्रभाव था अब उसके लुटेरे शासक परिवार भारत पर प्रत्यक्ष रूप से शासन करने की स्थिति में आ गए। यहाँ तक आते-आते संस्कारों और विचारों में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका था। हमारे ऋषियों के चिंतन से उद्भुत जो संस्कार वहाँ पर प्रबल थे, वह मानवतावादी विचारों के पोषक थे। जबकि अब जो वहाँ से भारतवर्ष के लिए विचार आयातित हो रहे थे वह एक लुटेरी राजनीतिक संस्कृति के पोषक विचार थे, जो किसी भी दृष्टिकोण से मानवीय नहीं कहे जा सकते थे।

लोदी वंश भारत का प्रथम अफगान राज्य वंश था। यह सुलेमान पर्वत के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों का वंश था। यह लोग पूर्व में मुल्तान और पेशावर के बीच और पश्चिम में गजनी तक सुलेमान पर्वत क्षेत्र में फैले हुए थे। ये लोग बहुत ही निर्धन वर्ग के थे। लूटपाट करना उनका व्यवसाय था। जिससे यह अपना जीवनयापन करते थे। ऐसे लुटेरे लोगों पर पहली बार जब महमूद गजनवी की दृष्टि गई तो उसने इन्हें अपने लिए बहुत उपयोगी माना। यही कारण रहा कि महमूद गजनवी ने अफगान लोगों को अपना साथी बनाकर उनका उपयोग करना आरंभ किया। प्रारंभ में अफगान सैनिकों का उपयोग भारत के सुल्तान सीमावर्ती चौकियों को मजबूत करने और पहाड़ी क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में करते रहे। यह प्रक्रिया मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल से प्रारंभ हुई। प्रारंभ में इन अफगान लोगों ने सल्तनत के राजदरबार में अपना नियंत्रण स्थापित किया और धीरे-धीरे अपनी स्थिति सुदृढ़ करते हुए शासन पर नियंत्रण करने की स्थिति में आ गए।

  लोदी वंश के प्रमुख शासकों में बहलोल लोदी ने 1451 से 1489 ई. तक शासन किया। जबकि सिकंदर लोदी ने 1489 से 1517 ई. तक और इब्राहिम लोदी ने 1517 से 1526 ई. तक शासन किया। बहलोल लोदी अफगानों की शाहुखेल शाखा से संबंध रखता था। उसके बारे में विख्यात है कि वह अपने अफगान अमीरों को इतना सम्मान देता था कि उनके समक्ष सिंहासन पर भी नहीं बैठता था, अपितु उनकी उपस्थिति में कालीन पर बैठकर उनसे बातें करता था। वह अपने अमीरों को 'मसनद ए आली' कहता था और उन्हें लूट से प्राप्त आय में समान हिस्सा देता था। इसका अभिप्राय है कि अमीरों और सुल्तान का एक ही उद्देश्य था कि भारत को लूटा कैसे जाए और लूट के उस माल को प्राप्त कर कैसे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जिया जाए?

   इब्राहिम लोदी अपने शासनकाल में एक अलोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ। यही कारण रहा कि उसके शासनकाल में अनेकों विद्रोह भड़क उठे। चित्तौड़गढ़ में महाराणा संग्राम सिंह इस अलोकप्रिय शासक को हटाकर स्वयं हिंदू राज्य की स्थापना करने के लिए सक्रिय हो रहे थे। इतना ही नहीं, इब्राहिम लोदी का अपना सगा चाचा आलम खान भी उसे छोड़कर काबुल चला गया था।

   उधर काबुल में बाबर अपनी राजनीतिक शक्ति को बढ़ाता जा रहा था। वह काबुल और कंधार पर अधिकार स्थापित कर चुका था और अब भारत की ओर बढ़ने का संकल्प और सपना बुन रहा था। बाबर का जन्म चाहे जहाँ हुआ हो और चाहे उसने फरगना की घाटी और समरकंद से ही अपने राजनीतिक जीवन का आरंभ किया हो, परंतु उसे राजनीतिक शक्ति तो काबुल और कंधार ने ही दी, अर्थात् वही काबुल और कंधार जो कभी भारतीयता के गीत गाते थे, अब एक नए लुटेरे को तैयार कर रहे थे, जो भारत पर तूफान की भाँति चढ़ता चला रहा था। इसी बाबर ने 1519 से 1526 ई. तक इब्राहिम लोदी के शासनकाल में भारत पर 5 आक्रमण किये। अन्त में वह 1526 ई. में जाकर सफल हुआ, जब उसने पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया। बाबर ने भारत में एक नए राजवंश की स्थापना की जिसे इतिहास में मुगल वंश के नाम से जाना जाता है। इसकी चर्चा हम अलग से करेंगे।

क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)

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