नोबेल पुरस्कार विजेता : गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर
7 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि पर विशेष
भारत की पावन धरती पर कितनी ही महान विभूतियों ने जन्म लिया है, कितने ही विदेशी महापुरूषों ने इस पावन धरती को अपनी कर्म स्थली बनाया है। प्राचीन काल से ही भारत की पावन धरा ने मातृवत मानवता को अपने पुनीत पयोधर से पावन पयपान कराकर उसे सत्कृत्यों के लिए प्रेरित किया और संसार को स्वर्ग बनाने की दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी इसी विशिष्टता के कारण ही भारत की धरती को विश्व के लोगों ने जहां वंदनीय माना वहीं इस महान देश की महान परंपराओं को विश्व शांति और मानवता के कल्याणार्थ सर्वश्रेष्ठ माना।
माँ भारती ने अपनी कोख से या गोद से विश्व समुदाय को अब तक ऐसे सात मूल्यवान मोती दिये हैं। जिन्होंने संसार के सबसे बड़े पुरस्कार नोबेल पुरस्कार को प्राप्त किया। विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की आभा को बिखेरने वाले इन मोतियों पर भारत को ही नहीं , अपितु विश्व विरासत को भी नाज है। इन मोतियों में सर्वप्रथम और पहला नाम है :-गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का।
गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता के जोरासांको मौहल्ले में हुआ। सरस्वती के पुत्र गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था। इनके पिता उपनिषदों के विद्वान तो थे ही साथ ही हिंदू समाज में व्याप्त मूर्ति पूजा के महान विरोधी भी थे। कलकत्ता के गणमान्य लोगों में उनकी गिनती होती थी। राजा राममोहनराय के समाज सुधार के कार्यों का उन पर गहरा प्रभाव था। ऐसे गुणी पिता के बहुत से गुण व्यक्तित्व की निराली शोभा बनकर गुरूदेव को उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे। उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य से विशेष लगाव था। उन्होंने केवल सात वर्ष की आयु में ही बंगला भाषा में कविता लिखना सीख लिया था। बचपन का यह चमत्कार आने वाले दिनों का आगाज दे रहा था। 17 वर्ष की अवस्था में गुरूदेव उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए लंदन गये। वहां वायरन शहर के बाहर एक स्कूल में प्रवेश लिया। वहीं रहकर आपने पहली पुस्तक वाल्मीकि-प्रतिभा लिखी। उसकी सफलता से प्रभावित होकर कालमृगया लिखी। 1884 में आपका विवाह मृणालिनी देवी के साथ हुआ।
वैवाहिक जीवन संक्षिप्त रहा, क्योंकि मृणालिनी देवी 1902 में ही स्वर्ग सिधार गयीं। उनसे आपको तीन बेटी और दो बेटे कुल पांच संतानें थीं। सबसे बड़ी बेटी 15 वर्ष की थी तो छोटा बेटा पत्नी के देहांत के समय मात्र सात वर्ष का था। 1905 में पिता का स्वर्गवास हो गया। एक बेटी रेणुका भी कुछ समय बाद चल बसी। इसी क्रम में एक दिन हैजे की चपेट में आकर छोटा प्यारा बेटा शमीन्द्र भी संसार से चला गया। दुखी गुरूदेव की सरस्वती साधना चलती रही। वह बहुत दुखी थे। परंतु भीतर का कवि कुछ नई नई प्रेरणा देकर उन्हें सम्बल देता और आगे बढऩे के लिए प्रेरित करता। तब आपने गीतांजलि लिखी।
इसी महान पुस्तक पर आपको 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला। भारत के लिए यह पहला नोबेल पुरस्कार था। गुरूदेव इसे प्राप्त कर पत्नी, पिता व संतान को याद कर बहुत रोये थे। वह भारत के ही नहंी बल्कि एशिया के पहले व्यक्ति थे जिन्हें यह पुरस्कार मिला था। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘ सर ‘ की उपाधि प्रदान की थी। लेकिन 1919 में जलियांवाला बाग के हत्याकाण्ड से आहत होकर उन्होंने यह उपाधि वापिस कर दी थी। 1912 में जब भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लायी गयी तो कांग्रेसी लोगों ने ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम के स्वागत के लिए एक स्वागत गान बनाने की जिम्मेदारी गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही दी थी। बाद में गुरूदेव गांधीजी के संपर्क में आकर नेहरूजी से मिले और नेहरूजी ने उन्हें पर्याप्त धन देकर उपकृत किया था।
जॉर्ज पंचम के लिए स्वागत गान गुरूदेव ने बनाया और उसे कांग्रेसी लोगों ने बड़ी शान से गाया। बाद में यह स्वागत गान कांग्रेस के हर समारोह में गाया जाने लगा। यह स्वागत गान ही आज कलहमारा राष्ट्रगान है। जन-गण-मन अधिनायक जय हे! का यह गीत बंगला में लिखा गया था। इसकी कुल 8 कली हैं। हम पहली कली को ही गाते हैं।
गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस गीत की सफलता पर तथा हर अवसर पर इसे गाने से अप्रसन्नता व्यक्त की थी। वह नही चाहते थे कि यह गीत इतना लोकप्रिय हो क्योंकि इस गीत में एक विदेशी सम्राट की वंदना में कशीदे काढ़े गये थे। वह इस गीत को लेकर कुंठित रहे। अपनी मृत्यु से पूर्व भी उन्होंने एक पत्र लिखा , जिसमें इस गीत को किसी समारोह में न गाने की इच्छा व्यक्त की गयी थी।गुरूदेव टैगोर पारिवारिक जीवन से दुखी रहे थे। उनकी बेटी का बेटा नीतू उनके आश्रम शांतिनिकेतन में उनके साथ रहता था। अब गुरूदेव अपने उस नाती के ऊपर ही अधिक निर्भर थे। वह उससे अधिक प्रेम करते थे। सारा आश्रम उसके कारण खुशियों से भरा रहता था। इसे आपने उच्च शिक्षा के लिए यूरोप भेजा था। वहां उसकी तबियत बिगड़ी और एक दिन गुरूदेव के जीवन की अंतिम ज्योति को काल के क्रूर हाथों से बुझाकर वह नाती भी संसार से चला गया। गुरूदेव उसकी मृत्यु के कष्टï को झेल नही पाए।अब उन्हें अकेलापन खाने लगा था। उनके लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं था। वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि बस! अब बुला लो, और यही हुआ। 7 अगस्त1941 को ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनी और वह हमें रोता बिलखता छोड़ संसार से चले गये। उन्होंने कुल 15 किताबों की रचना की। एक से बढक़र एक महानता के कार्य किये। इसीलिए संसार आज तक उन्हें सम्मान के साथ याद करता है।
आज हम अपने इसी महान व्यक्तित्व के धनी नोबेल पुरस्कार विजेता की पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं, उनकी सरस्वती साधना को वंदन और उनकी महानता का अभिनंदन करते हुए हमें गर्व होता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत