5 अगस्त को जब धारा 370 और 35a को हटाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में प्रस्ताव प्रस्तुत किया तो कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने इस प्रस्ताव का यह कहकर विरोध किया भाजपा ऐसा करके लोकतंत्र और संविधान की हत्या कर रही है । जबकि उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14 मई 1954 को जब इस प्रावधान को संविधान में प्रविष्ट कराया था तो उन्होंने उस समय संसद से इसकी स्वीकृति प्राप्त नहीं की थी ।
यह संविधान की मूल पुस्तक में आज तक भी नहीं मिलता । इसे अलग से नेहरू जी ने अपनी मनमर्जी करते हुए संविधान में राष्ट्रपति के माध्यम से स्थान दिलाया था । चोरी से यह प्रावधान हमारे देश के संविधान में स्थापित किया गया और नेहरू द्वारा देश के शरीर में लगाई गई यह जोंक देश का चुपचाप खून पीती रही । अब क्योंकि इस प्रावधान के रहने से गुलाम नबी आजाद और उनकी मानसिकता वाले लोगों के स्वार्थ पूरे हो रहे थे तो इसलिए जब संविधान की हत्या की गई या लोकतंत्र का गला घोंटा गया तब उन्हें कुछ नहीं दिखाई दिया, पर आज जब इस असंवैधानिक और अयुक्तियुक्त प्रावधान को संविधान से हटाकर लाखों लोगों को देश की मुख्यधारा में लाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है तो उन्हें देश के संविधान और लोकतंत्र की हत्या होती हुई नजर आ रही है ।सचमुच ऐसे दोगले लोगों की दोगली राजनीति के कारण ही देश की वर्तमान दुर्दशा हुई है । हमारा संविधान कानून के समक्ष समानता की बात करता है , लेकिन इस प्रावधान के कारण कश्मीर में लाखों हिंदुओं को आज तक समानता के अधिकार का लाभ नहीं मिल पाया । 1954 से लेकर आज तक उन लोगों ने वहां कैसे अपना जीवन वहां बसर किया है ? इसका दर्द केवल वही जानते हैं।
संविधान का यही प्रावधान है जो यह व्यवस्था करता है कि”स्थायी नागरिकों के अधिकारों के संबंधित कानूनों का संरक्षण करना — संविधान में कुछ भी हो फिर भी, कोई भी वर्तमान कानून जम्मू और कश्मीर राज्य में तथा भविष्य में राज्य विधानमंडल द्वारा क्रियान्वयित नहीं होगा । इसका अभिप्राय है कि भारत के संविधान को कश्मीर में प्रवेश न करने देने का प्रतिबंध यही प्रावधान लगाता है।
इसी प्रावधान के चलते जम्मू और कश्मीर राज्य का स्थायी नागरिक कौन हैं अथवा होंगे इसे परिभाषित किया गया है जिसमें ऐसी व्यवस्था की गई है कि वहां के हिंदुओं को वहां का नागरिक ही न माना जाए और यदि माना भी जाए तो द्वितीय श्रेणी का नागरिक उन्हें माना जाए और उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करके निरीह प्राणी के रूप में रहने की अनुमति दी जाए।
इसी असंवैधानिक प्रावधान ने यह भी व्यवस्था कर रखी थी कि ऐसे स्थायी नागरिकों को विशेषाधिकार प्रदान करना तथा अन्य व्यक्तियों पर निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रतिबन्ध लगाना— राज्य सरकार में नौकरी , राज्य की अचल सम्पत्ति का अधिग्रहण , राज्य में बसना; या
राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति या ऐसी कोई अन्य सहायताbअन्य भारतीय नागरिकों को इस आधार पर नहीं दी जाएगी , क्योंकि यह स्थायी नागरिकों के लिये असंगत या उनको प्रदत्त विशेषाधिकारों का हनन होगा।
इस प्रकार के प्रावधान करके भारत के भीतर ही एक ऐसा मुस्लिम साम्राज्य स्थापित किया गया जो पूर्णतया संवैधानिक होकर भी मुगलिया दौर के शासन की याद दिलाता था । सारा देश इस अन्याय को होते हुए देखने के लिए अभिशप्त था । कोई समझ नहीं पा रहा था कि इस अभिशाप से मुक्ति कैसे मिलेगी ?
संवैधानिक (जम्मू और कश्मीर में विनियोग) आदेश 1954, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व वाली संघीय सरकार से सलाह के पश्चात जारी किया गया। यह जवाहलाल नेहरु तथा जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के मध्य हुए “1952 दिल्ली समझौते” के बाद जारी किया गया, जो जम्मू और कश्मीर के “राज्य विषयों” के साथ वहाँ के नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के सम्बन्ध में था।
इस अधिनियम के पश्चात जम्मू और कश्मीर राज्य को भारतीय संविधान के राज्य में विस्तार का अधिकार मिल गया। अतः इस अनुच्छेद को धारा 370 के अपवाद के रूप में देखा गया, जो कि इसी अनुच्छेद के खण्ड (1)(ड) में उल्लेखित है।
हिंदुओं को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक मानने वाले असंवैधानिक प्रावधान के कारण हिंदुओं को जम्मू कश्मीर में रहते हुए किन – किन अपमानों और अत्याचारों का सामना करना पड़ा ? – गुलाम नबी आजाद और उनकी कांग्रेस पार्टी ने कभी इस पर न तो चिंतन किया और न ही सोचने की आवश्यकता अनुभव की।
17 अगस्त 1956 को लागू हुआ जम्मू और कश्मीर का संविधान ने स्थायी निवासियों की परिभाषा दी है, जिसके अनुसार 14 मई 1954 से, या 10 वर्ष पहले से राज्य में रह रह रहे निवासी जिन्होंने राज्य की अचल सम्पत्ति क़ानूनी तरीके से प्राप्त की हो, उसे राज्य का स्थायी नागरिक माना जायेगा। जम्मू और कश्मीर सरकार ही स्थायी निवासियों की परिभाषा बदल सकती है, जिसे विधानमंडल के दोनों सदनों से दो-तिहाई बहुमत से पास कराना पड़ेगा। स्पष्ट है कि ऐसा प्रावधान आने से पाकिस्तान से आए हिंदुओं को ही कष्ट होना था ।
जम्मू और कश्मीर संविधान सभा ने जम्मू और कश्मीर का संविधान में अनुभाग 51 (विधानमंडल की सदस्यता हेतु योग्यताएँ – कोई भी व्यक्ति विधानमंडल का सदस्य तब तक नहीं बन सकता जब तक वह राज्य का स्थायी निवासी न हो), अनुभाग 127 व अनुभाग 140 में इसका उल्लेख किया है।
वह व्यक्ति जो जम्मू और कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं है, राज्य में सम्पत्ति नहीं खरीद सकता। वह व्यक्ति जो जम्मू और कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं है, जम्मू और कश्मीर सरकार की नौकरियों के लिये आवेदन नहीं कर सकता। इस प्रकार के प्रावधानों से पाकिस्तान से कश्मीर आए हुए हिंदुओं को नौकरियों के अवसरों से वंचित किया गया।
वह व्यक्ति जो जम्मू और कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं है, जम्मू और कश्मीर सरकार के विश्विद्यालयों में दाखिला नहीं ले सकता, न ही राज्य सरकार द्वारा कोई वित्तीय सहायता प्राप्त कर सकता है।
अब मोदी सरकार के क्रांतिकारी निर्णय के पश्चात दोहरी नागरिकता अलग संविधान और अलग ध्वज का प्रावधान समाप्त हो गया है । जम्मू कश्मीर में तिरंगा और राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अब अपराध माना जाएगा । देश का कोई भी नागरिक यहां अब संपत्ति खरीद सकेगा , व्यापार कर सकेगा और नौकरी भी प्राप्त कर सकेगा । जम्मू कश्मीर अब दिल्ली की तरह विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश होगा । जम्मू कश्मीर में अब धारा 356 का भी प्रयोग हो सकेगा , अर्थात राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकेगा । अब अल्पसंख्यकों को आरक्षण का लाभ मिल सकेगा , भारत का कोई भी नागरिक जम्मू कश्मीर चुनाव में प्रत्याशी बन सकेगा , सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए होंगे।
सभी प्राइज है कि जम्मू कश्मीर में पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था 5 अगस्त 2019 के क्रांतिकारी के निर्णय के पश्चात लागू की गई है । स्पष्ट है कि कश्मीर में लोकतंत्र की हत्या तो 14 मई 1954 को की गई थी । अब 5 अगस्त 2019 को तो लोकतंत्र को जीवित किया गया है । गुलाम जी ! अब आप ‘आजाद’ हो । अतः इस महत्वपूर्ण अंतर को आप को समझना ही होगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत