आखिर क्यों मनाएं “संविधान हत्या दिवस” *
(डॉ. राघवेंद्र शर्मा -विभूति फीचर्स)
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के दौरान बार-बार कहते रहे हैं कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर इस देश को ऐसा संविधान सौंप कर गए हैं जिसे कोई माई का लाल छेड़ तक नहीं सकता। संभवतः कहने का मतलब यह है कि जिस संविधान को छेड़ा तक नहीं जा सकता तो फिर उसकी हत्या कैसे की जा सकती है? यदि सरसरी तौर पर देखा जाए तो यह तर्क पूरी तरह गलत भी नहीं है। लेकिन जैसी मान्यताएं हैं कि अनेक बार पूर्ण सत्य वह नहीं होता जो हमें दिखाई अथवा सुनाई दे रहा होता है। उसे समझने के लिए कई बार तात्कालिक एवं पुरातन परिस्थितियों का अध्ययन करने की बाध्यता उत्पन्न हो जाती है। तब कहीं जाकर निर्णायक रूप से वास्तविकता का पता लग पाता है। इस मामले में भी यदि हम तार्किक दृष्टि से देखें तो 25 जून को संविधान हत्या दिवस कहना कोई गलती नहीं है। लेकिन इस पूरे सत्य को समझने के लिए हमें थोड़ा पुरातन काल की ओर लौटना होगा और अपनी संस्कृति का अध्ययन करना पड़ेगा।
द्वापर युग में जब महाभारत का युद्ध समापन की ओर था और अश्वत्थामा स्वयं को श्रेष्ठ धनुर्धर साबित नहीं कर पा रहा था। उसकी वीरता और अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग चुका था। जिसे वह अपना परम मित्र कहता था वह दुर्योधन अपना स्वार्थ सिद्ध न होने पर निरंतर उसे धिक्कार रहा था। तब अश्वत्थामा ने सारी लोक लाज त्याग कर द्रोपदी के निद्रामग्न पांच पुत्रों की वीभत्स हत्या कर दी। इससे भी मन नहीं भरा तो अश्वत्थामा ने सुभद्रा के गर्भ में पल रहे शिशु पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। चूंकि ब्रह्मास्त्र को बेहद विध्वंसक और निर्णायक अस्त्र माना गया है सो उसने सुभद्रा के गर्भस्थ शिशु को मृतप्राय: कर ही दिया था। किंतु तभी भगवान कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र को उस शिशु की सुरक्षा हेतु सुभद्रा के गर्भ में स्थापित कर दिया। इससे वह जीव पुनर्जागृत हो चुका और उसने परीक्षित के रूप में जन्म लेकर धर्म राज्य की पुनर्स्थापना की। वर्ष 1975 में ऐसा ही कुछ घटित हुआ था। जब श्रीमती इंदिरा गांधी के ही घोर समर्थक और शिष्य कहे जाने वाले राजनारायण ने उनके निर्वाचन के खिलाफ अदालत में याचिका लगा दी थी। समस्त साक्ष्यों और परिस्थितियों का अध्ययन करने के बाद अदालत ने फैसला श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध सुनाया। इससे उनके सांसद बने रहने में बाधा उत्पन्न हो गई तथा प्रधानमंत्री का पद उन्हें अपने हाथ से जाता लगा।
फलस्वरुप उन्होंने संविधान ही नहीं बल्कि लोकतंत्र की भी हत्या करने की ठान ली और सभी लोक मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए पूरे देश को आपातकाल की भट्टी में झोंक दिया। संविधान में प्राप्त आम नागरिकों के अधिकारों की एक प्रकार से हत्या ही कर दी गई। मीडिया ने अधिकारों की बात की तो उस पर भी अघोषित सेंसरशिप लागू कर दी गई। राजनीतिक स्तर पर संविधान की उपरोक्त हत्या का विरोध हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सभी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। जिस प्रकार दुरात्मा कंस, रावण, हिरण्यकश्यप आदि राक्षसों ने स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया था और आसुरी शक्तियों ने तीनों लोकों पर बलात् सत्ता स्थापित कर ली थी। उसी प्रकार आपातकाल के दौरान इंदिरा इज द इंडिया और इंडिया इज द इंदिरा के नारे जमीन आसमान को कंपित करने लगे थे। यह तो भला हो जनता जनार्दन का कि उसने लगभग मृतप्राय हो चुके संविधान में जन आंदोलन के माध्यम से पुनः प्राण फूंके और लगभग दो सालों के संघर्ष के बाद संविधान को जिंदा करके ही माने।परिणामस्वरुप इस देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार जनता शासन का प्रादुर्भाव हुआ। पूरे देश में कांग्रेस का एक प्रकार से सूपड़ा साफ ही हो गया था। निसंदेह उक्त उपलब्धि का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत विभिन्न संगठनों को जाता है।
लिखने का आशय यह कि लॉर्ड मैकाले के स्वयंभू शिष्य वह अर्धसत्य कह रहे हैं जो सुनने में भले ही सच लगता हो किंतु वह पूरा सत्य नहीं है। जैसे बीते लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी और कांग्रेस के अनेक नेता तथा उनके गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों के नेतागण यह प्रपंच फैला रहे थे कि भाजपा अर्थात एनडीए सरकार केंद्र में स्थापित हुई तो वह संविधान को बदल देगी, संविधान की हत्या कर देगी, संविधान का नाश हो जाएगा। इस बात की तारीफ करनी होगी कि वह झूठ कांग्रेस ने पूरी कुशलता के साथ स्थापित भी कर दिखाया। कांग्रेस सहित विरोधी दलों को यह सफलता भी शायद इसीलिए मिली, क्योंकि संविधान को कैसे बदला जाता है, उसकी हत्या कैसे की जाती है, इस बात का उन्हें भली भांति अनुभव है। 25 जनवरी 1975 को यह लोग उक्त जघन्य अपराध कर चुके हैं।
मुझे लगता है प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने प्रत्येक 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने की जो अधिसूचना जारी की है, वह उक्त करतूत को उजागर करने का एक बेहतर माध्यम साबित होने वाली है, जो कांग्रेस और उसके सहयोगियों द्वारा 25 जून 1975 को रची गई थी। जब जब संविधान हत्या दिवस की बरसी मनाई जाएगी तब तक देश की जनता कांग्रेस और उसके नेताओं को पूरे आत्मविश्वास के साथ आईना दिखाने का काम करेगी।
धर्म संकट यह है कि कांग्रेस हो या फिर विपक्षी गठबंधन, यह लोग खुलकर आपातकाल की हिमायत नहीं कर सकते। लेकिन यह लोग अपने पापों पर पर्दा डालना भी चाहते हैं। क्योंकि यदि संविधान हत्या दिवस के माध्यम से सच्चाई बार-बार सामने आती रही तो इनके चेहरे पर पड़ा लोकतांत्रिक दल का नकाब तार तार हो जाएगा। नतीजा यह है कि यह लोग चाह कर भी इस अधिसूचना का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे। यही वजह है कि इन लोगों ने यह काम लार्ड मैकाले के पिछलग्गू वामपंथी विद्वानों को सौंप दिया है।
यही कारण है कि बात कांग्रेस की हो या फिर उसके साथी राजनीतिक दलों की, यह सब बगले झांकते दिखाई दे रहे हैं। इंदिरा गांधी द्वारा लगाई जाने वाली इमरजेंसी की कांग्रेस जन निंदा कर पाएं ऐसा साहस किसी भी कांग्रेसी नेता में शेष नहीं है। जब तक कांग्रेसी अधिपत्य के सूत्र परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से गांधी परिवार के किसी भी सदस्य के हाथ में बने हुए हैं, कम से कम तब तक तो ऐसा किया जाना किसी भी कांग्रेसी के लिए संभव ही नहीं है। संविधान हत्या दिवस मनाए जाने के खिलाफ जाते हुए यह इमरजेंसी को सही साबित कर पाएं यह भी संभव नहीं है। तब उनके पास केवल एक ही रास्ता बचा रह जाता है। वह यह कि बौद्धिक स्तर पर लोकतांत्रिक वातावरण में भ्रम का वातावरण स्थापित किया जाए। अतः यह काम प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक शुरू हो गया है। कांग्रेस एवं विपक्षी गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों के नेता संविधान हत्या दिवस की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहे हैं। लेकिन इनमें से कोई भी ना तो यह दावा कर रहा है कि आपातकाल सही था और ना ही यह कहने की हिम्मत जुटा पा रहा है कि आपातकाल गलत था। कुल मिलाकर यदि आपातकाल की स्मृति मरा हुआ सांप है तो कांग्रेस की स्थिति छछूंदर जैसी हो गई है। अब वह वास्तविकता को ना तो आत्मसात करने की स्थिति में है और ना ही उसे उगल पा रही है। शायद गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसी ही परिस्थितियों को ध्यान में रखकर “भई गति सांप छछूंदर केरी” लिखा है।(विभूति फीचर्स)