परमात्मा प्रशंसा के लायक क्यों है?
हम प्रशंसाएँ कैसे अर्जित कर सकते हैं?
परमात्मा की प्रशंसाओं की तुलना संतुष्टि जनक भोजन और सम्पदा के साथ क्यों की गई है?
अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय।
ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा।। ऋग्वेद मन्त्र 1.61.1 (कुल मन्त्र 695)
(अस्मै इत् उ) निश्चय से यह उसके लिए है (परमात्मा के लिए) (प्र – हर्मि से पूर्व लगाकर) (तवसे) बलशाली, बढ़ी हुई शक्तियाँ (तुराय) तीव्रता से कार्य करने वाले (प्रयः) संतोष प्रदान करने वाला भोजन और सम्पदा (न) जैसे (हर्मि – प्र हर्मि) देता है, प्राप्त करने योग्य (स्तोमम्) प्रशंसाएं (माहिनाय) महिमाओं से परिपूर्ण, उत्तम लक्षण (ऋचीषमाय) असीम प्रशंसाएं (अध्रिगवे) बिना बाधा का मार्ग (ओहम्) प्राप्त करने योग्य (इन्द्राय) परमात्म, महान् राजा, इन्द्रियों का नियंत्रक (ब्रह्माणि) उत्तम सुसंस्कृत (राततमा) देने के योग्य।
व्याख्या:-
परमात्मा प्रशंसा के लायक क्यों है? हम प्रशंसाएँ कैसे अर्जित कर सकते हैं?
इन्द्र, सर्वोच्च नियंत्रक, परमात्मा, हमारी तरफ से महिमागान से भरी प्रशंसाएँ प्राप्त करने योग्य है। उसके असीम महान् लक्षण हैं, क्योंकि वह अपने कार्यों को मजबूत और बढ़ी हुई शक्तियों के साथ तेज गति से सम्पन्न करता है और उसके मार्ग में कोई बाधा नहीं होती। हम उसे अपनी प्रशंसाएँ प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि हमें उससे संतुष्टि जनक भोजन और सम्पदा प्राप्त होती है। वह हमें उत्तम सुसंस्कृत भोजन तथा सम्पदा देता है। इसी प्रकार, एक इन्द्र पुरुष, इन्द्रियों का नियंत्रक, भी हर व्यक्ति से महिमायुक्त असीम प्रशंसाएँ प्राप्त करने का अधिकारी है। वह अपना कार्य बलशाली और बढ़ी हुई शक्तियों के साथ तीव्र गति से करता है। उसके मार्ग पर कोई बाधा नहीं होती। वह प्रशंसाओं को संतुष्टि जनक भोजन और सम्पदा की तरह प्राप्त करता है। वह सम्पदा को अन्य लोगों में बांटता है।
जीवन में सार्थकता: –
परमात्मा की प्रशंसाओं की तुलना संतुष्टि जनक भोजन और सम्पदा के साथ क्यों की गई है?
परमात्मा सर्वोच्च इन्द्र है। अपनी इन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण करके एक सूत्रीय कार्यक्रम की तरह हम भी इन्द्र बन सकते हैं। हमें भी अपार शक्तियाँ और बुद्धि प्राप्त हो सकती हैं जिसके परिणामस्वरूप चारों तरफ से हमें प्रशंसाएँ, महिमा और सम्पदाएँ प्राप्त हों।
भोजन और सम्पदा की तरह परमात्मा की प्रशंसा करना हमारे अपने लिए ही उत्थान का माध्यम बन सकता है। इससे हमें मानसिक और आध्यात्मिक बल मिलता है। भोजन और सम्पदा की तरह परमात्मा की प्रषंसा करने की आदत नियमित बनाये रखनी चाहिए। जिस प्रकार एक सम्पन्न व्यक्ति भौतिक सम्पदा में आनन्द महसूस करता है, एक साधक अपनी आत्मा की सम्पदा में भी उसी प्रकार का आनन्द महसूस करता है। वह विषम परिस्थितियों में भी परमात्मा के प्रति प्रेम भाव से समर्पित रहता है। परमात्मा की प्रषंसा करना और उससे जुड़कर रहना उसे भौतिक सम्पदा से भी अधिक संतोष प्रदान करता है।
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