गतांक से आगे 19वीं किस्त
छांदोग्य उपनिषद के आधार पर।
भारतीय मनीषा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उपनिषद हैं। यह आध्यात्मिक चिंतन के सर्वोच्च नवनीत हैं ।’उपनिषद ‘शब्द का अर्थ ‘रहस्य’ भी है। उपनिषद अथवा ब्रह्म -विद्या अत्यंत गूढ होने के कारण साधारण विधाओं की भांति हस्तगत( प्राप्त)नहीं हो सकती ।इन्हें ‘रहस्य ‘कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त उपनिषद का अर्थ ईश्वर के संन्निकट होने अथवा उसके साथ या पास बैठने को भी कहा जाता है।
ईश्वर के सामीप्य में बैठने के लिए ऐसे रहस्यों को उजागर करने वालों में महात्मा नारायण स्वामी जी का नाम उल्लेखनीय है। महात्मा नारायण स्वामी जी ने 11 उपनिषदों की व्याख्या बहुत ही अनुपम की है। महात्मा नारायण स्वामी का नाम वैदिक जगत में बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है।
उपनिषदों में हृदय को आत्मा का निवास स्थान बताया गया। ईश्वर का निवास भी वहीं पर होता है जहां आत्मा का निवास होता है। और यह भी उतना ही सत्य है कि मन भी वही रहता है जहां आत्मा रहती है। हमने यह भी पढ़ा कि आत्मा अपने शरीर में (ब्रह्मपुर में) घूमती रहती है। जागृत,स्वप्न, सुषुप्ति तीन अवस्थाओं में आत्मा का निवास स्थान पृथक पृथक होता है। इसलिए आत्मा को कोई हृदय में बताएं,कोई मस्तिष्क में बताएं,कोई कंठ में,कोई आंख में बताएं वह सब मान्य है।
जिस हृदय में आत्मा रहती है अब उसकी नाडियों का उल्लेख किस प्रकार किया जाता है,पढ़ें पृष्ठ सं० 800
“अब जो यह हृदय की नाडियां हैं वह पिंगल अथवा भूरे, सफेद, नीले, पीले और लाल रंग वाले सूक्ष्म रज से पूर्ण है। निश्चित रूप से यह सूर्य भूरे ,सफेद, नीले, पीले और लाल रंग वाला है।”
पृष्ठ संख्या 801
“जब यह सोया हुआ व्यक्ति अपने में लीन( सुषुप्तावस्था को प्राप्त) हो जाता है तब आनंद प्राप्त करता हुआ स्वप्न नहीं देखा करता।तब इन नाडियों में प्रविष्ट हुआ जीवात्मा होता है। तब पाप उसको स्पर्श नहीं करता क्योंकि तब वह जीव तेज से युक्त होता है।”
इससे स्पष्ट हुआ कि जो हमारे हृदय से नाडियां निकलती है, सोते समय जीवात्मा हृदय में नहीं बल्कि उन नाडियों में रहती है। और सोते समय आत्मा के अंदर तेज बल अधिक होता है। उस समय कोई स्वप्न नहीं देखने के कारण पाप लेशमात्र भी नहीं रहता , अर्थात वह (आत्मा )शुद्ध होता है।
पृष्ठ संख्या 802
“जब यह जीवात्मा इस शरीर से निकलता है तब इन्हीं रश्मियों के द्वारा जो सूर्य से लेकर शरीर की नाडियों तक फैली हुई है ऊपर चढ़ता है। वह ओम ही का उच्चारण करता हुआ ऊपर ही को जाता है। वह जब तक इधर मन क्षीण होता है तब तक (अर्थात उतने ही काल में) आदित्य में पहुंच जाता है दूसरे शब्दों में कहे तो सौरी दशा को प्राप्त हो जाता है। यही ब्रह्मलोक का द्वार है, परंतु यह द्वार ज्ञानियों के लिए खुला और अज्ञानियों के लिए बंद है।”
ऊपर बताया गया था कि जो सूर्य की भूरे, सफेद, नीले ,पीले और लाल रंग की रश्मियां होती हैं उसी प्रकार से हमारे हृदय से निकलने वाली नाडियों का रंग भी वही होता है जिनको यहां पर रश्मियां कहा गया है। इन्हीं रश्मियों से अर्थात नाडियों से होता हुआ आत्मा ऊपर ब्रह्म रंध्र की तरफ सूर्य लोक की तरफ,जहां उसको प्रकाश ही प्रकाश नजर आता है, पहुंचता है। यहां मन का तात्पर्य केवल अकेले मन से नहीं बल्कि समस्त प्रकृति जन्य शरीर से है मन का नाम केवल उपलक्ष्ण के तौर पर लिखा गया है ।सूर्य लोक अथवा सौरी अवस्था को प्राप्त होने का तात्पर्य सूक्ष्म शरीर( आत्मस्थ )से भी है। इस अवस्था में मन क्षीण हो जाता है और आत्मा प्राकृतिक शरीरों के संसर्ग से सर्वथा पृथक होकर अपने शुद्ध रूप से इस सौरी अवस्था को प्राप्त होकर मुक्ति के द्वार तक पहुंच जाता है।
” हृदय से निकलने वाली 101 नाडियां होती हैं उनमें से एक मूर्धा की ओर निकली हुई है उस नाडी से जीव ऊपर को जाता हुआ अमृततत्व को प्राप्त करता है। अन्य नाडियों से निकलने पर भिन्न-भिन्न गति होती है।”
स्पष्ट किया गया कि 101 नाडियां में से जो मूर्धा की ओर निकली हुई है उससे यदि जीव ओम ओम का उच्चारण करते हुए शरीर छोड़कर निकलता है या आत्मा जाती है तो अमरता को प्राप्त होती है। यदि जीव अन्य नाडियों से निकलता है तो वह पृथक पृथक योनियों को या अवस्थाओं को प्राप्त करता है।
मूर्धा नामक नाडी मस्तिष्क में स्थित मुक्ति के द्वार ब्रह्म रंध्र की तरफ जाती है।
क्रम श: अग्रिम किस्त में
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,ग्रेटर नोएडा ।
चलभाष
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