परमात्मा की प्रशंसा और महिमागान के क्या परिणाम होते हैं?
परमात्मा की प्रशंसा और महिमा के लिए मूल लक्षण क्या हैं?
गौरवशाली सम्पदा क्या है?
तं त्वा वयं पतिमग्ने रयीणां प्र शंसामो मतिभिर्गोतमासः।
आशुं न वाजम्भरं मर्जयन्तः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.60.5 (कुल मन्त्र 694)
(तम्) उसको (त्वा) आप (वयम्) हम (पतिम्) स्वामी और संरक्षक (अग्ने) सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा (रयीणाम्) सभी सम्पदाओं का (प्रशंसामः) प्रशंसा तथा महिमा (मतिभिः) बुद्धि के साथ, विद्वानों के साथ
(गोतमासः) हमारी इन्द्रियों को पवित्र और तीव्र करके (आशुम्) अश्व (न) जैसे (वाजम्भरम्) हमें शक्ति और गति से पूर्ण करता है (मर्जयन्तः) हमें पवित्र करता है (प्रातः) प्रातःकाल में (मक्षु) अत्यन्त शीघ्र (धियावसुः) दिव्य ज्ञान में जीने वाले लोग, विद्वत् कार्यों से प्राप्त सम्पदा (जगम्यात्) प्राप्त हो।
व्याख्या:-
हमें परमात्मा की प्रशंसा और महिमा किस प्रकार करनी चाहिए?
परमात्मा की प्रशंसा और महिमागान के क्या परिणाम होते हैं?
सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा, सभी सम्पदाओं का स्वामी और संरक्षक, उस आपकी प्रशंसा और महिमा अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करके और तीव्र करके अपनी बुद्धियों के साथ और विद्वानों के साथ करते हैं। शुद्धता से आप हमारे अन्दर शक्ति और अश्वों जैसी गति परिपूर्ण करते हो। हम प्रातःकाल शीघ्रता के साथ अपने बौद्धिक कार्यों से तथा दिव्य ज्ञान में जीने वाले लोगों से सम्पदा प्राप्त करें।
जीवन में सार्थकता: –
परमात्मा की प्रशंसा और महिमा के लिए मूल लक्षण क्या हैं?
गौरवशाली सम्पदा क्या है?
स्वयं को शुद्ध करना और अपनी इन्द्रियों की चमक बढ़ाना, परमात्मा की प्रशंसा और महिमा के लिए मूल लक्षण हैं:- अशुद्ध लोग परमात्मा के साथ सम्पर्क नहीं बना सकते। अशुद्ध लोग तो अच्छे स्वास्थ्य अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य का आनन्द भी नहीं ले पाते।
अच्छे स्वास्थ्य के बिना या सम्पदा प्राप्त ही नहीं होती या सम्पदा का कोई आनन्द नहीं मिलता। सम्पदा केवल प्रकृति की भौतिक वस्तुएं ही नहीं हैं। इसमें मानसिक और आध्यात्मिक उपलब्धियाँ भी शामिल हैं। सभी सम्पदाएं परमात्मा के ही कारण हैं और केवल इसी चेतन सम्बद्धता के साथ हमारी सम्पत्ति गौरवशाली बनती है जो सबके कल्याण के लिए लाभदायक होती है।
अपने आध्यात्मिक दायित्व को समझें
आप वैदिक ज्ञान का नियमित स्वाध्याय कर रहे हैं, आपका यह आध्यात्मिक दायित्व बनता है कि इस ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचायें जिससे उन्हें भी नियमित रूप से वेद स्वाध्याय की प्रेरणा प्राप्त हो। वैदिक विवेक किसी एक विशेष मत, पंथ या समुदाय के लिए सीमित नहीं है। वेद में मानवता के उत्थान के लिए समस्त सत्य विज्ञान समाहित है।
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