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आज का चिंतन

🌷 वाणी का संयम 🌷

इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता ।
ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु न: ।।
―(अथर्व० १९/९/३)
(इयम्) यह (या) जो (परमेष्ठिनी) सर्वोत्कृष्ट परमात्मा में ठहरने वाली (देवी) उत्तम गुण वाली (वाक्) वाणी (ब्रह्मसंशिता) वेदज्ञान से तीक्ष्ण की गई है और (यया) जिसके द्वारा (घोरम्) घोर पाप (ससृजे) उत्पन्न हुआ है (तया) उस वाणी के द्वारा (एव) ही (न:) हमारे लिए (शान्ति:) धैर्य और आनन्द (अस्तु) होवे।
वेद-मन्त्र का आशय यह है कि जिस वाणी के द्वारा वेदों के ज्ञान से परमात्मा को पहुँचते हैं, यदि उस वाणी के द्वारा कोई अनर्थ होवे तो विद्वान् पुरुष उस भूल को उचित व्यवहार से सुधार कर शान्ति स्थापित करे।
वाणी के दोषों को मनुस्मृति में इस प्रकार गिनाया गया है―
पारुष्यमनृतं चैव पैशून्यं चापि सर्वश: ।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।
―(मनु० १२/६)
भावार्थ―कटुवचन, झूठ बोलना, चुगली करना और असम्बद्ध प्रलाप―ये वाणी के चार दोष हैं।
वाणी का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। इसके वशीकार से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है।
वाणी का पहला गुण है मितभाषण अर्थात् थोड़ा बोलना। थोड़ा बोलने वाला व्यक्ति प्राय: सोच-समझकर बोलता है। वह प्राय: अनाप-शनाप नहीं बोलता।
इसीलिए वेद ने कहा है―
मोत जल्पि: ।―(ऋ० ८/४८/१४)
हम पर बकवास शासन न करे।
वाणी का एक दुर्गुण है―दूसरों की पीठ-पीछे चुगली करना। वेद कहता है―
मा निन्दत। ―(ऋ० 4/5/2)
निन्दा मत करो।
हिन्दी के किसी कवि ने कहा है―
औरों के हम दोष न देखें, अपने दोष विचारें ।
निन्दा करें न कभी किसी की, यही एक गुण धारें ।।
आर्यसमाज में महात्मा हंसराज जी, स्वामी आत्मानन्दजी महाराज और स्वा. मुनि मुनीश्वरानन्दजी किसी की पीठ-पीछे निन्दा नहीं करते थे। महापुरुष बनने के लिए आवश्यक है कि दूसरों की पीठ-पीछे निन्दा न करें।
इस प्रवृत्ति का एक ही उपचार है कि किसी की पीठ पीछे किसी के अवगुणों की चर्चा न करके गुणों की चर्चा की जाए और उसके सामने, एकान्त में, प्रेमपूर्वक उसके अवगुणों की चर्चा की जाए। इससे परस्पर प्रेम बढ़ेगा और व्यक्ति का सुधार भी होगा।
वाणी का एक दोष है―किसी के सामने कड़वे वचन बोलना। कड़वे वचन बोलने से दूसरे के मन पर गहरी चोट लगती है, अत: कोमल वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए। वही बात कोमल वचनों में कही जा सकती है जिसे हम कठोर वचनों द्वारा कहते हैं, तो फिर क्यों न वही कड़वी बात मीठे ढंग से कही जाए जिससे दूसरे का मन भी न दुखे और बात भी सिद्ध हो जाए और कहने वाले के लिए भी समस्या खड़ी न हो।

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