अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत *क्या कहते हैं कपिशा और बामियान के भग्नावशेष*

भा रतवर्ष के ग्रामों में आज भी हम देखते हैं कि एक ही कुल वंश के लोग सामान्यतया एक ही पट्टी या मोहल्ले में बसते हैं। इसी प्रकार कभी-कभी हम देखते हैं कि एक ही गोत्र के गाँवों की भी पट्टी बन जाती है, जिसमें दस-बीस या सौ- पचास ही नहीं कभी-कभी तो दो सौ ढाई सौ तक एक ही गोत्र के गाँव एक पट्टी में बसे मिलते हैं। हम पूर्व में भी इस विषय पर स्पष्ट कर चुके हैं कि ऐसे विशाल क्षेत्र में बसे एक ही वंश गोत्र के लोग अरब देशों में कबीले के नाम से विख्यात हो गए। इसी प्रकार तुर्क, यवन आदि के विषय में मानना चाहिए। जिसे हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि तुर्क भारत की ही गोत्र परंपरा से निकले हुए लोग थे।

      *ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी का कहना है कि तुर्किस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और रूस के विभिन्न कबीलों के लोग ही तुर्क के रूप में जाने जाते हैं।* 

   तुर्कों के बारे में यह कहना गलत है कि उनका उद्भव मध्य एशिया में हुआ। इतिहास की इस भ्रांत धारणा को परिवर्तित कर अब यह तथ्य यहाँ पर स्थापित होना चाहिए कि तुर्क लोग मूल रूप से भारतीय वंश परंपरा के लोग हैं, जो देश, काल, परिस्थिति के अनुसार तुर्क कहे जाने लगे। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तुर्क और मंगोल एक ही नहीं है। ये दोनों सदियों तक एक-दूसरे के शत्रु रहे। मंगोलों का उद्भव उत्तरी चीन के मंगोलिया से हुआ। चंगेजखान (1162-1227) का नाम किसने नहीं सुना? उसी का पोता कुबलई खान (1216-1294) चीन का पहला मंगोल सम्राट था। वे मंगोल तो थे, लेकिन मुसलमान नहीं। अफगानिस्तान से चलकर भारत में आने वाला बाबर भी मंगोल या मुगल नहीं था। इस प्रकार भारत में यदि उसके वंशजों को मुगल कहा जाता है तो यह भी इतिहास की एक भ्रांति ही है।

अफगानिस्तान बना शत्रु दस्युदल का अड्डा

          अफगानिस्तान का इस्लामीकरण होने के पश्चात् वह तुर्क सरदारों के लिए या उनके दस्यु दल के लिए भारत पर आक्रमण करने का अब एक अड्डा बन चुका था। अरब देशों के दस्यु लोग बहुत समय पहले से यहाँ पर बस चुके थे। वह अब यहीं पर रहते हुए अपना दस्यु दल अर्थात् कथित सैन्य दल बनाते थे और भारत पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो जाते थे। यह क्रम भी बहुत देर तक चला। महमूद गजनवी के बाद के जितने इस्लामिक आक्रांता हैं, उन्हें भारत पर आक्रमण करने के लिए उचित परिवेश, मंच, खाद पानी, ऊर्जा आदि सब कुछ इस्लाम ग्रहण कर चुके अंफगानिस्तान ने ही प्रदान किये।

  भारतीय इतिहास का ही नहीं अपितु समस्त संसार के इतिहास का यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जिस क्षेत्र में किसी देश के मूल निवासियों को उजाड़ कर विधर्मी लोग अपना संगठन बनाने में सफल हुए या अपनी जनसंख्या वृद्धि कर उस देश के मूल निवासियों को या मूल धर्म को मिटाने में उन्हें सफलता मिली तो उस क्षेत्र को उन्होंने अपने लिए आक्रमण करने के एक मंच के रूप में प्रयोग किया।

    हमारे देश के आर्य राजा अभी तक अफगानिस्तान का इस्लामीकरण न होने देने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनका यह संघर्ष देश के लिए बहुत आवश्यक था। जिसे उन्होंने अपना राष्ट्र धर्म समझकर करना उचित समझा, परंतु जब वे परिस्थितिवश अपनी संघर्ष क्षमता खो बैठे और इस क्षेत्र में इस्लाम प्रविष्ट होकर सर्वत्र फैलने में सफल हो गया तो स्थितियाँ पूर्णतया परिवर्तित हो गयीं। जिस भू-भाग से कभी हमको इस्लाम को भगाने के लिए सैनिक मिल जाते थे और अन्य प्रकार की सहायता सामग्री भी प्राप्त हो जाती थी, उन क्षेत्रों में अब स्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी थीं।

  जैसे-जैसे इन क्षेत्रों में हिंदू जनसंख्या कम होती जा रही थी वैसे-वैसे ही भारत की राष्ट्रीय सेना में सम्मिलित होने वाले सैनिकों की उपलब्धता भी हमारे राजाओं के लिए सीमित होती जा रही थी। ऐसी परिस्थितियों में वहाँ से हमारे लिए न तो सैनिक मिलने संभव थे और न ही अन्य किसी प्रकार की सहायता सामग्री मिलनी संभव थी, क्योंकि लगभग सारे समाज का इस्लामीकरण हो चुका था।

इतिहास लेखकों का मानना है कि तुर्क, तूरानी, उज्बेक और तुर्कमान ये सब एक-दूसरे के पड़ोसी कबीले थे। वे उज्वेकिस्तान (ताशकंद, समरकंद और बुखारा), तुर्कमेनिस्तान, चीन के शिंकियांग प्रांत (यरकंद, कशगर व खोहान) और अफगानिस्तान के बल्ख और बहरूशन से आए थे। नौवीं शताब्दी में अरबों द्वारा मध्य एशिया जीत लिये जाने के पश्चात् तुर्कों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था।

हमारे ही लोग हमारे विरुद्ध उठ खड़े हुए

 इस्लाम ग्रहण करने के बाद हमारे ही लोग हमारे ही विरुद्ध उठ खड़े हुए। अपनी वैदिक कुल व गोत्र परंपरा को भूलकर विदेशी मजहबी लोगों को अपना मजहबी भाई स्वीकार कर उन्हीं के साथ लगकर भारत को ही लूटने-खसोटने की योजनाओं में संलिप्त होने लगे। धर्मांतरण के घातक परिणामों के लिए अब भारत को तैयार होना था। सचमुच इस्लाम को आर्य संस्कृति के प्रति समर्पित रहे कभी के अफगानिस्तान का धर्मांतरण करके पहली जीत मिल चुकी थी। माना कि महमूद गजनवी भारत के बहुत कम भू-भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर पाया था और उसे भी भारत के लोगों ने कुछ समय पश्चात् ही उखाड़ कर फेंक दिया था, परंतु इस सत्य से भी मुँह नहीं फेरा जा सकता कि अफगानिस्तान में प्रविष्ट इस्लाम ने जब धीरे-धीरे वहाँ के मूलनिवासी हिंदुओं और बौद्धों को अपने मजहब के रंग में रंग लिया तो लगभग प्रत्येक व्यक्ति ही भारत विरोधी होकर रह गया।

           जिससे विदेशी आक्रमणकारियों को इन्हीं भारत विरोधी या भारत के शत्रु लोगों के बीच रहकर भारत पर हमला करने का अच्छा अवसर उपलब्ध हुआ। महमूद गजनवी के पश्चात् के जितने भी इस्लामिक आक्रांता भारत की ओर बढ़े उन सबके लिए ही अफगानिस्तान ने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायता प्रदान की।

आर्य/बौद्ध संस्कृति के अवशेष

         यद्यपि कभी सारे अफगानिस्तान पर आर्यों का शासन था और आर्यधर्म अर्थात् वैदिकधर्म ही वहाँ पर मान्यता प्राप्त राजधर्म था, परंतु जैसा कि हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि कालांतर में बौद्ध धर्म ने इस देश को अधिक प्रभावित किया। अतः यही कारण है कि बौद्ध धर्म और आर्य-बौद्ध संस्कृति के अवशेष यहाँ पर आज भी पर्याप्त रूप में विद्यमान हैं। अब हम उन्हीं अवशेषों पर यहाँ कुछ प्रकाश डालेंगे।

     इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन काल में गांधार और कपिशा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुके थे। इस समय गांधार का एक भाग पाकिस्तान में है। पूर्वी गंधार की राजधानी उस समय तक्षशिला कही जाती थी और पश्चिमी गांधार की राजधानी को पुष्कलावती के रूप में जाना जाता था। इन दोनों नगरों के समीपवर्ती प्रदेश पुराने सांस्कृतिक अवशेषों से परिपूर्ण हैं। भारतीय कला की जिस शैली को गांधार कला कहा जाता है, उसका विकास प्रधानतः तक्षशिला में ही हुआ था। यहाँ के भग्नावशेषों में धर्मराजिका स्तूप सबसे प्रसिद्ध है। यह स्तूप एक गोलाकार चबूतरे पर बना है। चबूतरे के बाहरी भाग पर कई प्रकार के अलंकरण हैं और बोधिसत्व की मूर्तियों को स्थापित करने के लिए बहुत से आले बनाए हुए हैं। पुष्कलावती के भग्नावशेष में सबसे महत्त्वपूर्ण हारिती का मंदिर है, जो बहुत विशाल है। इसके समीप ही बालाहिसार में कुणाल का स्तूप है, यह स्तूप उस स्थान पर बनवाया गया था जहाँ कभी अशोक की आज्ञा के अनुसार कुणाल को अंधा किया गया था। बालाहिसार के समीप पलटूढेरी नामक स्थान है। यहाँ भी अनेक बौद्ध मूर्तियाँ तथा स्तूपों के अवशेष मिले हैं। इनमें बुद्ध की महाभिनिष्क्रमण की मूर्ति विशेष महत्त्व रखती है। एक मूर्ति में दीपकर जातक की उस कथा को अंकित किया गया है, जिसमें सुमेध नामक युवक ने दीपकर बुद्ध के पैरों को मैला होने से बचाने के लिए अपने बाल कीचड़ में बिछा दिए थे। पुष्कलावती के समीप ही सहरी बहलोल है। यहाँ भी बुद्ध बोधिसत्व आदि की बहुत-सी मूर्तियाँ विद्यमान हैं और अनेक प्रस्तर फलकों पर बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं को मूर्ति रूप में उत्कीर्ण किया गया है।

  बुद्ध का जन्म, तपस्या, धर्मचक्रप्रवर्तक आदि को मूर्तियों में चित्रित कर जातक कथाओं को भी वहाँ पर स्थान दिया गया है। सहरी बहलोल के उत्तर में तख्ते बाही है। वहाँ भी अनेक विहारों, स्तूपों के भग्नावशेष विद्यमान हैं और बुद्ध तथा बोधिसत्व की बहुत-सी मूर्तियाँ भी पाई गई हैं। कतिपय प्रस्तर फलकों पर जातक कथाएँ भी अंकित है। पुष्कलावती का क्षेत्र प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेषों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। (संदर्भ गैरोला वाचस्पति: भारतीय संस्कृति और कला, पृष्ठ 632) इन सब अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ का सारा क्षेत्र किस प्रकार कभी बुद्ध और बौद्ध धर्म के संस्कारों, विचारों और विचारधारा से रंग चुका था। सर्वत्र बुद्ध की अहिंसा का शासन था और लोग परस्पर प्रेमपूर्ण ढंग से रहते थे।

 उपरोक्त लेखक के शोधपूर्ण ग्रंथ से ही हमको पता चलता है कि पुष्कलावती के दक्षिण में पेशावर अर्थात् पुरुषपुर स्थित है। उसके निकट अमित शाहजी की ढेरी नाम का एक स्थान है। यहाँ से कनिष्क के विशाल स्तूप के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। फाह्यान और ह्वेनसांग ने इस स्तूप का अपने यात्रा वृतांतों में वर्णन किया है। इस स्तूप के भग्नावशेष के रूप में सोने का पानी चढ़ाई हुई एक ताम्र मंजूषा मिली है। जिसकी ऊँचाई 6 फीट के लगभग है। मंजूषा के ढक्कन पर पद्मासन में विराजमान बुद्ध की प्रतिमा अंकित है। बुद्ध के दायीं ओर इंद्र और बायीं ओर ब्रह्मा बैठे हैं, उन दोनों ने हाथ जोड़े हुए हैं। बुद्ध के मुखमंडल पर अनुपम प्रभा है और उन्होंने अपना दायाँ हाथ अभय मुद्रा में उठाया हुआ है। मंजूषा के ढक्कन पर अनेक अन्य चित्र भी अंकित हैं। जैसे उड़ते हुए हंसों की पंक्ति और कमल पुष्प की खिली हुई पंक्तियाँ। मंजूषा पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है और अंगीपाल शिल्पी के नाम उत्कीर्ण हैं।

 यद्यपि ये स्थान इस समय पाकिस्तान में हैं, परंतु इनकी स्थिति पाकिस्तान के ऐसे प्रदेश में है जहाँ पठान जाति के लोगों का निवास है और जो वस्तुतः अफगानिस्तान का ही अंग है। पेशावर से बल्ख जाने वाले मार्ग पर जलालाबाद आता है, जो प्राचीन नगरहार का स्थानापन्न है। इसके समीप ही हड्डा है, जो प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक अवशेषों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। इस स्थान पर भी गांधार शैली की अनेक प्रस्तर मूर्तियाँ मिली हैं, साथ ही एक स्तूप के भग्नावशेष भी हड्डा में विद्यमान हैं। जिन्हें देखकर हिंदू बौद्ध संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

       कपिशा या कपिशी- विशुद्धानंद पाठक की पुस्तक 'पाँचर्वी सातवीं शताब्दियों का भारत' से हमें पता चलता हैं कि पुष्कलावती के पश्चिम में और कुभा अर्थात् काबुल नदी के उत्तर की ओर कपिशा नगरी स्थित थी। जो कपिशा जनपद की राजधानी थी। वर्तमान समय में बगराम उस स्थान को सूचित करता है, जहाँ प्राचीन समय में कभी इस नगरी की स्थिति थी। बगराम के भग्नावशेषों की खोज का कार्य फ्रांसीसी विद्वानों द्वारा किया गया और उसके खण्डहरों से बहुत से हाथी दाँत के फलक प्राप्त हुए। जो कभी श्रृंगार पेटियों या स्वर्ण रतन मंजूषाओं पर जड़े हुए थे। हाथी दाँत के फलक सैकड़ों की संख्या में हैं और इन पर जो चित्र अंकित हैं वे प्रायः भारतीय चित्रकला के हैं। यद्यपि कतिपय ऐसे चित्र भी हैं, जिन्हें ग्रीक रोमन कला कहा जा सकता है। चित्रकला के मथुरा शैली के ऐसे चित्र इन फलकों पर हैं, जिनमें अशोक वृक्ष पर वामपाद से प्रहार करती हुई स्त्रियाँ चित्रित की गई हैं। इनके बालों की वेणी करों में तथा एक-दूसरे से ऊपर उठाकर बनाया गया है। उनसे निकलकर लटकती हुई लताएँ भी प्रदर्शित की गई हैं। हाथी दाँत के फलकों पर उत्कीर्ण अन्य क्षेत्रों में श्रृंगार की सामग्री को ले जाने वाली प्रसाधिकाओं, उड़ते हुए हंसों, हँसक्रीड़ाओं, पूर्णघट, नृत्य करने वाली स्त्रियों, बांसुरी बजाती हुई स्त्रियों और लंबे बालों से पानी छोड़ती हुई स्त्रियों को प्रदर्शित किया गया है। इन स्त्रियों के शरीर मांसल बनाए गए हैं। जिनमें कामुकता की अभिव्यक्ति होती है। यह चित्र मथुरा शैली के हैं। ग्रीक और रोमन कलाओं के प्रभाव को सूचित करने वाले चित्र प्रायः प्यालों पर अंकित हैं।

 बगराम के भग्नावशेष में बहुत से प्याले पाए गए हैं। अनेक द्रव्यों को मिलाकर बनाए गए गोल मोल टिकरे भी बड़ी अच्छी संख्या में यहाँ मिले हैं। जिन पर पाश्चात्य स्त्री पुरुषों के तथा पान गोष्ठियों के चित्र अंकित हैं।

बामियान – अफगानिस्तान के जिन स्थानों से भारतीय धर्म तथा संस्कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण अवशेष मिले हैं, उनमें बामियान का नाम सर्वोपरि है। यह स्थान काबुल से 250 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है जिसके एक ओर हिंदूकुश की हिम से आच्छादित पर्वतमाला है और दूसरी ओर उपजाऊ घाटी है। यहाँ पर प्राचीन विहारों, स्तूपों, चैत्यों तथा मंदिरों के ऐसे भग्नावशेष हमको सर्वत्र बिखरे हुए दिखाई देते हैं जिनसे भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। इन अवशेषों में सबसे महत्त्व की दो अत्यंत विशाल मूर्तियाँ हैं जिनके बारे में विशुद्धानंद पाठक जी अपनी उपरोक्त पुस्तक में प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि एक मूर्ति की ऊँचाई 175 फीट है और दूसरी मूर्ति की ऊँचाई 120 फीट है। इन्हें पहाड़ी को काट-काट कर बनाया गया था और गांधार शैली के अनुसार बुद्ध के परिधान के चुन्नर आदि को भली-भाँति प्रकट करने के लिए पत्थर की मूर्ति के ऊपर तथा मिट्टी के गारे का प्लास्टर कर दिया गया था। 120 फीट ऊँची मूर्ति अधिक पुरानी है। उसे तीसरी शताब्दी का बना हुआ माना जाता है। गारे के प्लास्टर के कारण इस मूर्ति पर बुद्ध के उत्तरीय चुन्नर सर्वथा स्पष्ट रूप से उभर आए हैं। प्रस्तर मूर्ति पर गारे का प्लास्टर करके उसके ऊपर नीला रंग किया गया है और हाथों तथा मुखमंडल को सोने के पतरों से मढ़ दिया गया है।

फाह्यान ने इस मूर्ति को इसके असली रूप में देखा था। पर अब यह नग्न अवस्था में है। दोनों हाथ टूट गए हैं और मुख को भी तोड़ दिया गया है। बड़ी बुद्ध की मूर्ति को भी पहाड़ी काट कर बनाया गया है। परिधान की चुन्नरों को प्रकट करने के लिए मूर्ति पर रस्से लगाए गए थे और उन्हें लकड़ी के टुकड़ों पर ठोककर सही स्थान पर जमाया गया था। फिर मूर्ति पर तिनके तथा मिट्टी से मिलाकर बनाए गए गारे का मोटा प्लास्टर किया गया था और उसके ऊपर चूने का गहरा प्लास्टर कर दिया गया था। इस मूर्ति को लाल रंग से रंगा गया था और इसके भी हाथों तथा मुखमंडल को सोने के पतरों से मढ़ दिया गया था। मूर्ति का दायाँ हाथ अभयमुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ था और बायाँ हाथ नीचे लटका हुआ था। बड़ी मूर्ति को पाँचवीं शताब्दी में निर्मित माना जाता है।

  दोनों मूर्तियों के साथ-साथ दोनों ओर गुहा मंदिरों की श्रृंखला बनती चली गई है। बड़ी मूर्ति के साथ की गुहा श्रृंखला में 10 गुहा मंदिर हैं। पर प्रत्येक गुहा मंदिर अपने आपमें अनेक भवनों का समुच्चय है। प्रायः प्रत्येक में एक बड़ा सभा भवन, एक-एक पूजा कोष्ठ, एक-एक गलियारा और एक-एक अन्य भवन है। जिन सबको चट्टानें काटकर बनाया गया है। पर सब गुहा मंदिर आकार आदि की दृष्टि से एक समान नहीं हैं। इन गुहा मंदिरों की दीवारों के साथ-साथ जो बुद्ध बोधिसत्व की मूर्तियाँ स्थापित हुई वह अब नष्ट हो चुकी हैं। पर जिन आधारों पर ये स्थापित की गई थीं वे अब भी विद्यमान हैं।

   गुहाओं की पेटियों पर जो चित्र अंकित हैं वे सासानी, भारतीय तथा मध्य एशिया की शैलियों के हैं। उन्हें चित्रित करने के लिए गुहाओं की प्रस्तर भित्तियों को चूने के प्लास्टर की मोटी तह से समतल किया गया था और फिर उस पर चित्र बनाए गए थे। जिनके लिए रंगीन मिट्टी तथा खनिजों के प्राकृतिक द्रव्यों का प्रयोग किया गया था। भारतीय शैली के जो चित्र गुहा में हैं वह गुप्त शैली के हैं। भित्तियों पर चित्रित रूपावलियों से बुद्ध को विभिन्न मुद्राओं में प्रदर्शित किया गया है और उनके ऊपर ऐसे चित्र फलक हैं जिनमें पुष्प तथा रत्न बिखेरती हुई अप्सराओं को अंकित किया गया है। बहुत-सी भित्तियाँ ऐसी भी हैं जिन पर चित्र ना होकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई हैं। भित्ति चित्रों के निर्माण के लिए न केवल बुद्ध बोधिसत्व या बौद्ध धर्म से संबंध रखने वाली कथाओं का ही उपयोग नहीं किया गया है, अपितु पशु-पक्षियों तथा अन्य देवी-देवताओं को भी चित्रों में अंकित किया गया है। मोतियों की मालाओं को चोंच में दबाए हुए पक्षी, जंगली सूअरों का शिकार करते हुए शिकारी एवं इसी प्रकार के कितने ही चित्र बामियान के गुहा मंदिरों की भित्तियों आदि पर विद्यमान हैं। छोटी बुद्ध मूर्ति के स्थान से गुहा मंदिरों के एक गलियारे में सूर्य देवता का चित्र भी है। जिसमें उन्हें रथ पर आरूढ़ हुए प्रदर्शित किया गया है।

 सत्यकेतु विद्यालंकार जी के उपरोक्त ग्रन्थ से हमें पता चलता है कि बामियान से 3 मील की दूरी पर कक्कक नामक स्थान है। वहाँ भी एक विशाल गुहा मंदिर है, जो 50 फीट ऊँचा है। इसमें भी पहले एक बुद्ध मूर्ति स्थापित थी। इस गुहा मंदिर तथा इसकी बुद्ध मूर्ति को सातवीं शताब्दी का बना हुआ माना जाता है। कला की दृष्टि से यह बुद्ध मूर्ति अत्यंत उत्कृष्ट है। इसके मुखमंडल पर जो शांति और आध्यात्मिकता झलकती है, वह अपने आप में अद्वितीय है। इसके गुहा मंदिर में भी बहुत से भित्ति चित्र विद्यमान हैं।

  बामियान के पश्चिम में 75 मील की दूरी पर सियाहगर्द नामक गाँव है और उसके समीप फोन्दुकिस्तान की घाटी है। इस घाटी में भी प्राचीन काल के बहुत से भग्नावशेष मिले हैं। इनमें बोधिसत्व की मूर्तियाँ अत्यंत सजीव तथा कलात्मक हैं। उनके मुखमंडलों पर दैवीय मुस्कान है। यह छठी शताब्दी की गुप्त शैली के अनुरूप हैं। यहाँ अनेक विहारों के भग्नावशेष भी विद्यमान हैं। जिनके भित्तिचित्र अजंता के चित्रों से सादृश्यता रखते हैं। काबुल से 12 मील उत्तर में खैरखाना नामक स्थान पर एक पुराने मंदिर में सूर्य की भी एक मूर्ति पाई गई है। इस मूर्ति में सूर्य देवता को दोनों पैर लटकाए हुए अपने सेवक दंड और पिंगल के बीच में दो घोड़ों के रथ पर बैठे हुए प्रदर्शित किया गया है।

इस प्रकार इन भग्नावशेषों का बहुत अधिक महत्त्व है। इनके अध्ययन के उपरांत कोई भी यात्री या कोई भी व्यक्ति निष्कर्ष पर सहज ही पहुँच जाएगा कि यहाँ पर कभी बौद्ध धर्म का बहुत अधिक प्रचलन रहा। इससे पहले कि अपने देश के किसी क्षेत्र विशेष में हम कभी आगे चलकर हिंदू संस्कृति के भग्नावशेष ढूँढ़ने का ऐसा ही प्रयास करें जैसे आज अफगानिस्तान में कर रहे हैं, हमें सावधान हो जाना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि धर्मांतरण से मर्मांतरण और मर्मांतरण से राष्ट्रान्तरण होता है। धर्मांतरण जैसी घातक प्रवृत्ति को देश से मिटाने के लिए देश की सरकारों को भी समय रहते ठोस कदम उठाने चाहिए।

*क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

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