विषय को प्रारम्भ करने से पूर्व मैं आवश्यक समझता हूं कि उस महान् व्यक्ति के बारे में एक वचन अपनी तरफ से कह दूं " जिस प्रकार पं० बस्तीराम ने ब्राह्मणों की दुर्दशा को देखकर एक अनुपम ढंग से ब्राह्मणों का परिधान बदलकर उनको उनका सत्य रूप दिलवाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी उसी प्रकार चौ० ईश्वरसिंह ने मानव को मानवता व कवि को कविता बिना मूल्य देने में कोई कमी नहीं रखी।"
मेरा काफी दिनों से खयाल था कि मैं श्री ईश्वरसिंह जी के विषय में उनकी कृतियों को पढ़कर लोगों के सामने अपने काव्यमय विचार शीघ्र ही प्रस्तुत करू किन्तु खेद है कि समयाभाव ने तथा साधनाभाव ने मुझे ऐसा करने से सतत बाधित ही किया । मैं उनकी लिखी २५० कथाएं पढ़ नहीं सका क्योंकि वे सभी प्राय: उर्दू भाषा में लिखी गई है। अतः समय मिलने पर मैं हरियाणा के लोक गायकों में प्रसिद्ध लोक गायक चौ० जौहरीसिंह जी से प्रार्थना करता हूं कि आप अपने गुरु के बारे में मुझे कुछ आवश्यक सामग्री दे जिससे मैं उनके विषय में कुछ विचारों का संकलन करके उन्हें प्रकाशित करवा सकूं । सच्चे गुरु का शिष्य होने के नाते तथा मेरे अत्यन्त पूजनीय मामा प्रभुदयाल जी आर्य का परम मित्र होने के नाते उन्होंने सहर्ष मेरी बात को इस प्रकार स्वीकार कर लिया जैसे भले व्यक्ति कर लिया करते हैं। लगातार तीन महीने तक थोड़े थोड़े समय में मैं जो उनसे थोड़ा बहुत ग्रहण कर सका उसी को प्रस्तुत कर रहा हूं । सम्पूर्ण कथाओं का विश्लेषण करने के लिये मेरे पास वर्तमानकाल में इतना समय नहीं था कि मैं पाठकों की सेवा कर सकता, फिर भी 'Some thing is better than nothing' को मानकर आपको इसमें भी सन्तोष करना चाहिये । गन्ने के रस की घूंट तो एक ही काफी है।
किसी भी व्यक्ति के गुणों का वर्णन करने के लिये उसके परिवार का गुण वर्णन भी साथ सम्बद्ध है। रोहतक, हिसार, करनाल, गुड़गावां, दिल्ली, अलवर, भरतपुर, बीकानेर, मेरठ, मुजफ्फर नगर अर्थात् हरियाणा प्रान्त के कविसम्राट चौ० ईश्वरसिंह जी का जन्म सन् अठारह सौ पिच्चासी (१८८५) में वैशाख शुक्ला पूर्णमासी ( 25 मई 1885) को ग्राम ककरोला (दिल्ली) में चौ० रामसिंह जी गहलोट के यहां हुआ।
उस समय शिक्षा का प्रसार कम था अतः गाँव में स्कूल न होने के कारण इनके पिता जी ने इनको पांच वर्ष की अल्प अवस्था में ही नजफगढ़ कस्बे के मिडिल स्कूल में प्रविष्ट करवा दिया। उस काल में उर्दू एवं फारसी का बड़ा रौब था, हिन्दी तो कहीं कहीं पर मेघाछन्न आकाश में ध्रुव तारे के समान दिखाई देती थीं। जब वे छठी श्रेणी में आये तो उनके एक गुरु उन्हें मिले जो कि आलिम फाजिल उर्दू शायरी के माहिर श्री रहमान थे। उन्होंने अपने गुरु जी के नाम का कविता में अनेक स्थानों पर उल्लेख किया। बचपन से ही श्री ईश्वरसिंह जी सत्य का व्यवहार करते थे, यह उनका स्वाभाविक गुण था। इसी गुण से प्रसन्न होकर रहमान ने उनको शायरी की तरफ प्रेरित किया और "गुलिस्तां बीस्ताँ" आदि फारसी की कई प्रसिद्ध पुस्तकें पढ़ाकर उन्हें सच्चे रास्ते पर चलाया। उनकी बाँसुरी बजाने का बड़ा शौक था। उन्होंने मिडिल पास करने के बाद पढ़ना छोड़ दिया और हारमोनियम पर धुन तैयार करने लगे और स्वयं बड़ी शानदार कविता का निर्माण करने लगे । ऐसे ही व्यक्तियों के लिये तो अग्नि पुराण को कहना पड़ा था-
नरत्वं दुर्लभ लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।३२७,३
अग्निपुराण
अर्थात् पहले तो संसार में मानव जन्म दुर्लभ है, उससे भी दुर्लभ है विद्यालाभ, उससे भी दुर्लभ है कवित्व और जिसे कवि प्रतिभा कहते हैं वह तो अत्यन्त दुर्लभ है।
क्या उनके साथ और विद्यार्थी नहीं पढ़ रहे थे ? यदि पढ़ रहे थे तो उनको काव्यत्त्व करने की शक्ति क्यों नहीं मिली ? उनको नहीं मिली यही भेद है। क्योंकि यह शक्ति जन्मागत थी। श्री गहलोट की सब से बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने स्वयं स्वर तैयार किये तथा उनको संस्कृत के छन्दों को परिमाण में बांधकर मधुर कविता का रूप दिया । उदाहरण के लिये 'चलो दूजी ठौड़ कहीं तज पाप की दुनियां को' यहाँ पर शिखरणी छन्द का समावेश है। 'तमोचराणामेषां चरितैः जगन्निरयतामानीतम्' वाले छन्द को खयाल में बदलकर 'चन्द्रा बोली भागो दौड़ो देखो पड़ी मनुष्य की लाश ।" लिखा । इसी प्रकार अनेक छन्दों का प्रयोग जिनका उल्लेख विस्तरमिया नहीं किया जाता ।
उन्होंने बहुत पहले कविताएं रचनी शुरु कर दी थीं। आरम्भ की कविताएं "बचपन और बुढ़ापे की शादी मत करो" नामक शीर्षक की थी। उदाहरण के रूप में दो लड़कियों ने अपना दुःख बताया ।
कोई ऐसी न जोट मिलाइयो, बूढे बैल के मत व्याहियो ।
आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती के पंजाब के अन्दर जब दौरे हुए और आर्यसमाज की उन्नति के लिये स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वामी ब्रह्मानन्द जी पं० अमीचन्द जी (जो पहले अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति एवं तहसीलदार थे ) तथा अन्य अनेक आर्य विद्वान् हरियाणे में प्रचारार्थं धूमे तो चौ० ईश्वरसिंह जी को भी उनसे सात्विक एवं पारमार्थिक प्रेरणा मिली जिसके फलस्वरूप उन्हें सत्यार्थप्रकाश पढ़ने को मिला। इस विषय में उनकी एक अत्यन्त प्रसिद्ध कविता है-
" देखूं कैसा है यह सत्यार्थ प्रकाश ।"
इसके बाद वे सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कविताएं बनाने लगे और गाने लगे। भूत प्रेत, बहम परस्ती, पत्थर की मूर्ति को ईश्वर मानना, गण्डे ताबीज बनाने वाले फकीरों की झूठ का भांडा फोड़ना आदि विषयों को लेकर सैकड़ों कविताओं का निर्माण किया जैसे-
"कोरे गप्पों का गपौड़ा गप्पू ले बैठेगा तो ।
देवता तेंतीस करोड़ बता दिये एक करोड़ ना दो।
हम उनको कुछ इनाम देवें नाम गिना दे जो ।। "
इतिहासों में झूठी बातों का खण्डन किया, जैसे रामायण का उदाहरण दिया है । ” कुम्भकर्ण का विस्तार”, चौ० जोजन चार मूंछ भई ठाडी जोजन एक नासिका बाढी ॥
साथ ही उन्होंने छूतछात के विरोध में प्रचार किया। न केवल प्रचार किया अपितु अपने साथ हरिजनों के दो भाई गेलाराम व प्रभातीराम को कई साल तक अपने साथ रखकर प्रचारक बनाया। छूतछात करने वाले सवर्ण हिन्दुओं के विरोध में भजन गाए ।
"हिन्दू हैं मतलब के यार बे मतलब परे हटाते । "
इसके साथ ही इलाहाबाद, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों पर मादर जाद नंगे और अनपढ़ तथा भ्रष्टाचारी फकीरों की अच्छी प्रकार से मरम्मत की। गङ्गा यमुना और सरस्वती आदि नदियों पर जो गन्दे मेले लगते थे और उन मेलों में जो लूट, जेब तराशी और स्त्री समुदाय का अपहरण होता था उसके खिलाफ किये गये प्रचार का उदाहरण कितना हृदयाकर्षक है-
जितना हो गंदा माल डाल दो गङ्गा में ।
मुर्दों के हाड़ और बाल डाल दो गङ्गा में ॥
सुधार के लिए ईश्वर पूजा, माता पिता और गुरु तथा अपने बड़ों की सेवा व आज्ञा पालन करना और पांच यज्ञों पर – (ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलि वैश्वदेव यज्ञ और पितृ यज्ञ) अत्यन्त खुलासे के साथ शानदार कविता का निर्माण किया। शराब, सुल्फा, भांग आदि हर नशावर चीजों को छुटवाने का तथा उनपर पाबन्दी लगवाने का बड़ा प्रयत्न किया ।
सन् १९२१ में आज़ादी की लहर आई तो उस महाकवि ने अपनी लेखनी से उन कविताओं का निर्माण किया जिन्हें पढ़ व सुनकर न केवल हनुमान की तरह नौजवानों की अपितु अंगद की तरह वृद्ध पुरुषों की भी भुजाएं फड़कने लगी थीं। उनकी लेखनी ने-
"हो आजाद काले नाग गुलामी तनें क्यों भाई ?"
लिखकर समस्त इलाके को देशभक्ति में रंग दिया। इसी बीच में किस प्रकार वैदेशिक हमारे स्वर्णिम भारत का ठाठ से उपभोग करने में समर्थ हुए, आदि विचारों को लेकर जनता को जगाकर उसका पुराना स्वरूप दिखलाते हुए कहा-
(१) पी-पी वैरभाव की भांग धर्म तज काले बने।
अर्जुन अमरीका से ब्याह कर लाया अलूपी नार ।
धर्महीन देखो दिल्ली में अकबर के दरबार ||
मानसिंह साले बने |
(२) स्वतन्त्र हूं प्रताप कहते दे मूंछों पर ताव ।
आज मूंछ गधे की पूंछ समझ ली टके सेर का भाव ।
कर्जन के हवाले बने ॥
(३) कहे हकीकत जोरावर बन फेर फतह आसान ।
चूने के बदले सिर को दे दो रहे धर्म की प्रान ॥
दीवार के मसाले बने ॥
(४) चोटी बेचारी डर की मारी मस्तक पहुंची आय ।
धर्महीन मल तेल जुल्फ कहें हिजड़ा शक्ल बनाय ||
फिरे हैं तेराह ताले बने |
(५) जरदशत सुकरात ईसा प्यारे हिन्द में दिये पठाय ।
लन्दन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में आज पढ़ें हैं जाय ॥
हिन्दुओं के विद्यालय बने ।
ठीक इसी प्रकार एक दूसरे उदाहरण को ध्यान से देखिये । कवि कहता है कि आर्य शासकों का राज्य यहां से किस प्रकार चला गया-
(१) रोये फूट फूट जब खाई फूट इस फूट के आधे दाम ।
पाँच हजार वर्ष हुए देखो करते फूट आहार ।
धर्म का चोट उतार दिया और बाना फूट का धार ॥
तजा धर्म चोट लगी फूट चोट कटे चोट तो बने गुलाम ॥
(२) देखो नजारा फूट का भारा गजनी के दरबार ।
लाख टके की जान की कीमत दे दो दो दीनार ।।
बेटे कूट, छिन गये कोट, चारों कूट फैला इस्लाम ॥
(३) फूट खा गये, फूट बो गये, कर गए मिट्टी ख्वार ।
दुनियां को ठोकर लगें हमारे तानों की बुछाड़ ॥
भर सबर घूँट, चुप गला घोंट ईश्वर गहलौट कर काम ॥
ऊपर लिखित कविता को पढ़कर पाठक के मन में एक लहर सी दौड़ जाती है और वह अपनी पुरानी बात को याद करके रो ही पड़ता है जो सहृदय पाठक का स्वाभाविक गुण हुआ करता है। यद्यपि ‘ट’ शब्द का बार बार आना कानों को बड़ा अखरा करता है परन्तु यहां पर ‘दे दो दो दीनार’ आदि पद उसकी कर्कशता को मृदुलता एवं मधुरता में परिणत कर देते हैं। ऊपर के गीतों में महाभारत के काल से लेकर अब तक की बात को बड़े ही संक्षेप रूप से अर्थ गांभीर्य को ध्यान में रखते हुए बड़े ही उत्कृष्ट रूप में वर्णित किया है। कहाँ तक उसके द्वारा बनाए गये गीतों की महिमा कही जाए, उसी समय का बनाया गीत, जिसमें महाकवियों ने अपने सोने के देश का अनुपम गौरव गाया है, मनुष्यों को इस प्रकार से भावाभिभूत कर देता है कि-
(१) जिसे अब कहते हिन्दोस्ताँ कभी जन्नत निशाँ वह था ।
जिसे अब कहते हैं वहशी कभी विद्या की खाँ वह था ।
(२) झुकाती सर जमीं सारी इसी के सामने सिर को ।
कहाती देवता भूमि यों मशहूरे जमाँ यह था ॥
(३) ऋषि होते थे कपिल गौतम मनु और व्यास से लोगो ।
आहा मुनतक रियाजी फिलसफा व हिन्दसा दाँ यह था ।
(४) चरक सुश्रुत से यहाँ पर वैद्य और जराह होते थे।
यही खाँ औषधी की थी यो ही सेहत रसाँ यह था ।
(५) आहा श्री रामचन्द्र परशुराम अर्जुन व भीष्म भीम ।
यहाँ होते थे दुनियाँ में सभी से पहलवाँ यह था ।
(६) बहें थीं दूध की नदियां व नाले घी के बहते थे ।
उसी से फौकीयत रखना दिमागे नकताँ दाँ यह था ।
(७) खामोश हो जाओ ईश्वरसिंह कि सुनकर रोना आता है।
सभी कहते थे दिन और रात ऐसी दास्ताँ यह था ।
यद्यपि कहीं कहीं पर ऐतिहासिक गलती हो गई परन्तु अपने देश का सच्चा और पवित्र स्वरूप बतलाने में कवि ने कोई कमी नहीं रख छोड़ी। ऋषियों के जमाने की तस्वीर भी सामने लाकर रख दी है। कवि ने सब से पहले इस देश को देवताओं का घर बताया है । देवता, ऋषि, मुनि, विद्वान् प्रवीण, वैद्य, मर्यादा पुरुष, शूरवीर, धनवान् व बुद्धिमान् व्यक्तियों के पदों से सेवित देश को सूना सा देखकर कवि का हृदय यदि रोकर यह पंक्ति न कहे तो क्या करें ?
खामोश हो जाओ ईश्वरसिंह कि सुनकर रोना आता है।
जब देश के अन्दर महात्मा गांधी ने स्वदेशी की तहरीक चलाई तो उन्होंने खुद भी खद्दर पहिनना प्रारम्भ कर दिया और अपने जीवन के अन्त तक पहिनते ही रहे । प्रचार कार्य पर जहां कहीं भी जाते, वहीं पर ‘खद्दर पहनो’ प्रचार करते, इस विषय में अनेक गीतों का निर्माण किया, मुलाहजा फरमाइये –
(१) सईय्यां पहनूंगी साड़ी स्वदेश की ।
लगे विदेशी कपड़े में हड्डी का पान |
(२) इस चर्बी व हड्डी लहू के लिए।
बने दुश्मन बकरी भैंस गऊ के लिए ॥
लाखों जाती हैं मारी स्वदेश की ।
(३) पहन परदेशी साड़ी चौके में खड़ी ।
बिगडा चौका भोजन व सब्जी सड़ी ॥
कैसी हंडिया बिगाड़ी स्वदेश की ॥
(४) साड़ी पहनूं या पहनूं विदेशी लहँगा ।
देशी नरमा सजे सब रंगों में रंगा ॥
लगे घोटा किनारी स्वदेश की ॥
(५) चरखा चक्कर चला आया ढाके से पार ।
गुजराती ने गाती अब लीनी है मार ॥
कहता उठने की बारी स्वदेश की ॥
(६) निकले टोटा गुजारा गरीबों का हो ।
करे चरखा निस्तारा गरीबों का हो ॥
कातें बेवा विचारी स्वदेश की।
(७) सारी लहंगा क्या जहाँ तक बसावे मेरी ।
भाई ईश्वरसिंह बातें ये सुनकर तेरी ॥
बरतूं चीजें सब प्यारी स्वदेश की ॥
भारत के त्यौरों पर (जन्म अष्टमी, दिवाली, दशहरा, बकर ईद) जो बकरे भैंस और गाय मारी जाती थी, उसकी निन्दा बड़े ही अनोखे ढंग से की। गोमाता के घी, दूध और दही के गुण बताए और साथ ही साथ यह बताया कि बैल की कमाई पर देश का गुजारा है, धन्न पैदा होता है, गऊ की महत्ता के बारे में कहा-
भूत क्यों आते हैं घर में गाय ना,
ऊत क्यों आते हैं घर में गाय ना ।
शस्त्र क्यों छिनवाए घर में गाय ना,
दास पद क्यों पाये घर में गाय ना ॥
इसी प्रकार न मालूम कितने धौर भी दुर्गुण बताए जो कि गाय के अभाव में या जाते हैं। भारत को दिन प्रतिदिन होती हुई धवनति को देखकर कवि विवश होकर कह हो देता है-
" बनता दीखे यह हिजड़ा हिन्दोस्तां मुझे ॥
स्त्रियों को जहाँ अनेक प्रकार की अन्य शिक्षाएं दी वहाँ पर उन्होंने उनके गाने के लिए बहुत उत्तम उत्तम गीतों का निर्माण किया। एक बार एक पुरुष अपने घर की गऊ को धनाभाव के कारण बेच रहा था तो उस समय उसकी धर्मपत्नी कहती है-
मेरा मान ले कहना हो सजन गऊ मत बेचै ।
बेचै मतना लहना हो सजन
गऊ मत बेचे ।
खाते विदेशी सेना हो सजन गऊ मत बचे ।
बेची तो मैं ना हो सजन गऊ मत बेचै ।
तेरा वंश चले न हो सजन गऊ मत बेचै ।
मेरा बेच दे गहना हो सजन गऊ मत बेचे ।
ईश्वरसिंह का कहना हो सजन गऊ मत बेचै ||
गऊ को घर पर रखने के लिये सच्ची भारतीय नारी अपने दिल में दुःख महसूस करती हुई कहती है कि पतिदेव ! चाहे तू मेरे जेवरात को बेच दे पर गऊ माता को मत दे । पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि औरत को जेवर कितना प्यारा होता है। परन्तु उस जेवर से भी कहीं अधिक वह आर्य कन्या गौ को अधिक महत्त्वशाली समझती है।
आपने समाज सुधार के लिए भी भजन लिखे । बाल विवाह का - 'कोए ऐसी ना जोट मिलाइयो बूढ़े बैल के मत ब्याहियो ।' गीत लिखकर बड़ा सख्त विरोध किया । अपने लड़के लड़कियों को जवान होने पर आर्य समाज के तथा जाट महासभा के नियम के अनुसार दहेज के लेन-देन के बिना शादी की।
किसान और मजदूर की हमदर्दी में भी आपने बड़ा प्रचार किया। एक बार गुरुकुल भैंसवाल के उत्सव पर दीन बन्धु चौधरी छोटूराम की उपस्थिति में “सैयाद ना सता मुझे मैं तो किसान हूँ ।” गीत गाया तो चौधरी छोटू राम ने भावविभोर होकर मंच पर ही खड़े होकर अपनी बाहों में ले लिया और एक गीत और गाने को कहा जो – ‘दुनियां का दरोड़ा, सिर पीट है किसान का’ टेक से शुरू किया। उनके बाद आज फिर से इस देश में किसान और मजदूर की हमदर्दी की भावना जनता के सामने उभर कर भा रही है। चौ० ईश्वर सिंह किसान और मजदूर के हमदर्द होने के साथ-साथ पूजीपतियों और शहरियों के बड़े विरोधी थे। वे देहात को पवित्रता का तथा शहर को चालाकी और पवित्रता का परिचायक मानते थे इसका एक स्पष्ट उदाहरण यहां पर गीत के रूप में है :-
टेक :- अच्छी चीजें सारी हैं जंगल बन देहात में ।
सृष्टि रची पृथ्वी पहले बने बन जंगल ।
प्रकृति देवी ने किया जंगल में मंगल ।
प्रभु चित्रकारी है जंगल बण देहातमें!!
वे यह गीत गाकर कहा करते थे कि शहर की तरफ मत भागो क्योंकि शहर मनुष्यों की ईमानदारी को हरने की जगह होती है । इसके साथ-साथ-
'बिकते धर्म कर्म शर्म शहर में,
हर एक तरह की फर्म शहर में ।
शहर में शामत चालचलन को ।'
आदि गीत गाकर भी शहर और देहात की बुराई और अच्छाई बताते थे ।
चौधरी साहिब की मातृभाषा हिन्दी थी। किन्तु बचपन से ही उर्दू फ़ारसी पढ़ी- और इसी में ही शायरी के अन्दर महारत हासिल की। लेकिन प्रचार में कभी भी हिन्दी और संस्कृत की बड़ाई करने से नहीं चूकते थे। आपने 'शाहजहां के दरबार का फैसला' एक ऐतिहासिक घटना के द्वारा यह सिद्ध किया है कि संसार की सब से उत्तम भाषा संस्कृत है। इसी में आपने शाहजहां की बेटी का काशी विद्यापीठ के ब्रह्मचारी पं० जगन्नाथ से विवाह सम्बन्ध बड़े अच्छे ढंग से चित्रित किया है। हिन्दी के प्रचार के लिए तो मापने सांघी, भगोती पुर, खरेंटी, निडान खेड़ा, मलौट, जुलाना, शादी पुर, मीताथल, जसराणा, कासनी तथा ककरौला आदि में अनेक लड़के और लड़कियों की पाठशालाएं खुलवाई, जहां पर अब बड़े-बड़े स्कूल बन चुके हैं। देहात में शिक्षा के प्रचार के लिए अनपढ़ और पढ़े-लिखे नर-नारियों की आपस में तुलना करके गीत द्वारा कार्य करने का उनका ढंग बड़ा ही निराला था। जगह-जगह पर-
'कोई जोड़ रहा पत्थरों सेती प्यार,
हमने प्यारा ओ३म् नाम निराकार ।
कोई दीवाली को मुरदा डाला बार,
म्हारे हवन की उठ रही महकार ।।'
यदि गीत गाकर मूर्तिपूजा के खण्डन और हवन के मण्डन में भी गीत गाये । आप भारतीय संस्कृति के बड़े पुजारी थे। पतलून की बात तो बहुत दूर की थी- पाजामा पहनना भी आपको पसन्द नहीं था। धोती कुर्ते को ही भारतीय वेशभूषा का परिचायक मानते थे। पहलवानी पर बड़ा बल दिया करते थे। अंग्रेजी फैशन के इतने विरोधी थे कि प्रचार में बार-बार पतलून बाज तथा जुल्फ बीज कहकर खण्डन करते थे। अपने भजन की –
” इस फैशन ने जुल्म गुजारे कर दिया देश खवार,
मेरे भगवान् दया करिये।”
पंक्ति कह कर बार-बार भगवान् से देश को फैशन की बीमारी से बचाने के लिए प्रार्थना किया करते थे। स्त्री-शिक्षा के लिए आपका प्रचार सबसे अधिक होता था। आप जानते थे कि यदि स्त्री शिक्षित हो गई तो हमारा सारा समाज ही शिक्षित हो जावेगा। इस विषय पर, कथाओं तथा भजनों का विश्लेषण करके देखा जावे तो उनका आधे से ज्यादा साहित्य मिलता है। अनपढ़ नारी को बड़ा कोसते थे उसे समाज के लिए बीमारी मानते थे । उसे फूहड़ और मूर्खा कहा करते थे। कन्या को न पढ़ाने वाले माता पिता को भी अनाड़ी कहा करते थे। समझाने और नफरत दिलाने के लिए इस विषय पर सैंकड़ों गीत लिखे हैं-
पिता माता अनाड़ी जो ना कन्या पढ़ावें।’
'प्यारी जिन्दगानी पढ़ाई बिन खो दई ।'
'धनपढ़ बहू आवे साथ लावे टोटा ।'
आदि गीतों से उनकी भावना का चन्द्राजा लगाया जा सकता है। यही नहीं मनुष्यों के लिए भी वे पढ़ना लिखना बड़ा जरूरी समझते थे और जिसको अनपढ़ मिले जमाई समझो खैर नहीं है’ कह कर मनुष्यों के मन में पढ़ाई के प्रति जागरूकता पैदा किया करते थे। उनकी पढ़ाई के प्रति इतनी लगन थी कि प्रचार में यहां तक भी कह देते थे कि जिस लड़के या लड़की का रिश्ता (सगाई ) धनपढ़ लड़की या लड़के से हो चुका है उसे नाश से बचने के लिए वह रिश्ता तोड़ देना चाहिए। इसके प्रतिरिक्त वे नारियों के लिए जेवर पहनने को भी अच्छा नहीं मानते थे। उससे चोरी डाके का डर हमेशा बना रहता है। स्त्रियों के बारे में उन की मान्यता थी कि यदि स्त्रियां सांग सिनेमा धौर मेले में जाना, छोड़ दें तो इन सभी भीड़ बन्द हो सकती है और काफी हद तक बदमाशी बन्द हो सकती है।
राजनीति के क्षेत्र में आप हिंसा को ठीक नहीं मानते थे। शत्रु के साथ प्यार की भाषा अपनाने से किस प्रकार हानि होती है- इसको बौद्ध मतावलम्बी मगध नरेश की कथा बना कर स्पष्ट किया है। मगध नरेश जालिम हूणों को अपना भाई समझता था । वह उनको प्यार से जीतना चाहता था। परन्तु बाद में उसे तलवार उठानी पड़ी। इस कथा के माध्यम से चौधरी साहिब उस समय भारत-चीन सम्बन्धों की चर्चा किया करते थे और बार-बार कहते थे कि ‘तलवार जीते, ना प्यार जीते।’ वे सामाजिक क्षेत्र में तो हिंसा के समर्थक थे किन्तु राजनीति में इसे कभी भी उचित नहीं मानते थे । इस कथा के अतिरिक्त दूसरी कथाओं में भी ‘ईट का जवाब पत्थर’, ‘थप्पड़ का जवाब मुक्का’ कह कर स्पष्ट किया करते थे कि देश की सुरक्षा केवल मात्र प्यार से नहीं की जा सकती। शत्रु प्यार को कमजोरी मानता है और समय मिलते ही हानि पहुँचाता है। इसका प्रमाण हिन्दी चीनी भाई-भाई’ के नारे से भी मिल सकता है कि चीन ने सन् 1962 में हमारे देश के साथ क्या व्यवहार किया।
आपका प्रचार क्षेत्र बड़ा विस्तृत था। जाट संस्कृत हाई स्कूल रोहतक, जिसकी स्थापना मास्टर बलदेव सिंह जी ने की थी, का चन्दा हर वर्ष दो मास के लिए करवाते थे। उस दौरान आप किसी प्रकार की प्रार्थिक सहायता चन्दा करवाते समय नहीं लेते थे । इस स्कूल के लिए बुटाना, मुण्डलाना, सामण पूठी, बास, पेटवाड़, मांडौठी (लेखक का निजी ग्राम), डीघल, बेरी, गोछी. धांधलान, सांपला, भापड़ौदा आदि बड़े- बड़े गांवों में प्रचार के द्वारा चन्दा करवाते थे। सन् 1924 में संगरिया मण्डी बीकानेर का जाट स्कूल अर्थाभाव के कारण टूटने को जा रहा था उसके लिए लगातार एक साल तक चन्दा करवाया जो आज एक बहुत बड़ा विद्यापीठ है। आप जाट हाई स्कूल हिसार उत्सव पर भी सेठ छाजू राम के निमन्त्रण पर कई बार गये। गुरुकुल भैंसवाल के उत्सव पर भी आप हर वर्ष आते थे। अनेक पाठशालों के प्रचार के कार्य में व्यस्तता के कारण लोग कई-कई मास पूर्व उनसे कार्यक्रम लेने के लिए आते थे। जब आप भिवानी आर्य- समाज के उत्सव पर पं० फूलचन्द ‘निडर’ के निमन्त्रण पर जाते थे तो वहां के मुसलमान उनकी शायरी सुनने के लिए बहुत बड़ी तादाद में आते थे – हालांकि वे इस्लाम की झूठ का बड़े सख्त शब्दों में खण्डन करते थे-
‘खुदाया कैसी मुसीबतों में कुरान वाले पड़े हुए हैं।
कदम-कदम पर शुद्धि का शर कमान वाले खड़े हुए हैं ।’
ये पक्तियां इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं। आप आर्य हिन्दी महा विद्यालय दादरी में भी प्रचारार्थ जाते रहे। जिला सोनीपत के बली ग्राम में आपने मौलवी को शास्त्रार्थ में भी हराया था तथा अनेक आदमियों को जनेऊ देकर शुद्धि का काम किया। न केवल हरियाणा के उपरोक्त स्थानों पर ही आप जाते थे किन्तु पश्चिमी उत्तर प्रदेश खासकर मुजफ्फर नगर तथा मेरठ जिले में भी आप चौ० तेजसिंह के निमन्त्रण पर अनेक बार गए । आर्य समाज के प्रचार के लिए आपने हिसार, करनाल, रोहतक, गुड़गांव तथा राजस्थान की हनुमानगढ़ तहसील के लगभग नब्बे प्रतिशत गावों का भ्रमण किया । उनकी सुरीली और ऊंची आवाज का इतना प्रभाव था कि साँगी उनके मुकाबले पर कभी भी नहीं ठहर पाये ।
आर्य धर्म के प्रचार के समय आपने अनेक शिक्षा संस्थायों में सौ-सौ रुपये दान दिया, जिसमें गुरुकुल भैंसवाल, गुरुकुल पंचगामा, आर्य हिन्दी विद्यालय दादरी तथा जाट स्कूल रोहतक आदि विशेष रूप से शामिल हैं। गुरुकुल भैंसवाल के ब्रह्मचारियों को तो दो बार विशेष भोजन भी दिया। आप की गुरुकुलों के बारे में कितनी अटूट श्रद्धा थी उसका प्रमाण इन पंक्तियों में मिल सकता है। :-
'चलो सखी देखने चलें,
हो रहा वेद प्रचार,
गुरुकुल देश सुधारेगा।'
'रामायण पढ़ ब्रह्मचारी बनेंगे
राम लखन अवतार,
गुरुकुल देश सुधारेगा ।'
'देवकी मां ने बेटे भेजे,
पढ़-पढ़ बनेंगे कृष्ण मुरार,
गुरुकुल देश सुधारेगा ।।'
चौधरी ईश्वर सिंह ने जो कथनों के माध्यम से इतिहास लिखा है, उसमें आप ब्राह्मण, जाट, राजपूत, अहीर, गूजर, सैनी, रोड आदि सभी को क्षत्रिय मानते थे। वैश्य, सिक्ख, मराठा, मुसलमान, आर्य वीरांगनाओं ( पतिव्रता, दयावती तथा लड़ाकू के रूप में) तथा कर्ण आदि का इतिहास गीतों में बनाकर गाया – जिनमें तीन-तीन, चार-चार घण्टे का समय लग जाता था। जहां कहीं भी कथाओं में भगवान् का वर्णन आता है- वहीं पर उसे निराकार कहकर उसका निरूपण किया गया है। बंगाल बन्दू ग्राम में भैरों के मन्दिर में भगवान् की मूर्ति को देख कर कहा ‘कैद में क्यों भगवान् रुके । इतिहास की अन्य अनेक (लगभग दो सौ से ऊपर) कथाएं और भी हैं किन्तु उनमें राजा हरिश्चन्द्र, कृष्ण सुदामा, महाराजा नल, महाराणा प्रताप, शक्तिसिंह, शिवाजी, शूरसेन, जसवन्त सिंह राठौर, पृथ्वी सिंह राठौर, महाराजा सूरजमल, महाराजा जवाहर सिंह, गुरु गोविन्द सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह, वीर हकीकत राय, महाराजा रणजीत सिंह, महारानी चन्दा, भक्त तेजा जाट, पं० भारवि माई गूजरी, किशोरी माई, पदमा बाई, भूपाल, महारानी द्रौपदी, वीरांगना, दुर्गा देवी, केशर बाई, महारानी लक्ष्मी बाई, जमना बाई मरहठा, उषा कुमारी, सूरज सिंह चन्द्रा (जिसमें एक क्षत्रिय का हरिजन की लड़की के साथ सच्चा भाई बहन का प्यार दिखाया गया है), दानी कर्ण, कबीर दास, रविदास आदि कथाओं के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नवजागरण पर महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, नेता जी सुभाष चन्द्रबोस, भक्तसिंह, वीर चन्द्र शेखर, रामप्रसाद बिस्मिल तथा जलियांवाला खूनी इतिहास पर भी कथाएं लिखीं –
'कहै डायर फायर करदों यह तो हिन्दुस्तानी है'
लिख कर प्रकट किया कि अंग्रेज डायर की नजर में हमारी क्या कीमत थी। महात्मा भक्त फूल सिंह पर बड़ी मार्मिक कथा लिखी। ‘महात्मा गांधी जी के जीवन की प्रति झांकी, ‘ओ हत्यारे हाथ नहीं कांपा आदि गीतों में लिखी । इनके अतिरिक्त भी उनका बहुत बड़ा साहित्य उर्दू भाषा में लिखा हुआ अब भी उनके शिष्य कुंवर जोहरी सिंह आर्य भजनोपदेशक गुरुकुल भैंसवाल के पास सुरक्षित है।
उनके शिष्यों में स्वर्गीय स्वामी नित्यानन्द चौ० सूरत सिंह, पं० शिवकरण, कुंवर जोहरी सिंह, कांशी राम, छोटू राम, भाई मूलचन्द, हरफूल सिंह, भाई बलराम सैनी, सज्जन सिंह, भाई गैला राम हरिजन, भाई प्रभाती राम हरिजन, भीखन सिंह होडल, भाई सत्यवीर सिंह मलिक आदि प्रमुख हैं- जिन्होंने उनकी ही शैली को अपना कर वेद प्रचार किया है । इनके अतिरिक्त भी उनके अनेक शिष्य रहे हैं जिनका जिक्र – स्थानाभाव से नहीं किया जा रहा है। उनका गाने का ऐसा तरीका था कि आज भी उस शैली पर कोई गीत गाता है तो सुनने वाला फौरन समझ जाता है कि यह शैली चौधरी ईश्वर सिंह की है।
आपका भोजन सादा होता था और मांस, शराब आदि के आप बड़े विरोधी थे । मिठाई तथा तली हुई चीजों का कभी भी प्रयोग नहीं करते थे । ‘जिनके प्रीतम पीवें शराब उनका जीना क्या जीना।’ शराब के बारे में गीत रच कर बहुत गाया करते थे। गंगा, जमना, रामराय, पिंडारा आदि गन्दे मेलों में स्त्रियों के जाने पर उन्हें बड़ा कष्ट होता था और प्रचार में इन मेलों में होने वाली बुराइयों का बड़े साफ शब्दों में वर्णन करते थे।
अन्त में उस महान् कवि को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ यह लिखना चाहूँगा कि उन्होंने समाज से सम्बन्ध रखने वाला कोई क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा जिस पर अपनी कलम न उठाई हो। सभी विषयों पर उनके भजन मिलते हैं। आजादी के बाद भी- ‘हुआ राज हमारा है सखी रंग बरसेगा ।’ ‘तेरे पा पा को मिटायें बाकी रह जागा किस्तान’ आदि गीत लिख कर अपने देश की गौरव गाथा गाई ।
आपकी अन्तिम कविता, जो आपने 12 जुलाई 1958 को लिखी- “काल से काल जाने सो जानेे” है। उसके बाद आपका 14 जुलाई को दो दिन बाद आपके अपने गांव ककरोला में स्वर्गवास हो गया ।
लेखक – प्रो. प्रकाशवीर शास्त्री मांडोठी
नोट – कुंवर जौहरी सिंह जी के साथ साक्षात्कार के अंश
स्त्रोत – समाज संदेश गुरुकुल भैंसवाल कलां (अंक – नवम्बर 1966 व मार्च 1979)
प्रस्तुतकर्ता – अमित सिवाहा