18वीं किस्त
छांदोग्य उपनिषद के आधार पर ,
हमारे इस शरीर को ब्रह्मपुर भी उपनिषद में कहा गया है। और उसमें जो अंतराकाश है उसको कमल ग्रह भी पुकारा गया है।
पृष्ठ संख्या 787
“अब इस ब्रह्मपुर (शरीर) में जो यह सूक्ष्म कमल ग्रह है इसमें जो सूक्ष्म अंतराकाश है और उसमें जो स्थित है, वह खोजने योग्य है, निश्चय ही वह जिज्ञासनीय है।”
अर्थात हमारे शरीर के अंदर उपस्थित अंतरकाश रुपी कमल ग्रह में आत्मा और परमात्मा दोनों ही स्थित है और वही जानने योग्य है ऐसा कहा गया है।
“निश्चय जितना यह आकाश है उतना यह हृदय के अंदर का आकाश है। इन दोनों द्युलोक और पृथ्वी, दोनों अग्नि और वायु, दोनों सूर्य और चंद्र, बिजली और नक्षत्र इस आत्मा का यहां इसी लोक में जो कुछ है और जो नहीं है वह सब इस आकाश में भीतर ही समाया हुआ है।”
इस उपनिषद के अध्ययन उपरांत भी आत्मा की हृदय में स्थिति पुनः सिद्ध एवं स्पष्ट हो गई।
पृष्ठ 788
“आचार्य को पूछे कि यदि इस ब्रह्मपुर में सब समाया हुआ है समस्त प्राणी और समस्त कामनाएं , लेकिन जब बुढ़ापा इस शरीर को प्राप्त होता है तो वह शरीर अवश्य नष्ट हो जाता है तब क्या बाकी रह जाता है?”
“वह आचार्य उत्तर देवे कि इस शरीर के बुढ़ापे से यह आत्मा जीर्ण नहीं होता। इस शरीर के वध से आत्मा नहीं मारता। यह ब्रह्मपुर सत्य है, अविनश्वर है। इस ब्रह्मपुर में कामनाएं समाई हुई हैं। यह आत्मा पाप रहित बुढ़ापे से पृथक, मृत्यु से अलग, शोक से खाली ,खाने और पीने की इच्छा से शून्य, सत्यकाम और सत्य संकल्प है ।निश्चय जैसे ही प्रजाएं राजा के अनुकूल चलते हैं, जिस जिस प्रदेश की ,जिस जनपद और जिस राज्य के भाग्य की कामना करने वाली होती हैं उसी का वह उपभोग करती है।”
पृष्ठ संख्या 789
“यहां जो आत्मा की खोज किए बिना और इन सत्य कामनाओं के बिना चले जाते हैं ,उनका सब लोकों में स्वतंत्र गमन नहीं होता। और जो यहां से आत्मा और इन सत्य कामनाओं की खोज करके जाते हैं उनका सभी लोकों में स्वतंत्र गमन होता है।”
यहां प्रश्न उठता है कि
सभी लोको में स्वच्छंद गमन करने वाली आत्मा कौन सी होती है?
इसका उत्तर है कि वह मोक्ष वाली आत्मा होती है ,जो बंधन से छूट जाती है, जो आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर लेती है।
पृष्ठ संख्या 793
“परोक्ष में स्थित जीवितों अथवा मरे हुए संबंधियों आदि को मनुष्य बाह्य जगत में अपनी आंखों से जब चाहे तब नहीं देख सकता। परंतु ब्रह्म की समीपता प्राप्त कर लेने पर उसकी अव्यक्त शक्तियां व्यक्त हो जाती हैं। शक्तियों के व्यक्त हो जाने पर अनृत के पर्दे हट जाते हैं। तब ऐसा शक्तिशाली मनुष्य व्यक्त अव्यक्त सभी व्यक्तियों को हृदय में प्रत्यक्षवत देख लेने के योग्य हो जाया और देख लिया करता है।”
इसमें कहा गया है कि ईश्वर अथवा ब्रह्म की उपासना से निकटता को प्राप्त कर लेने के बाद आत्मा में वह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह अपने जीवित और मरे हुए सभी संबंधियों को हृदय में स्थित आत्मा में देख सकता है। जब तक अनृत(असत्य या नश्वर )का आवरण इस पर पड़ा रहता है तब तक उसको यह शक्ति प्राप्त नहीं होती। इसलिए जरूरत है कि उस असत्य नश्वर आवरण को ही हटाया जाए।
पृष्ठ संख्या 794
“निश्चय सो वह आत्मा हृदय में है। उस हृदय शब्द का यही निर्वचन है। हृदय में यह परमात्मा ( भी है) इसीलिए यह हृदय कहलाता है। ऐसा जानने वाला विद्वान निश्चय प्रतिदिन स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है।”
चित्त की एकाग्रता और वृत्ति निरोध के अभ्यास से प्रतिदिन स्वर्ग अर्थात ब्रह्मानंद को विद्वान प्राप्त करता है ।और ऐसा विद्वान ईश्वर को और आत्मा को अपने हृदय में स्थित मानकर चलता है।
और वहीं पर उसकी ध्यान और धारणा करता है।
“जो यह निर्मल हुआ आत्मा इस शरीर को छोड़कर परम ज्योति अर्थात ईश्वर को प्राप्त होकर अपने असली रूप उस परमात्मा को सब ओर से प्राप्त होता है ,यही जिसको आत्मा ने प्राप्त किया परमात्मा है। ऐसा गुरु ने शिष्य से कहा ,यह अमृत है, अभय है ,यह ब्रह्म है। निश्चित उस ब्रह्म का नाम सत्य है।”
अर्थात जिस ब्रह्म को जीवात्मा निर्मल होकर प्राप्त होता है उसका नाम यहां ‘सत्यम’ कहा गया है।
क्योंकि हम जानते हैं कि सत्य सदैव रहता है और सदैव एक सा ही रहता है, ईश्वर भी सदैव रहता है और एक सा रहता है,जो मनुष्य इस रहस्य को जानकर नियमानुकूल जीवन व्यतीत करने लगता है तब वह सदैव स्वर्ग लोक ब्रह्मानंद का अनुभव करने लगता है।
ब्रह्म को इस खंड में संसार सागर से पार करने के लिए पुल रूप में कहा गया है ।मुमुक्षु इस ब्रह्म रूपी पुल को पार करके समस्त क्लेशों से छूट जाता है ।उसकी समस्त लोकलोकांतरों में अभ्याहत गति (स्वेच्छाचार वाली )होती है यही तो मुक्ति है।
क्रमश:
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,ग्रेटर नोएडा
चलभाष
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लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।