(पं. लीलापत शर्मा- विभूति फीचर्स)
प्रगतिशीलता का अर्थ यदि संपन्नता लिया जाएगा और उसके साथ चिंतन की श्रेष्ठता को न जोड़ा जाएगा तो फिर लक्ष्य यही बन जाए कि भौतिक समृद्धि के मनचाहे उपयोग में आकर्षण की अधिकता रहती है। यदि उस पर भावनात्मक उत्कृष्टता का अंकुश न रहे, तो फिर समृद्धि को किसी भी प्रकार उपार्जित किया जा सकता है। समृद्धि की उत्कण्ठा ऐसी आतुरता उत्पन्न करेगी कि उसे धर्म मर्यादाओं का स्मरण दिलाने से भी नियंत्रित न किया जा सकेगा और वह कुछ भी, किसी उपाय से कर गुजरने, अनीति और उच्छृंखलता बरतने तक में प्रवृत्त होती दिखाई पड़ेगी। ऐसी प्रगति व्यक्ति को दुर्गुणी और समाज को अनाचारी बना देगी। कहना न होगा कि प्रकृति और चेतना के शाश्वत नियम इस प्रकार के अनुपयुक्त मार्ग से उपार्जित संपदा को सहन न करेंगे, फलत: सर्वत्र संकट, विग्रह और विनाश के दृश्य उपस्थित होंगे।
जीव-चेतना के साथ जुड़ी हुई जिस प्रगति, आकांक्षा की चर्चा की जाती है, उसे सुसंस्कृत दृष्टिकोण एवं शालीनता युक्त चरित्र के रूप में ही मान्यता दी जा सकती है। उसी के माध्यम से व्यक्ति की विशिष्टता बढ़ती है। व्यक्तित्व की विशिष्टता एक शक्तिशाली चुंबक है, जिसके आकर्षण से उपयोगी साधन-सामग्री उतनी मात्रा में सहज ही उपार्जित होती रहती है, जितनी कि निर्वाह के लिए आवश्यक है। इससे अधिक मात्रा का उपार्जन एवं उपयोग व्यक्ति में अनेक दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा और समाज में अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देगा। दूरदर्शी विवेकशील सदा से ही यही कहते रहे हैं कि यदि भौतिक उपार्जन अधिक मात्रा में होता है तो भी उसका उपयोग औसत नागरिक स्तर का ही किया जाना चाहिए। उसे संग्रह में, कुटुंबियों में, मुफ्त बांटने में, बर्बाद न करके लोकोपयोगी कार्य में खर्च कर दिया जाए। लालच इस नीतियुक्त दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। फलत: बढ़ी हुई संपदा, प्रगति दिखते हुए भी सुखद प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यही कारण है कि उत्कृष्टता का अंकुश न रहने पर समृद्धि सर्वत्र दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती देखी गई है। भले ही उसके अधिपति कुछ समय तक विलासी, संग्रही के रूप में अपने अहंकार का प्रदर्शन करते फिरें।
यह कठिनाई भावनात्मक प्रगति में नहीं है। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता, विचारों में दूरदर्शिता और गतिविधियों में वजन बढ़ता जाएगा। ऐसा व्यक्ति अपनी आंखों में समूचे समुदाय की आंखों में वजनदार बनता जाएगा। जिनका जितना मूल्यांकन किया जाता है उसे उसी स्तर के प्रतिफल, अनुदार एवं उपहार भी मिलते रहते हैं। सज्जनों की अपनी क्षमताएं विकसित होती हैं और उनके सहारे उपयुक्त निर्वाह की साधन-सामग्री सहज ही उपार्जित की जा सकती है। इसके विपरीत संकीर्ण-स्वार्थपरता में निमग्र व्यक्ति प्राय: अनुदार असामाजिक और कई बार अपराधी प्रवृत्ति के भी होते हैं। ऐसे लोगों का मूल्य सर्वसाधारण की दृष्टि में गिर जाता है। फलत: वे दूसरे की सहानुभूति, सहायता, आत्मीयता से वंचित रहने पर उपार्जन उपयोग भी एक सीमा तक ही कर पाते हैं। छीन-छपट का एक नया सिलसिला चल पड़ता है। फलत: कड़वे-मीठे आक्रमण करने वालों, अपने परायों से चमड़ी बचाना तक कठिन हो जाता है।
गुण-अवगुण की कतिपय कसौटियां पार करने के उपरांत इसी निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि एकांगी समृद्धि चमकीले सांप की तरह लगती तो आकर्षक है, पर वह अपने विष-दंश से असीम हानि पहुंचाती हैं। इसके विपरीत व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने का लक्ष्य निर्धारित करने पर घाटा तो इतना ही हो सकता है कि निर्वाह के अनिवार्य साधनों से संतुष्टï रहना पड़े और ठाट-बाट में धनवानों जैसा सरंजाम न जुट सके। इतने पर भी इस मार्ग पर चलते हुए जो संतोष और सम्मान मिलता है, उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक मूल्य कुछ कम नहीं है।
वे दिन बहुत पीछे रह गए, जब संपन्नताजन्य ठाट-बाट को, अपव्यय करने वालों को लोग भाग्यवान, बुद्धिमान मानते और नत-मस्तक होते थे। अब मूल्यांकन की कसौटियों में जमीन-आसमान जितना अंतर आ गया है। इन दिनों समाजवादी, साम्यवादी, चिंतन व्यवहार में भले ही स्थान न पा सका हो, अर्थ-दर्शन के रूप में वह पूरी तरह लोक-समर्थन प्राप्त कर रहा है। उस मान्यता के अनुरूप अधिक संग्रही, अधिक विलासी, अधिक अपव्ययी लोग नीतिवान, नहीं समझे जाते। अस्तु उन पर ‘अनीति की कमाई, विलास में उड़ाई’ की उक्ति के अनुरूप तरह-तरह के लांछन लगाए जाते हैं। वैभव की चकाचौंध तो सभी चाहते हैं, किन्तु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि, वैभववानों की प्रशंसा एवं प्रभावों के दिन लद गए। उन पर हर कोई अनीति उपार्जन का लांछन लगाता है, भले ही वह अनुचित ही क्यों न हो? पुरातन काल में अपना-अपना भाग्य कहकर संतोष कर लिया जाता था, पर अब तो ईर्ष्या के उभार का मौसम है।
समाजवादी प्रतिपादन ने ऐसी ही लोक-दृष्टि का विस्तार किया है और वह अधिकांश जन समुदाय के गले उतर गई है। लोगों के बीच बढ़ी हुई आर्थिक असमानता ने अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को इन दिनों अत्यधिक बढ़ावा दिया है। विश्लेषण करने पर इसी नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि दूसरों को प्रभावित करने, उनसे इज्जत पाने का सपना सर्वथा निरर्थक निकला, उल्टे तीन हानियां हुईं, पैसा गया, प्रमाणिकता घटी, संकट बढ़ा और दुर्गुणी दुर्व्यसनों का ऐसा भार अकारण ही लद गया जो व्यक्तित्व का मूल्य गिराता और मन:संस्थान पर तनाव उत्पन्न करने वाले जंजालों से जकड़ता है।
संचय को उत्तराधिकारियों के लिए छोडऩा या भोगना उसी हालत में, उसी मात्रा में उचित है, जितने से उनके वयस्क होने तक का गुजारा एवं स्वावलंबन का आधार खड़ा हो सके। ब्याज-भाड़े की कमाई बैठे-बैठे खाते रहने का प्रबंध करना, मुफ्त का माल अनगढ़ पीढ़ी पर छोड़कर चले जाना, उनका हित-साधन नहीं है और न दुलार का परिचय देने वाला तरीका। यह तो विनाश का मार्ग है, जिस पर अभिभावक अनजाने ही दुलार के नाम पर अपनी संतान को धकेलते हैं।
यही सब है, उन सफलताओं की परिणिति, जिन्हें भौतिक संपदा कहते हैं, विद्या, बुद्धि, प्रतिभा, कला का पदासीन या प्रतापी होने का लाभ तभी है, जब उनके साथ शालीनता का अनुशासन जकड़ा रहे। उसकी पकड़ ढीली होते ही यह सभी विभूतियां अनुपयुक्त मार्ग पर चल पड़ती हैं। दुर्बलों को दबोचने और उनसे अपना उल्लू सीधा करने के काम आती हैं।
मात्र वैभव बड़प्पन का मार्ग तो बारूद का खेल खेलने की तरह है। उसमें फुलझड़ी उड़ती तो दिखती है, पर चिंगारी से जलने और पैसे की बर्बादी होने की हानि भी स्पष्टत: सामने खड़ी रहती है। वैभव का उपार्जन एक बात है और उसके उत्पादन एवं उपयोग में शालीनता का समावेश होना-सर्वथा दूसरी बात। संपदा तो दुधारी तलवार है। यदि उसका अभ्यास एवं प्रयोग सही न हुआ तो उसका होना, न होने से अधिक महंगा पड़ेगा। अविवेकी के हाथ में पड़ा हुआ वैभव तो बंदर के हाथ में तलवार के समान है, जिसने मक्खी मारने का लाभ सोचने पर भी मालिक की नाक काटकर हानि पहुंचाई थी। इन तथ्यों पर विचार करते हुए शांत चित्त से निष्पक्ष न्यायाधीश जैसे विवेक का उपयोग करते हुए यह देखना होगा कि संपदा को प्रमुखता दी जाए या महानता को? निश्चय ही दूरदर्शिता का फैसला महानता की गरिमा स्वीकार करने और उसे उपलब्ध करने के प्रयास में जुट पड़ने का ही होगा। (विभूति फीचर्स)