17वीं किस्त
आत्मा का शरीर में महत्व कितना है?
छांदोग्य उपनिषद पृष्ठ संख्या 776 (महात्मा नारायण स्वामी कृत,उपनिषद रहस्य, एकादशो पनिषद)पर इस विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण और सुंदर विवरण आया है, जो निम्न प्रकार है।
“आत्मा ही नीचे, आत्मा ही ऊपर, आत्मा ही पीछे अर्थात पश्चिम में, आत्मा ही पूर्व अर्थात आगे, आत्मा ही दक्षिण, आत्मा ही उत्तर, आत्मा ही यह सब है ।निश्चय वह यह विद्वान इस प्रकार देखता हुआ, इस प्रकार मनन करता हुआ, इस प्रकार जानता हुआ ,आत्मा में रत, आत्मा में क्रीड़ा करने वाला, आत्मा में योग रखता हुआ, आत्मा में आनंद प्राप्त करता हुआ, स्वतंत्र सुख का अधिपति होता है। उसकी सब लोकों में स्वतंत्र गति होती है।”
पृष्ठ संख्या 777 पर निम्न विवरण है।
“उस इस विद्वान को आत्मा ही से सब प्राप्त होता है ।आत्मा से प्राण, आत्मा से आशा, आत्मा से स्मृति ,आत्मा से आकाश ,आत्मा से तेज ,आत्मा से जल, आत्मा से आविर्भाव( प्रकाश) आत्मा से तिरोभाव (अप्रकाश), आत्मा से अन्न,आत्मा से बल ,आत्मा से विज्ञान, आत्मा से ज्ञान ,आत्मा से चित,आत्मा से संकल्प, आत्मा से मन ,आत्मा से वाणी ,आत्मा से नाम, आत्मा से मंत्र, आत्मा से कर्म और आत्मा ही से यह सब प्राण प्राप्त होते हैं।”
बल का तात्पर्य यहां पर शारीरिक, मानसिक ,आत्मिक और सामाजिक सभी बलों का समावेश करने से है। क्रियात्मक जगत में आत्मिक निर्बलता सबसे बड़ा पातक है। इसलिए आत्म बल का विकास अवश्य करें।
एक बात अक्सर हम सुनते हैं। जैसा खाए अन्न
वैसा होवे मन
इस उपनिषद में इस पर कितनी सुंदर चर्चा पृष्ठ संख्या 778 पर है, देखिए।
“आहार के शुद्ध होने पर अंतःकरण की शुद्धि होती है। अंतःकरण के शुद्ध होने पर भूमा की स्मृति दृढ़ हो जाती है, और स्मृति की दृढ़ता को प्राप्त करके हृदय की समस्त गाते खुल जाती है”
उपरोक्त पंक्तियों में एक शब्द भूमा आया है। भूमा का अर्थ क्या है? इसको स्पष्ट करते हैं।
जब मनुष्य न कुछ और देखता है, ना कुछ और सुनता है, ना कुछ और जानता है वह भूमा है, और यही अमृत है।
इस प्रकार हमको अपने अंदर यदि अमृत तत्व का दर्शन करना है तो हमको अपना आहार ही शुद्ध रखना होगा क्योंकि आहार के शुद्ध रहने से ही अंतःकरण शुद्ध होता है और उसी से भूमा की प्राप्ति होती है।
आहार के नाम पर जो आज लोग खा-पी रहे हैं उसी से संसार में अशांति, असंतुलन, हिंसा और पाप में वृद्धि हो रही है। इसलिए मनुष्य को अपने आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्योंकि इसीलिए कहा जाता है कि जिस प्रकार का अन्न ग्रहण करोगे उस प्रकार का आपका अंतःकरण और मन हो जाता है ।अगर मनुष्य भोजन पर नियंत्रण कर ले तो उसका ईश्वर के भजन में मन अवश्य लगेगा। और ईश्वर भजन से ही भूमा अर्थात अमृत तत्व की प्राप्ति होती है।तथा गलत भोजन करने से मनुष्य पाप रूपी अंधकार में पड़ता और बढ़ता जाता है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,ग्रेटर नोएडा
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लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।