शरीर में आत्मा कहां रहती है? भाग ___16

इससे पूर्व की 15वीं किस्त में छांदोग्य उपनिषद में आत्मा के संबंध में क्या विवरण आता है उसकी प्रस्तुति की गई थी।
पृष्ठ संख्या 835 पर बहुत ही सुंदर विवरण आता है।
जीवात्मा को पुरुष क्यों कहते हैं?
इसको निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
‘पुरुष’ शब्द दो शब्दों की संधि हो करके बना है। पहला शब्द’ पुरी’ दूसरा शब्द ‘शेते’ ।
पुरी का अर्थ होता है’ शरीर में’ अर्थात अपने नगर में , और शेते का अर्थ होता है रहना। इसी को कई विद्वान आत्मा को अपने शरीर में शयन करना अथवा रहना भी कहते हैं।
अर्थात जो अपने शरीर में रहता है, निवास करता है।

“पुरी— शरीर में ,शेते —रहने से (व्याकरण की भाषा में शेते का’ ष’ हो जाता है )जीवात्मा को पुरुष कहते हैं ।इस जीव का उद्धार अपने ही करने से हुआ करता है। एक जगह कहा गया है कि आत्मा ही से आत्मा का उद्धार करना चाहिए क्योंकि आत्मा ही आत्मा का बंधु और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है”
उक्त सूत्र में यह कहा गया है कि आत्मा यदि अपना उद्धार करना चाहता है तो आत्मा को परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करना होगा ,तब आत्मा अपना ही बंधु , सहायक और मित्र हो जाता है। और यदि ईश्वर से संबंध स्थापित नहीं करता तो वही आत्मा अपना शत्रु हो जाता है।
पृष्ठ संख्या 850 पर विवरण है।
“अब शरीर के संबंध में कहते हैं। प्राण ही संवर्ग है, वह पुरुष अर्थात आत्मा जब सोता है प्राण ही में वाणी लीन हो जाती है ।इसी प्रकार चक्षु प्राण में, श्रोत्र प्राण में, मन प्राण में, निश्चय प्राण ही इन सबको अपने भीतर ले लेता है।”

अर्थात जब हम (अर्थात आत्मा ऐं) सोते हैं तो केवल प्राण ही चलता रहता है। प्राण ही अपना काम करता रहता है। ना हमारी नेत्र इंद्रिय काम करती, ना हमारी वाणी कार्य करती, ना हमारे कान किसी प्रकार का काम करते। इन सब की शक्तियों को प्राण अपनेअंदर सोख लेता है।
इसलिए एक जगह कहा गया है कि सोते हुए व्यक्ति को एकदम नहीं जगाना चाहिए।
जब कोई मनुष्य बीमार हो जाता है तो उसके परिजन, प्रियजन आकर के उस बीमार व्यक्ति से अपनी पहचान पूछते हैं। इसको कितना सुंदर स्पष्ट किया गया है,देखें।
पृष्ठ संख्या 749 पर इस प्रकार विवरण है।
“जब बंधु बांधव रोगी पुरुष के समीप चारों तरफ बैठते हैं और रोगी से पूछने लगते हैं कि मुझको जानते हो, मुझको पहचानते हो। उसकी जब तक वाणी मन में ,मन प्राण में,प्राण तेज में तथा तेज परदेवता या आत्मा में लीन नहीं होता तब तक वह जानता है”
अगले सूत्र में निम्न प्रकार कहा गया है।
“इसके बाद जब उसकी वाणी मन में ,मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परदेवता आत्मा में लीन हो जाता है तब नहीं पहचानता।”
“सो जो यह सूक्ष्म जगत है, वह सब आत्मामय है,।वह सत्य है। वह आत्मा है।”
पृष्ठ संख्या 751

“सुषुप्त अवस्था में मनुष्य का नाम स्वपिति होता है ।’स्व ‘अपने को कहते हैं ।अपोत के अर्थ में लीन होता है , अर्थातअपने में सुषुप्त अवस्था अंतर्गत लीन होने वाले को स्वपिति कहते हैं।”

क्रमश:
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
ग्रेटर नोएडा।
चलभाष
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