कब तक शिखंडी, भीष्म पितामह का आखेट करता रहेगा, मोदी जी?*
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बृजेन्द्र सिंह वत्स
समाचार है कि जम्मूकश्मीर के कठुआ में सेना के एक जूनियर कमीशन ऑफिसर सहित ५ भारतीय वीरगति को प्राप्त हो गए और दुर्भाग्य यह कि,वे वीर युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त नहीं हुए वरन धोखे से वे काल के गाल में समा गए। महाभारत के युद्ध में शिखंडी ने बिना युद्ध किये ही भीष्म पितामह का आखेट कर लिया था और यदि मेरी स्मृति सत्य है तो शिखंडी उसी भूभाग अर्थात रावलपिंडी का था जहां आज पाकिस्तान का सैन्य और आई.एस.आई का मुख्यालय है। कठुआ में इन वीरों के बलिदान के पश्चात उनके पार्थिव शरीर इनके घर पहुंचे। परिवार वालों को सांत्वना देने के लिए गांव, कस्बे, नगर इत्यादि से जनसमूह उमड़ पड़ा। उनकी शव यात्रा राजकीय सम्मान के साथ अपने गंतव्य तक पहुंची और राजकीय सम्मान के साथ इनका अंतिम संस्कार भी हो गया किंतु यक्ष प्रश्न यह है कि जिस ३७० धारा को हटाने के बारे में इतनी दुंदुभि पीटी जाती है उसके हटने के पश्चात भी वहां आतंकवादी घटनाएं क्यों घट रहीं हैं? इतना होता तब भी ठीक था, वहां तो घरों में पक्के बंकर बन गए। बंकर बनना कोई सहज तो नहीं है।ये अचानक तो नहीं हो सकता। वे कौन से कारण थे कि बंकर बन गए और गुप्तचर तंत्र को इसका आभास तक न लग सका? स्पष्ट है कि कहीं तो कुछ झोल अवश्य है। वहां के जन मानस की सहायता के बिना ऐसा संभव नही है। यह सत्य है कि वहां आतंक वादी घटनाएं कम हुई है लेकिन निर्मूल तो नहीं हो रही है। जब राजनाथ सिंह जी गृहमंत्री हुआ करते थे तो वे ऐसी घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करते थे। उनका यह वाक्य हास्य का सूचक भी बना लेकिन वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह भी तो केवल उच्च स्तरीय बैठक करके निर्देश पारित कर देते हैं और परिणाम वही ढाक के तीन पात,यदि ऐसा न होता तो प्रश्न यह है कि शाह के गृह मंत्रालय में छठें वर्ष में होने के पश्चात भी कठुवा में यह पांच वीर बलिदान क्यों हो गए? मुझे खेद उस समय होता है जब हिंडनबर्ग जैसी झूठी रिपोर्ट पर संसद ठप्प कर देने वाले विपक्षी दल के नेता विशेष कर राहुल गांधी, जो अभी हाल ही में मणिपुर की यात्रा पर थे लेकिन वह कभी अनंतनाग राजौरी जैसे आतंक पीड़ित स्थानों पर नहीं गए, उनके सहित सभी विपक्षियों के मुंह में दही जम जाता है और वे कठुआ जैसी घटनाओं पर टिप्पणी करने में लज्जा अनुभव करते हैं। मुझे लगता है कि सीमाओं पर जो प्रहरी अपनी जान हथेली पर रखकर खड़े होते हैं उनसे यह राजनेता कोई सहानुभूति नहीं रखते । संभवतः इनका विचार यह हो कि यह लोग अपनी जान देने के लिए ही तो सरकारी वेतन लेते हैं। मुझे स्मरण आ रहा है कि संभवतः २०१४ से पहले बिहार के एक मंत्री ने किसी बलिदानी सैनिक के परिवार वालों से मिलने से इंकार करते हुए टिप्पणी की थी कि… दस लाख की गैल पहुंचवा तो दी है। इस पर व्यथित होकर आक्रोश व चुनौती को व्यक्त करते हुए ओज के प्रख्यात कवि विनीत चौहान ने कहा था…. लो मैं २० लाख देता हूं तुम किस्मत के हेटों को। हिम्मत हो तो नेता भेजें लड़ने अपने बेटों को…। विनीत जी ने कितना यथार्थ
कहा था। भारत के राज नेताओं के वंशज राजनीति के अतिरिक्त और कहां पाए जाते हैं? नेहरू घराने की चौथी पीढ़ी राजनीति में है पांचवी प्रतीक्षा सूची में। मुलायम सिंह घराने के पांच सदस्य लोकसभा में और एक राज्यसभा में। करुणा निधि की तीसरी पीढ़ी। लालू यादव ने भी अपनी लीला में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है, शरद पवार का अंतिम लक्ष्य सुप्रिया सुले को स्थापित करना ही है, तो चंद्रबाबू नायडू, एकनाथ शिंदे, उधव ठाकरे भी अपनी अगली पीढ़ी को तराशने में लगे हुए हैं। सर जी के तो नक्षत्र ही विरोध में है नहीं तो अभी तक सुनीता जी आम आदमी पार्टी की ठेकेदार और दिल्ली की मुख्यमंत्री बन चुकी होती और तो और यह बीजेपी वाले भी कहां पीछे है।स्व. कल्याण सिंह जी के राजवीर सिंह, राजनाथ जी के पंकज सिंह, गोपीनाथ मुंडे की पंकजा, येद्युरप्पा के विजयेंद्र, प्रेम कुमार धूमल साहब के अनुराग ठाकुर और दूसरे अरुण धूमल क्रिकेट बोर्ड की राजनीति में सक्रिय हैं। अब अमित शाह ही क्यों पीछे रहें उनके जय शाह भी क्रिकेट बोर्ड की राजनीति में इस अधिकार और सीमा तक सक्रिय हैं कि बिना चयन समिति की बैठक हुए, यह घोषित कर देते हैं कि रोहित शर्मा ,चैंपियंस ट्रॉफी और विश्व टेस्ट चैंपियन शिप के फाइनल में भारत के कप्तान होंगे। हास्यास्पद यह है कि विश्व चैंपियनशिप का फाइनल जून २०२५ में होना है।वहीं स्व. सुषमा जी की बांसुरी भी बज रही है। भूल से भी किसी राजनेता का वंशज सेना में नहीं है अतः स्पष्ट है कि इन लोगों को सैनिक परिवारों की फटी बिवाइयों की पीड़ा का आभास ही नहीं है।
कठुआ के
बलिदानी वीरों पर प्रत्येक भारतवासी को घमंड है किंतु ऐसे बहादुरों के बलिदान से जहां एक ओर क्षणिक ही सही भारतीय सेना का मनोबल प्रभावित होता है वहीं उसकी शक्ति भी निर्बल होती है और सर्वाधिक प्रभावित होता है इनका परिवार। यह बलिदानी किसी की वृद्धावस्था का संबल होते हैं, किसी का सुहाग होते हैं, किसी के पिता होते हैं और पटल से ओझल होते ही अचानक ही वे सब निराश्रित हो जाते हैं। यह वीर भी छोटे छोटे बच्चों के पिता होंगें। उनके बच्चे भी अभी व्यवस्थित होने के लिए संग्राम कर रहे होंगे। यह कोई राजनैतिक परिवार से तो नहीं है कि व्यवस्था की गारंटी जन्म लेते ही बन जाती हो।इनके परिवार को उनकी आवश्यकता होगी। यह सत्य है कि आतंक वादी भी मारे जाते रहे हैं लेकिन क्या इन आतंकवादियों के मारे जाने से पाकिस्तान की सेना पर कोई प्रभाव पड़ता है? उत्तर मिलता है नहीं। पाकिस्तान की सेना बिना कुछ अपना गवाएं, सियारों के द्वारा सिंहों का आखेट करके भारतीय सैन्य शक्ति को भरपूर हानि पहुंचा देती है। इस बलिदान पर पूरा देश आक्रोशित है। वह इस व इस जैसे अन्य बलिदानों का प्रतिकार चाहता है।
वस्तुतः जम्मू कश्मीर की यह समस्या भारत के अधिक चतुर राजनेताओं की देन है। इस व्यथा का आरंभ उस समय हुआ, जब नेहरू जी ने शत्रु सेना को खदेड़ती भारतीय सेना को रोक लिया था, संभवतः इस उपक्रम पर उन्हें शांति के नोबेल पुरस्कार की आशा हो लेकिन दुर्भाग्य से पुरस्कार वालों ने उनके इस कार्य को इस योग्य समझा ही नहीं । १९७१ में पाकिस्तान के ९३००० सैनिक युद्ध बंदी के रूप में हमारे पास थे तथा उनकी मुक्ति के फलित के रूप में इस समस्या का निदान प्राप्त किया जा सकता था लेकिन न जाने क्यों श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस निदान को पाने का प्रयास ही नहीं किया। अपने गले में स्वयं भारत रत्न डालने वाली इंदिरा जी को भी संभवतः नोबेल शांति पुरस्कार दिख रहा हो इसलिए उन्होंने इस समस्या की बात तो छोड़ें, अपने कुछ सौ युद्ध बंदी भी शत्रु देश से वापस नहीं लिए। भाजपा के वाजपेयी जी, जिन्हें मैं नेहरू का मानस पुत्र मानता हूं,ने भी इस बहती गंगा हाथ धोए थे। कारगिल युद्ध के समय अपने रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल शंकर राय चौधरी की इच्छा के पश्चात भी वे शत्रु सेना से अपना क्षेत्र पी ओ जे के वापस लेने का आदेश नहीं दे सके। नेहरू ने खदेड़ती सेना को रोक लिया था तो वाजपेई ने भी यही तो किया। दोनों के कर्मों का दुष्परिणाम आज भारतवासी भुगत रहे हैं ।
संसद पर आक्रमण के पश्चात वाजपेयी जी का पौरुष जागृत हुआ था और उन्होंने सेना को आक्रामक मुद्रा में सीमा पर भेज दिया था। भारत का जनमानस आशा भरी दृष्टि से इस समस्या के निदान को खोज रहा था लेकिन लगता है कि वाजपेयी जी को भी शांति का नोबेल पुरस्कार पेड़ पर रखा दिखने लगा और जब उनकी अर्जुन दृष्टि उस पर पड़ी तो उन्होंने रार न ठानने का विकल्प चुना और लगभग एक वर्ष तक सीमा पर खड़े रहने के प्रभाव स्वरूप भारी भरकम धन राशि के व्यय का बोझ भारत के कोष पर डालकर उन्होंने भारतीय सेना को बैरक में वापस बुला लिया परंतु हाय रे हत्भाग शांति का नोबेल पुरस्कार फिर भी मिल न सका।
अगले वर्ष क्रिकेट की चैंपियंस ट्रॉफी पाकिस्तान में खेली जाएगी। आशा के अनुसार भारत की टीम शत्रु देश नहीं जाएगी और वह अपने मैच तटस्थ स्थान पर खेलेगी किंतु शत्रु देश के विरुद्ध मैच का वह बहिष्कार करेगी इसकी संभावना बिल्कुल दिखाई नहीं देती। विचित्र है कि एक ओर भारत सरकार शत्रु देश से कोई संबंध इसलिए नहीं रखना चाहती कि वह आतंकवाद का निर्यात करता है दूसरी ओर बीसीसीआई क्रिकेट मैच खेल कर भारत सरकार के इस निश्चय को पलीता लगा देता है और शत्रु देश के बोर्ड को आर्थिक रूप से दृढ़ भी करता है? क्या जो वीरगति को प्राप्त हुए, उनका कुछ पाकिस्तान से निजी द्वेष था ? क्या भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों और
बोर्ड का भारत की जनता के प्रति कोई उत्तर दायित्व नहीं है? अपने दायित्व को निभाने के लिए क्या हमारा बोर्ड
यह निर्णय नहीं कर सकता कि भले से कुछ ट्रॉफी भारत के पास न आ सके लेकिन शत्रु द्वारा निर्यात किए गए आतंकवाद के कारण जिन वीरों का बलिदान होता रहा है उनकी वीरगति को सम्मान देने के लिए बोर्ड शत्रु देश के साथ कोई मैच नहीं खेलेगा, यदि कोई यह कहे कि खेल और आतंकवाद अलग-अलग हैं तो उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान के खिलाड़ी अपना प्रशिक्षण सेना के बीच लेते हैं ।सेना व उनका चोली दामन का साथ है और शत्रु सेना का तथा आतंक वाद का साथ तो जग जाहिर है।
त्रेता काल में लंका के रणांगन में राम-रावण का घोर संग्राम हुआ था। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। रावण का संपूर्ण परिवार समाप्त हो चुका था। उसका विश्व विजयी सैन्य बल जीर्ण क्षीर्ण अवस्था को प्राप्त हो चुका था । उसका समस्त यश व वैभव धूल धूसरित हो चुका था किंतु रावण विकट योद्धा था। अंतिम समय तक पराजय न मानने वाला एवं सोने में सुहागा यह कि वह रथी था तथा राम व लक्ष्मण पदाति युद्ध कर रहे थे। अब तक के संपूर्ण युद्ध में सामरिक दृष्टि से यह स्थिति रावण के हित में थी तथा युद्ध के अंतिम पल में यह लाभ की स्थिति स्पष्ट दिखाई दे रही थी। रथारूढ़ रावण के एक वार से लक्ष्मण मूर्छित होकर रण क्षेत्र से बाहर जाने पर विवश हो गए थे। रथी रावण के विरुद्ध पदाति राम को युद्ध में असहजता प्रतीत हो रही थी। अचानक राम की सेना में एक हलचल दिखाई पड़ी। एक रथ सेना के पृष्ठ भाग पर प्रकट हुआ, वह आगे बढ़ रहा था। सारथी ने राम के सम्मुख पहुंचकर रथ रोक दिया। अचानक घटित हुए इस घटनाक्रम के कारण युद्ध क्षणिक बाधित हुआ। रावण आश्चर्यजनक मुद्रा में इस सामरिक सहायता का आंकलन करने का प्रयास कर रहा था। वह सारथी को पहचान चुका था। उसने पाया कि उसके शत्रु इंद्र ने उसके अब तक के प्रबलतम शत्रु राम को युद्ध के निर्णायक क्षण में घातक सामरिक सहायता उपलब्ध करा दी है। इधर राम भी इस अचानक परिवर्तित स्थिति में आश्चर्य में थे क्योंकि इंद्र के साथ उनका कोई सामरिक सहयोग नहीं था। सारथी मातुली के आग्रह पर राम रथारूढ़ हो गए। असमान युद्ध अब समानता धारण करके द्विरथीय हो चुका था। अपने अब तक के पराभव के कारण क्रोध से झुलस रहे रावण की क्रोधाग्नि में इस
सहायता ने घृत डाल दिया।अब उसके प्रहार सघन से सघनतर होते जा रहे थे। उधर मातुली ने यह पाया कि राम सुरक्षात्मक युद्ध कर रहे हैं। रावण जो प्रहार कर रहा था वे उसका प्रतिकार मात्र कर रहे थे। अनुभवीमातुली अवगत था कि यदि यही स्थिति रही तो कोई भी एक प्रहार निर्णायक हो सकता है तथा युद्ध का निर्णय परिवर्तित हो सकता है। उसने अपनी चिंता से रथी राम को अवगत कराया और उसके पश्चात इतिहास का निर्माण हो गया।राम और रावण का वह संग्राम वर्तमान में भी चल रहा है।
राम रावण के आधिपत्य से मां सीता को मुक्त कराने हेतु युद्ध रत थे और इधर भारत की जनता की दृष्टि पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान पर है और यह भी कि आतंकवाद के इस तोते की जान इसी क्षेत्र में है। न होगा बांस न बजेगी पाकिस्तानी बांसुरी। भारत निरंतर सुरक्षात्मक युद्ध कर रहा है। हमने सर्जिकल और एयर स्ट्राइक किए लेकिन उससे पहले हम उड़ी और पुलवामा में भयानक आघात सह चुके थे। अतः अब हमें युद्ध की रणनीति परिवर्तित करनी होगी। अब आक्रामक युद्ध की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री जी राम को इंद्र ने सहायता प्रदान की थी। आपने राम के उस विग्रह की जिसमें वे धनुष बाण धारण किए हुए हैं,की प्राण प्रतिष्ठा की। आपने राफेल जैसा आयुध भारत की रक्षा पंक्ति में सम्मिलित किया।आपके प्रभु श्री राम जी ने इंद्र के आयुध का लाभ उठाया था, आप कब उठाएंगे? इन वीरों की आत्मा और आक्रोशित भारत की जनता को संतोष तब ही होगा जब पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित, बाल्टिस्तान पुनः हमारा भाग होकर और जम्मू कश्मीर विधानसभा के आगामी चुनाव में अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर प्राप्त करे।
आदरणीय प्रधानमंत्री जी युद्ध का परिणाम अपने पक्ष में करने के लिए आक्रामक युद्धकीजिएगा। नोबेल का शांति पुरस्कार मोसाद के पूर्व जासूस और तत्कालीन इस्राइल के प्रधानमंत्री मेनाथम बेगिन को प्राप्त हुआ था। उन्होंने कैंप डेविड शांति समझौता किया था और उसी के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था किंतु उससे पहले वे अपने शत्रु देशों का बैंड बजा चुके थे इसलिए यह निश्चित होता है कि शक्ति के साथ ही शांति संभव है, शांति की गुहार से नहीं ।प्रधानमंत्री जी, वह सीमा कब आएगी जब शिखंडी के द्वारा भीष्म पितामह की हत्या होनी रुकेगी?
(मुरादाबाद,उ.प्र.।)