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     अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व योरूप के किसी भी देश में इतना शिक्षा का प्रचार नहीं था जितना कि भारत वर्ष में था। भारत विद्या का भण्डार था। सार्वजनिक शिक्षा की दृष्टि से भारत सब देशों का शिरोमणि था। उस समय असंख्य ब्राह्मण प्राचार्य अपने - अपने कुल में शिष्यों को शिक्षा देते थे। मुख्य - मुख्य नगरों में विद्यापीठे स्थापित थीं। छोटे बालकों की शिक्षा के लिए प्रत्येक ग्राम में पाठशालायें थीं , जिनका संचालन पंचायतों की ओर से किया जाता था। इङ्गलिस्तान पालियामेंट के सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ' इण्डिया ' में लिखा है
   " मैक्समूलर ने , सरकारी उल्लेखों और मिशनरी की रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर कब्जा होने से पूर्व वहाँ की शिक्षा की अवस्था के सम्बन्ध में लिखी गई थी , लिखा कि उस समय बंगाल में ८० हजार पाठशालाएं थीं। 
 " सन् १८२३ ई ० की ' कम्पनी ' की एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा है- " शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्य देश में किसानों की अवस्था इतनी ऊची नहीं है जितनी ब्रिटिश भारत के अनेक भागों में। 
  " भारत के जिस - जिस प्रान्त में ' कम्पनी ' का राज्य स्थापित होता गया उस उस प्रान्त में सहस्रों वर्ष पुरानी शिक्षा प्रणाली सदा के लिए मिटती चली गई। ग्राम पंचायतों और देशी रियासतों के साथ साथ पाठशालाओं का भो लोप होता गया। क्योंकि ग्राम पंचायतें पाठशालाओं का प्रबन्ध करना अपना कर्तव्य समझती थीं और देशी रियासतों के राजाओं की आय का बहुत बड़ा भाग शिक्षा प्रचारार्थ पाठशालाओं को दिया जाता था। यह सहायता मासिक और वार्षिक बंधी हुई थी। 
   हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य को नष्ट कर उसके स्थान में मिथ्या इतिहास लिखवाकर भारतीय स्कूलों में पढ़ाना प्रारम्भ किया गया , सखेद लिखना पड़ता है कि वही मिथ्या इतिहास स्व तन्त्र भारत में आज भी पढ़ाया जा रहा है। सम् १७५७ से लेकर १८५७ तक निरन्तर एक शताब्दी तक यह विवाद रहा कि भारतीयों को शिक्षा देना अंग्रेजों की राज्य सत्ता के लिए हितकर है या अहितकर। प्रारम्भ में प्रायः सभी अंग्रेज शासक भारतीयों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। जे० सी० मार्शमैन ने १५ जून १८५३ ई ० को पालियामेंट की सिलेक्ट कमेटी के सन्मुख साक्षी देते हुए कहा था।
  " भारत में अंग्रेजी राज्य के कायम होने के बहुत दिन बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार को भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा। "
  भारतीयों में शिक्षा का ह्रास हो गया। अंग्रेज शासकों को सरकारी विभागों में हिन्दुस्तानी कर्मचारियों की आवश्यकता अनुभव हुई , क्योंकि इनके बिना उनका काय चल सकना सर्वथा असम्भव था। १८ वीं शताब्दी के अन्त में अंग्रेज शासकों के विचारों में परिवर्तन हुआ। उन्होंने अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रचलित की जिससे लेखक ( कलर्क ) तैयार किये जा सके। डायरेक्टरो ने ५ सितम्बर , १८२७ के पत्र में गवर्नर जनरल को लिखा कि इस शिक्षा का धन “ उच्च और मध्यम श्रेणी के उन भारतवासियों पर व्यय किया जाये , जिनमें से कि आपको अपने शासन के कार्यों के लिए सबसे अधिक योग्य देशी एजेन्ट मिल सकते हैं और जिनका अपने देश वासियों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव है।
     इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया। जिससे भारत में विद्वानों का अभाव होता गया और क्लर्कों की वृद्धि होती गईं। क्योंकि शिक्षित भारतीयों से अंग्रेज बहुत डरते थे। अंग्रेजों का अतीत काल इतना प्रभावशाली न था जितना भारतीयों का। भारत वासियों को ज्यों - ज्यों ब्रिटिश भारतीय इतिहास के आन्तरिक वृत्तान्त का ज्ञान होता है , त्यों - त्यों उनके चित्त में यह विचार उत्पन्न होता है कि भारत जैसे विशाल देश पर मुट्ठी भर विदेशियों का आधिपत्य होना बड़ा भारी अन्याय है। अत एव उनकी इच्छा हो जाती है कि वे अपने देश को इस विदेशी शासन से स्वतन्त्र कराने में सहायक हों। यह मैं ही नहीं लिख रहा अपितु एक अनुभवी अंग्रेज मेजर रालेण्डसन जो वहां की शिक्षा - कमेटी का मन्त्री भी रह चुका है , उसने ४ अगस्त १८५३ ई० में पार्लियामेंट कमेटी के सम्मुख ऐसी सम्मति प्रकट की थी। इसीलिए अंग्रेजों ने हमारे इतिहास , साहित्य और शिक्षा प्रणाली का सर्वनाश कर डाला।

लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती गुरुकुल झज्जर

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